- भारतीय संविधान में मीडिया
वर्तमान समय में मीडिया की अहमियत किसी से छिपी हुई नहीं है। ऐसा कहना अनुचित न होगा की आज हम मीडिया युग में जी रहे है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक रंग में मीडिया ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है।किसी भी लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति या बोलने की आजादी काफी मायने रखती है क्योंकिं यदि आज़ादी बने रहे तो व्यक्तियों के बाकी के अधिकार भी बने रहते है। यदि देखा जाये तो अभिनय,मुद्रित शब्द,बोले गए शब्द और व्यंग्य चित्र आदि के द्वारा मिली अभिव्यक्ति के आज़ादी बाकी के सभी आज़ादियों का मूल है। इसीलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति का मूल आधार माना गया है। संविधान में मूल रूप से कुल 7 मौलिक अधिकार वर्णित किये थे जिन्हें भाग ३ के अनुच्छेद 12 से 35 तक में विस्तार से बताया गया है।
सन 1976 में 44 वें संविधान संसोधन में सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों में से हटा दिया गया इस प्रकार अब कुल भारतीय नागरिक को कुल ६ अधिकार प्राप्त है :-
1. समता का अधिकार (अनुच्छेद 14 -18)
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19)
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
5. संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार(अनुच्छेद 29 -30)
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32-34)
हालाकिं संविधान में प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता का कहीं कोई सीधा उल्लेख नहीं किया गया है। लेकिन अनुच्छेद 19 में दिए गए स्वतंत्रता के मूल अंधिकार को प्रेस की स्वतंत्रता के समकक्ष माना गया है।
प्रेस की आज़ादी
सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर संविधान के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए प्रेस की आज़ादी की व्याख्या की है। चूकीं मीडिया ,प्रेस का ही और विस्तारित स्वरुप है इसलिए हम मीडिया की आज़ादी को हम प्रेस की आज़दी के समरूप मान सकते है।1. सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बहस ,चर्चा,परिचर्चा।
2. किस भी अमेचर का प्रकाशन और मुद्रण।
3. किसी भी विचार या वैचारिक मत का मुद्रण और प्रकाशन।
4. किस भी श्रोत से जनहित की सूचनाएं एवम तथ्य एकत्रित करना।
5. सरकारी विभागों,सरकारी उपक्रमों सरकारीप्राधिकर्णों और लोकसेवको कार्यों एवम कार्यशैली की समीक्षा करना,उनकी आलोचना करना।
6. प्रकाशन या प्रकाशन सामग्री का अधिकार अर्थात कौन सी खबर प्रकशित या प्रसारित करनी है।
7. मीडिया माध्यम का मूल्य/शुल्क निर्धारित करना ,माध्यम केप्रचार के लिए नीतितेकरण और अपनी योजनानुसार ,सरकारी दबाव से मुक्त रहकर संबंधी गतिविधि चलाना।
8. यदि किसी कर के प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो टॉस कर से मुक्ति।
9. प्रेस की स्वतन्त्रता में पुस्तिकाएं,पत्रक और सूचना के अन्य भी सम्मिलित है।
मीडिया की स्वतंत्रता हमेशा विवाद का रहा है क्योकिं मीडिया पर न तो पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाना उचित है और न ही इसे हर कानून से सकता है। इस तरह फैसले पर पहुचने के लिए न्यायपालिका ,कानून की युक्तियुक्त जाँच करता है। क्योकि संविधान के अनुच्छेद 19(2) में कहा गया है की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर केवल युक्तियुक्त प्रतिबन्ध ही लगाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायलय ने निम्नलिखित मामलों में मीडिया पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने को तर्कसंगत ठहराया है।
