प्रदीप कुमार सिंह
व्यक्ति की मनःस्थिति में प्रायः उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कभी मन अच्छा रहता है तो वह हर परिस्थिति का आनंद ले पाता है, अपनी खुशियों को सबको बाँटता फिरता है और यदि मन खराब हो जाए तो किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। बिगड़ी हुई मनःस्थिति के कारण किसी भी काम को करने में मन नहीं लगता। मनःस्थिति का बिगड़ना मन की एक अजीब-सी दशा होती है, जिसके कारण मन अनमना-सा हो जाता है। ऐसी दशा में व्यक्ति यह चाहता है कि उसका मन ठीक हो जाए। मनोविज्ञानी जैजोक का कहना है कि यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है, जिसके अच्छे या बुरे होने पर हमारे व्यवहार, क्रिया व परिणाम में अंतर दिखलाई पड़ने लगता है। सामान्य बोल-चाल की भाषा में यही ‘मूड’ कहलाता है। यों तो यह एक अस्थायी मनोदशा है, लेकिन जब तक मन की यह दशा व्यक्ति के साथ रहती है, उसे निष्क्रिय बनाए रहती है। मनोदशा का हमारी जिंदगी पर बहुत असर होता है। ‘अगर हम अच्छी मनोदशा में होते हैं, तो अपना विरोध करने वाली बातों व आलोचनाओं को भी आसानी से सुन लेते हैं। लेकिन अगर हम खराब मनोदशा में होते हैं, तो अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहते।’-ऐसा मानना है टैक्सास विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ0 आर्ट मार्कमैन का। हमारी जिंदगी को संतुलित बनाने के लिए अच्छी मनोदशा की बेहद जरूरत होती है। लेकिन आज जीवन की जटिलताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि सामान्य व्यक्ति अक्सर ही खराब मनःस्थिति में पहुँच जाता है। जीवन में जैसे-जैसे कठिनाइयाँ बढ़ती जाती हैं, मानसिक दबाव बढ़ता जाता है। हमारे जीवन का उद्देश्य भी यही होता है कि किस तरह अधिक से अधिक धन का संग्रह किया जा सके, पदोन्नति व वाहवाही मिल सके। जीवन इसके अतिरिक्त भी कुछ है, यह सामान्य व्यक्ति को नहीं मालूम, और न ही वह इसे मालूम करना चाहता है। बस, यही अज्ञानता व अनभिज्ञता हमारी इस विपिन्न मनःस्थिति का कारण बन जाती है।
प्रसिद्ध लेखक क्रिस्टीना कर्टिस का कहना है कि काम की जगह पर अपनी मनोदशा को संतुलित रखना बहुत जरूरी होता है; क्योंकि मनोदशा का हमारी कामयाबी से बहुत बड़ा रिश्ता होता है। क्रिस्टीना एक बहुत प्रसिद्ध लीडरशिप कोच हैं और उन्होंने अमेरिकी एथलीटों के साथ भी काम किया है। यदि बिगड़ी हुई मनोदशा का मात्र स्वयं से ही लेना-देना हो, तो इससे ज्यादा नुकसान नहीं होता। लेकिन यदि इसका असर दूसरों पर भी पड़ने लगे, तो सचमुच यह खतरे की घंटी है। व्यक्ति की जब मनोदशा खराब होती है, तो वह अंदर-ही-अंदर घुटने लगता है। उसे यह समझ नहीं आता कि इस मनोदशा को कैसे ठीक किया जाए? इस मनोदशा से बाहर कैसे निकला जाए? इस मनोदशा में एकाग्रता बिलकुल नहीं रहती, मन अशांत व बेचैन हो जाता है, कहीं भी कुछ करने में मन नहीं लगता और इस मनोदशा में समय और ऊर्जा, दोनों का व्यय होता है। हमें अपनी जीवनशैली को सुधारने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमारा रहन-सहन जितना निर्द्वंद्व व निश्छल होगा, उतनी ही अनुकूल हमारी आंतरिक मनःस्थिति होगी। जहाँ जीवन में बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्धा होंगे, वहाँ लोगों की मनोदशा (मूड) उतनी ही असामान्य होती चली जाती है। इसलिए विद्वान लोग यह कहते हैं कि जब कभी मनोदशा खराब हो जाए, तो उसे स्वतः अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उसको सामान्य स्थिति में लाने का प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। इससे कम समय में मनःस्थिति को ठीक किया जा सकता है। यदि मनोदशा खराब हो जाए तो अपने मन को किसी न किसी आश्रय से अवश्य बाँध देना चाहिए, जैसे-मानवीय गुणों से भरी पुस्तकों का स्वाध्याय, मनोरंजन, प्रकृति का सान्निध्य, हँसी-मजाक वगैरह आदि। इससे ‘मन’ जल्दी बदलता है और मनोदशा को सामान्य करना आसान हो जाता है।
