उनके साथ खाना खाने से नहीं होने वाला दलितों का भला...
आजकल उत्तर प्रदेश की सरकार के मुख्यमंत्री और मंत्रीगण दलितों के घर जाकर खाना खाने का कार्यक्रम कर रहे हैं। संदेश यह देना है कि वह भेद-भाव रहित है और उसकी नजर में सभी एक समान है। यह उचित नहीं लगता है। यदि सरकार को उनके लिए कुछ करना ही है तो उन्हें सरकार में हिस्सा दे, रोजगार और शिक्षा के स्तर को बढ़ाये। उन्हें इस एहसास के साथ कि वे दलित हैं और उनके यहां भोजन करना अच्छा नहीं है, फिर भी वे कर रहे हैं, यह दलितों का सिर्फ अपमान ही है।
आजादी के 70 साल बाद दलितों का एक अच्छा-खासा शहरी मिडिल क्लास बन चुका है, जो छुआछूत के परंपरागत तरीकों का शिकार नहीं है। वह महत्वाकांक्षी है और उसे अब राजकाज की उच्च संस्थाओं से लेकर देश की अमीरी में हिस्सा चाहिए। नेताओं के दलित भोज से उसे प्रभावित नहीं किया जा सकता।
अभी इस बात को सौ साल भी नहीं हुए हैं। मुंबई के पास महाड़ के चावदार तालाब में दलितों को पानी पीने से रोका जा रहा था। तब दलितों ने 20 मार्च, 1927 को बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में इस तालाब में पानी पीकर अपना मनुष्य होने का हक हासिल किया, लेकिन यह एक सांकेतिक कदम ही था। उस समय देश के बड़े हिस्से में दलित उन तालाबों का पानी नहीं पी सकते थे, जिसका इस्तेमाल बाकी जातियों के लोग करते थे। इसके तीन साल बाद नासिक के पास कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए बाबा साहेब के नेतृत्व में एक आंदोलन हुआ। इस लोकप्रिय मंदिर में दलितों को घुसने की इजाजत नहीं थी। यहां भी दलितों ने मंदिर प्रवेश का अधिकार हासिल किया। देश के कई होटलों में लंबे समय तक दो तरह के गिलास रखने का चलन था। दलितों के गिलास अलग रखे जाते थे, ताकि सवर्ण जातियों की जाति शुद्धता बनी रहे।
यह आजादी के पहले का भारत था। दलितों को तब अछूत कहा जाता था और छुआछूत सख्ती से लागू होती थी। आजादी के बाद बहुत कुछ बदल गया है। संविधान में ही लिखा है कि छुआछूत मना है। सिविल राइट्स एक्ट के जरिए छुआछूत को दंडनीय अपराध बनाया गया है। इसके अलावा एससी-एसटी अत्याचार निरोधक अधिनियम, 1989 के जरिए भी छुआछूत को प्रतिबंधित किया गया है। यह भी सही है कि आजादी से पहले वाला छुआछूत अब उसी रूप में लागू नहीं है। जाति मौजूद है, लेकिन छुआछूत के बंधन ढीले पड़े हैं।
जब किसी पार्टी के सवर्ण नेता किसी अछूत या ओबीसी जाति के व्यक्ति के घर जाकर खाना खाते हैं तो वे जाति के शुद्धता और अशुद्धता के बंधनों के खिलाफ जाकर काम कर रहे होते हैं। यह एक आधुनिक समाज में एक दूसरे के घर पर खाना खाने जितना सरल मामला नहीं है। सवर्ण नेता खाना खाकर यह भी बता रहे होते हैं कि तुम जाति व्यवस्था में नीच हो और मेरा शास्त्र मुझे इजाजत नहीं देता कि मैं तुम्हारे घर पर खाना खाऊं, लेकिन मैं ऐसा कर रहा हूं।
ऐसा करके कोई सवर्ण अच्छा फील कर सकता है कि मैंने एक नीच के घर भोजन किया और जाति के बंधन को कम से कम खाने के मामले में अस्वीकार कर दिया, लेकिन इससे सच्चाई नहीं बदलती। यदि दलित समुदाय को बराबरी का हक देने की नियत सही है तो उन्हें हर क्षेत्र में बराबर का मौका मिलना चाहिये। तभी सामाजिक न्याय होगा और वर्षों से दलितों के साथ हुए अन्याय व असहिष्णुता के माहौल को बदला जा सकेगा।
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