1. राष्ट्र की प्रभुता और अखंडता
2. राज्य की सुरक्षा
3. विदेशी राज्यों के साथ संबंध
4. सार्वजनिक व्यवस्था
5. शिष्टाचार/सदाचार
6. न्यायालय की अवमानना।
7. मानहानि।
8. अपराध को उकसाना
मीडिया और मीडिया विधि का इतिहास
जैसा की हम सभी को ज्ञात है की भारत में मीडिया का उद्धभव हिक्की के द्वारा 1780 में पहला भारतीय पत्र हिक्की गजट के नाम से निकला था।
19वीं शताब्दी के प्रारंभ के साथ ही भारत में चेतना की लहर जाग चुकी थी ,और अब तक पत्रकारिता भी अपनी पकड़ जनमानस में बनाने लगी थी।लेकिन जब पत्रकारिता अपना पैर पसारना प्रारंभ ही किया था की ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय प्रेस पर अंकुश लगाना प्रारम्भ कर दिया था। जिनमें प्रेस पर सेंसर ,अनुज्ञप्ति नियम,पंजीकरण नियम,देशी भाषा समाचार अधिनियम और समाचार पत्र अधिनियम जैसे प्रमुख कानून लगाए गए थे।
ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा भारतीय पत्रकारिता पर लगाए गए कुछ प्रमुख कानून इस प्रकार है।
1. प्रेस नियंत्रण अधिनियाम
भारतीय पत्रकारिता पर सबसे पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के सासन कल मे सन 1799 मे प्रैस नियंत्रण अधिनियम लागू किया | इस अधिनियम के द्वारा समाचार- पत्र के संपादक ,मुद्रक और स्वामी का नाम स्पष्ट रूप से अखबार मे प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया | इसके अलावा इस अधिनियम द्वारा यह भी अनिवार्य का र्डिया गया की प्रकशन से पूर्व , प्रकाशित किए जाने वाले असमाचर को प्रकाशक ,सरकारी सचिव को देंगे और सचिव द्वारा अनुमोदन के बाद ही किसी समाचार को प्रकाशित किया जा सकेगा |
इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा प्रैस की आजादी की पूरी तरह से गला घोंट दिया गया |सान 1807 मे पुस्तकों ,पत्रिकाओ और यहा तक की पम्प्फ़्लेतों को भी इस अधिनियम का दंड मिलता था लार्ड हेस्टिंग्स ने सेससोरशिप अधिनियम को समाप्त कर ,संपादकों के मार्गदर्शन के लिए ऐसे नियम बनाए जिससे पत्र-पतरकरिता मे ऐसे समाचार न छाप पाये जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हो |
1823 के अनुज्ञप्ति नियम
अ॰ प्रत्येक प्रकाशक व मुद्रक को सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना होगा | बिना लाइसेंस के प्रकशन पर 400 रुपए जुर्माना या कारावास का दंड दिया जा सकता था
ब॰ सरकार किसी भी समाचार-पत्र का लाइसेंसे रध कर सकती थी |इसके बाद आये गवर्नर जनरल ,विलियम बैंटिक ने यधपि लाइसेंसे अधिनियम 1823 को समाप्त नहीं किया |
1857 का अनुज्ञप्ति अधिनियम
1875 के गदर के कारण सरकार ने एक बार फिर भारतीय प्रैस को प्रतिबंदित कर दिया | चूंकि यह एक संकटकालीन व्यवस्था थी अत: एक वर्ष बाद यह वयवस्ता समाप्त हो गयी और मेटकफ़ द्वारा बनाए गए नियम पूना:लागू हो गए |
1867 क पंजीकरण अधिनियम
मेटकफ़ के नियमो को 1857 मे ‘पंजीकरण अधिनियम ‘के रूप मे परिवर्तित कार दिया गया| यह अधिनियम प्रैस की स्वतंतत्रा को सीमित नहीं करता था |इसके अनुसार ,प्रकासक को प्रकासन के एक माह के भीतर पुस्तक की एक प्रति बिना मूल्य के सरकार को देनी होती थी |
देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम ,1878 (वर्णाकुलर प्रेस एक्ट )
1987 क ईआईएस अधिनियम मे सरकार ने भारतीय समाचार-पात्रो पर अधिक कडा अंकुश लगाने का प्रयत्न किया | इस अधिनियम के मजिस्ट्राटों को यह अधिकार भी दिया गया की वे किसी भी भारतीय भाषा के समाचार-पत्र के प्रकासक से यह आश्वासान ले की कोई भी ऐसे सामाग्री परकाशित नहीं करेगा जिसेसे शांति भंग होने की आशंका ही |