व्यक्ति की मनःस्थिति में प्रायः उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। कभी मन अच्छा रहता है तो वह हर परिस्थिति का आनंद ले पाता है, अपनी खुशियों को सबको बाँटता फिरता है और यदि मन खराब हो जाए तो किसी से बात करना भी पसंद नहीं करता। बिगड़ी हुई मनःस्थिति के कारण किसी भी काम को करने में मन नहीं लगता। मनःस्थिति का बिगड़ना मन की एक अजीब-सी दशा होती है, जिसके कारण मन अनमना-सा हो जाता है। ऐसी दशा में व्यक्ति यह चाहता है कि उसका मन ठीक हो जाए। मनोविज्ञानी जैजोक का कहना है कि यह एक ऐसी मानसिक अवस्था है, जिसके अच्छे या बुरे होने पर हमारे व्यवहार, क्रिया व परिणाम में अंतर दिखलाई पड़ने लगता है। सामान्य बोल-चाल की भाषा में यही ‘मूड’ कहलाता है। यों तो यह एक अस्थायी मनोदशा है, लेकिन जब तक मन की यह दशा व्यक्ति के साथ रहती है, उसे निष्क्रिय बनाए रहती है। मनोदशा का हमारी जिंदगी पर बहुत असर होता है। ‘अगर हम अच्छी मनोदशा में होते हैं, तो अपना विरोध करने वाली बातों व आलोचनाओं को भी आसानी से सुन लेते हैं। लेकिन अगर हम खराब मनोदशा में होते हैं, तो अपने खिलाफ कुछ भी सुनना नहीं चाहते।’-ऐसा मानना है टैक्सास विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर डॉ0 आर्ट मार्कमैन का। हमारी जिंदगी को संतुलित बनाने के लिए अच्छी मनोदशा की बेहद जरूरत होती है। लेकिन आज जीवन की जटिलताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि सामान्य व्यक्ति अक्सर ही खराब मनःस्थिति में पहुँच जाता है। जीवन में जैसे-जैसे कठिनाइयाँ बढ़ती जाती हैं, मानसिक दबाव बढ़ता जाता है। हमारे जीवन का उद्देश्य भी यही होता है कि किस तरह अधिक से अधिक धन का संग्रह किया जा सके, पदोन्नति व वाहवाही मिल सके। जीवन इसके अतिरिक्त भी कुछ है, यह सामान्य व्यक्ति को नहीं मालूम, और न ही वह इसे मालूम करना चाहता है। बस, यही अज्ञानता व अनभिज्ञता हमारी इस विपिन्न मनःस्थिति का कारण बन जाती है।
प्रसिद्ध लेखक क्रिस्टीना कर्टिस का कहना है कि काम की जगह पर अपनी मनोदशा को संतुलित रखना बहुत जरूरी होता है; क्योंकि मनोदशा का हमारी कामयाबी से बहुत बड़ा रिश्ता होता है। क्रिस्टीना एक बहुत प्रसिद्ध लीडरशिप कोच हैं और उन्होंने अमेरिकी एथलीटों के साथ भी काम किया है। यदि बिगड़ी हुई मनोदशा का मात्र स्वयं से ही लेना-देना हो, तो इससे ज्यादा नुकसान नहीं होता। लेकिन यदि इसका असर दूसरों पर भी पड़ने लगे, तो सचमुच यह खतरे की घंटी है। व्यक्ति की जब मनोदशा खराब होती है, तो वह अंदर-ही-अंदर घुटने लगता है। उसे यह समझ नहीं आता कि इस मनोदशा को कैसे ठीक किया जाए? इस मनोदशा से बाहर कैसे निकला जाए? इस मनोदशा में एकाग्रता बिलकुल नहीं रहती, मन अशांत व बेचैन हो जाता है, कहीं भी कुछ करने में मन नहीं लगता और इस मनोदशा में समय और ऊर्जा, दोनों का व्यय होता है। हमें अपनी जीवनशैली को सुधारने की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमारा रहन-सहन जितना निर्द्वंद्व व निश्छल होगा, उतनी ही अनुकूल हमारी आंतरिक मनःस्थिति होगी। जहाँ जीवन में बनावटीपन, दिखावा, झूठी शान, प्रतिस्पर्धा होंगे, वहाँ लोगों की मनोदशा (मूड) उतनी ही असामान्य होती चली जाती है। इसलिए विद्वान लोग यह कहते हैं कि जब कभी मनोदशा खराब हो जाए, तो उसे स्वतः अपनी स्वाभाविक मानसिक प्रक्रिया द्वारा ठीक होने के लिए नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उसको सामान्य स्थिति में लाने का प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। इससे कम समय में मनःस्थिति को ठीक किया जा सकता है। यदि मनोदशा खराब हो जाए तो अपने मन को किसी न किसी आश्रय से अवश्य बाँध देना चाहिए, जैसे-मानवीय गुणों से भरी पुस्तकों का स्वाध्याय, मनोरंजन, प्रकृति का सान्निध्य, हँसी-मजाक वगैरह आदि। इससे ‘मन’ जल्दी बदलता है और मनोदशा को सामान्य करना आसान हो जाता है।
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