1881 मे लार्ड रिपन ने वर्णाकुलर प्रेस एक्ट को समाप्त कार दिया परंतु बाद मे लार्ड करजन ने भारतीय दंड सहिंता मे नए प्रावधान करके भारतीय प्रैस की स्वतंत्रा को पूना: प्रतिबंदित करने की जो शुरुवात की वह आगे स्वंतत्राता प्राप्ति तक चलती रही |
समाचार-पत्र अधिनियम 1908
लार्ड कर्ज़न की दमनकारी नीतियो से भारतीय ने व्यापक असंतोष पैदा हुआ तथा उससे उत्तेजित होकरा क्रांतिकरियों ने कुछ हिंसात्मक करवाइया भी की |समकालीन समाचार-पात्रो ने इसके लिए सरकार की तीव्र आलोचना की | विद्रोह को दबाने के लिए सरकार ने 1908 मे एक अधिनियम पारित किया जिसमे मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया था की वे ऐसे समाचार-पत्र अथवा उसकी संपाती को जब्त कार ले जो आपतिजनिक सामाग्री छापता हो |
भारतीय समाचार –पत्र अधिनियम 1910 \
इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रैस और अंकुश लगाया गया सरकार को जमानत जप्त करने और पंजीकारण राद्ध करने का अधिकार दिया गया | अधिनियम के लागू होने के बाद 5 वर्षो मे सरकार द्वारा लगभग 5 लाख की जमानते जब्त की गयी |
सन 1921 मे तत्कालीन वायसराय की काउंसिल के विधि सदस्य तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता मे एक समाचार पत्र समिति की नियुक्ति की गयी बाद मे समिति की सिफ़ारिश पर 1908 और 1910 के नियम रद्ध कर दिये गए |
20वी शताब्दी के चौथे दशक मे स्वंत्रतता आंदोलन के तीव्रतर होने के कारण समाचार-पत्रो पर अधिक नियंत्रण करने के उद्देश्यय से सन 1930 मे सरकार ने एक नया समाचार-पत्र अध्यादेश जारी किया जिससे अनुसार 1920 के अधिनियम की व्यवस्थाए पून: लागू कर दी गयी |
सन 1932 मे सरकार ने दो और अधिनियम पारित किए इनमे एक था ,क्रिमिनल ला अमेंडमेंट एक्ट ,जो 1931 के अधिनियम का ही विस्तार था | इसके द्वारा 1931 के अधिनियम की धारा (4) को और अधिक व्यापक बना दिया गया और इनमे सभी गतिविधिया शामिल कर दी गयी जिनसे सरकार की प्रभुसत्ता को हानी पहुंचायी जा सकती थी |
सरकार द्वारा दीन प्रतिदिन कड़े जा रहे अंकुशों से छुटकारा पाने के लिए प्रेस को संहठित करने के प्रयास 1939 मे किए गये जब ‘द इंडियन एंड इस्टेर्न न्यूज़ पेपर सोसाइटी’ की स्थापना हुयी |सोसाइटी के उद्देशयो मे भारत ,बर्मा और श्रीलंका की प्रेस के लिए एक केन्द्रीय संस्था के रूप मे कम करना ,सदसयो के उन व्यवसिक हितो की सुरक्षित रखते हुए उन्हे विकसित करना जो सरकार ,विधायिका या न्यायालय द्वारा दुष्प्रभावित हुये हो ,व्यावहारिक रुचि के किसी विषय पर सूचना एकत्र करना और इसे सदस्य देशो तक पाहुचना ,समान्य हितो को प्रभावित करने वाले विषयो पर पारसपरिक सहयोग विकसित करना ,शामिल था
1939 मे भारतीय सुरक्षा कानून नियम को प्रेस प र्भी लागू कर दिया गया | इस व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों पर विचार-विमर्श करने के लिए दी हिन्दू के संपादक श्रीनिवासन की अध्यक्षता मे 1940 मे दिल्ली मे एक सम्मेलन बुलाया गया | उसके बाद एक दूसरी बैठक मे परिणामस्वरूप आल इंडिया न्यूज़पेपरसंघ की स्थापना हुयी |
दूसरी और प्रेस को पंगु बनाने की सरकारी प्रक्रिया चलती रही | अगस्त ,1942 मे सरकार ने कुछ और प्रतिबंध लगाए जिनका संबंध नागरिक उपद्रवों से संभदीत समाचारो क सीमित करना,संवदाताओ का पंजीकरण करना ,तोड़- फोड़ से संबंदीत समाचारो को प्रकाशन को प्रतिबंदित करना था |स्वाभाविक रूप से समाचार-पात्रो ने इसका विरोध किया और ‘नेशनल हेराल्ड’ ,इंडियन एक्सप्रेस और हरिजन ने तो अपना प्रकासन ही बंद कर दिया |
स्पष्ट है की दमनकारी नीतियो व कड़े अंकुश के बावजूद भारतीय प्रेस भारतवासियों को जाग्रत करने ,विभिन्न क्रांतिकारी विचारो से उन्हे अवगत करने तथा स्वाधीनता संग्राम मे उल्लेखिय योगदान देने मे सफल रहा |
प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष
19वी सदी की शुरुवात मे जब भारत मे चेतना की लहरे लेने लगी थी तो मनवाधिकारों और मीडिया की आजादी के सवाल को गंभीरता के साथ महसूस किया जाने लगा था | जैसे –जैसे ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर दबाव डालने की कोशीश की तो इन कोशिशो का विरोध भी अंगडाई लेने लगा | सन 1824 ई॰ मे प्रेस पर अंकुश लगाने वाले एक कानून के खिलाफ राजा राममोहन राय ने सूप्रीम कोर्ट को एक ज्ञापन भेजा ,जिसमे उन्होने लिख की –‘’हर अच्छे साशक को इस बात की फिक्र होनी चाहिए की वह लोगो को ऐसे साधन उपलब्ध करवाए जिसके जरिये उन समस्याओ और मामलो की सूचना ,सशन को जल्द से जल्द मिल सके |
पत्रकारिता के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा सजा पाने वाले पहले भारतीय थे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी |वे राष्ट्रिय आंदोलन को जन्म देने वाले नेताओ मे से एक थे | श्री बनर्जी को एक मुकदमे के फैसले के खिलाफ लिखने के लिए दो महीने क कैद की सजा दी गयी | 1881 मे मराठी भाषा मे केसरी और अंग्रेजी मे मराठा नाम से दो अखबारो का प्रकाशन शुरू किया तिलक ने राष्ट्रिय की भावना का प्रचार प्रसार करने का एक और अधभूत तरीका खोजा |
गांधी जी ने यंग इंडिया मे कुछ लेख लिखे थे | इन लेखो को लिखने पर ब्रिटिश सरकार ने सन 1992 मे गांधी जी पर धारा 124 (ए) के तहत राजद्रोह के आरोप मे मुकदमा चलाया और उन्हे भी बाल गंगाधर तिलक की भांति ही छह साल की कैद की सजा सुना दी गयी | इस प्रकार हुमे देखते है की स्वतंत्रता –पूर्व की भारतीय पत्रकारिता ने अपनी शक्ति का प्रयोग ,जनता क शिक्षित करने ,उसमे राजनैतिक व राष्ट्रिय चेतना जगाने और आम जनता को प्रेरित व प्रोतशाहित करने मे ककिया |
संसद के विशेषाधिकार और मीडिया
चूकि विधायिका और मीडिया दोनों का ही सरोकार लोकहित से जुड़े है ,इसीलिए विधायिका और मीडिया का बहुत गहरा अंतरसंबंध है ।
जब रिपोर्टर विधायिका का रिपोर्टिंग करता है ,तो उसको संसद के विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग करना चाहिए। अभिप्राय संसद और विधान सभाओं दोनों से है।
हालांकि पहले कई देशों में संसदीय कार्यवाही के दौरान रिपोर्टिंग वर्जित था विधायिका महत्व को समझ लिया है,इसलिए आज अधिकतर लोकतांत्रिक राष्ट्रों में संसदीयकार्यवाही के प्रकाशन और प्रसारण संबंधी कोई प्रतिबन्ध नहीं है | भारत में भी सत्र के दौरान संसद में चलने वाली कार्यवाही का सीधा प्रसारण ,प्रसार भारती के दिल्ली दूरदर्शन द्वारा किया जाता है
विशेषाधिकार :- विशेषाधिकार का सीधा सा अर्थ है ,किसी व्यक्ति वर्ग या समुदाय को सामान्य से अलग कुछ असामान्य अधिकार प्राप्त होना |ऐसे अधिकार विशेषाधिकार के अंतर्गत आता है क्योकिं ये अधिकार आम लोगों को प्राप्त नहीं होते है |ये अधिकार कुछ विशेष लोगों को विशेष होने के कारण जो अधिकार मिलते है विशेषाधिकार है |
संसदीय विशेषाधिकार :- आम लोग संसदीय विशेषाधिकार का अर्थ ,संसद के विशेषाधिकारों से लेते है लेकिन तकनिकी रूप से ऐसा नहीं है ।जैसा की हम जानते है की संसद में लोक सभा,राज्य सभा के साथ-साथ महामहिम राष्ट्रपति भी समाहित होते है ।भारतीय संविधान में जिन विशेषाधिकारों को वर्णित किया गया है वे विशेषाधिकार केवल दोनों सदनों ,उनकी समितियां को और उनके सदस्यों को ही प्राप्त है ।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 105 संसद और 194 विधान्मंदलों के विशेषाधिकारों का वर्णन किया गया है।एवं 105(३) में सांसद की शक्तियों 194(3) में विधायकों के शक्तियों (विशेषाधिकार) को बताया गया है ।
भारतीय संविधान में यह कहा गया है की जब तक संसद या विधानमंडल ऐसा कोई कानून नहीं बनाती तब तक सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकार के मामले में स्थिति वही रहेगी जो “हाउस ऑफ़ कामंस” की थी |अभी तक कानून बनाकर विशेषाधिकार को प्रभावित नहीं किया गया |जैसा की हम जानते है की ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है इसलिए २६ जनवरी 1950 को वहां विशेषाधिकार की क्या स्थिति थी ,इसे सहिंता बद्ध या लीपिबद्ध नहीं किया गया है ।
भारत के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय विशेषाधिकारों के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष दिए:-
· संसद को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है |
· विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये ,इस बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का ही होगा |
· अपनी अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है |संसद ही यह फैसला कर सकती है की अवमानना क्या है |
· संसद को जुर्माना लगाने का अधिकार है |
· संसद,सत्र के दौरान किसी व्यक्ति को नजरबन्द तो कर सकती है लेकिन सत्रावसान के तुरंत बाद नजरबंद व्यक्ति को छोड़ना होगा |
· संसद या विधानमंडल न्यायलयों द्वारा भेजे गए सम्मनों को स्वीकार करेंगे और आवश्यकता पड़ने पर सुनवाई के दौरान अपने प्रतिनिधि भेजेंगे|
· सदन के माननीय सदस्यों को सत्र के दौरान किसी दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा सकता लेकिन अन्य प्रकार के मामलों में उन्हें सत्र के दौरान भी गिरफ्तार किया जा सकता है |
संविधान प्रदत्त संसदीय विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां
संविधान के अनुच्छेद 105 के अंतर्गत संसद सदस्य को और अनुच्छेद 194 के अंतर्गत राज्यों की विधान सभा के सदस्यों को एक समान संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त हैं।
अनुच्छेद 105(1) एवं 194(1) के अनुसार, प्रत्येक सदस्य को संसद में वाक् स्वातंत्र्य प्राप्त होगा किंतु यह स्वतंत्रता इस संविधान के प्रावधानों तथा संसद की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और आदेशों के अधीन होगी।
सदन में किसी सदस्य के द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
अनुच्छेद 105(3) एवं 194(3) के अनुसार, अन्य मामलों में सभी विशेषाधिकार औेर उन्मुक्तियां वही होंगी जो संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 के पूर्व थीं, किंतु पूर्व में इस विषय पर कोई लिपिबद्ध संहिता नहीं है। अतः शेष विशेषाधिकार परंपरानुसार नियत होते हैं।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 135 क (1.2.1977 से लागू) के अनुसार, सदन के चालू रहने के दौरान या किसी अधिवेशन या बैठक या सम्मेलन के 40 दिन पूर्व या पश्चात किसी सदस्य को किसी सिविल आदेशिका के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध नहीं किया जा सकता है।
सरकारी कर्मचारी-अधिकारी और मीडिया
भारतीय संविधान में प्रत्येक भारतीय नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मूल अधिकार दिया गया है| मीडिया और प्रेस के सन्दर्भ में सरकारी सेवारत व्यक्तियों को कई नियमों का पालन करना होता है |सरकारी सेवारत व्यक्ति और मीडिया के सन्दर्भ में अलग से कोई अधीनियम तो नहीं है लेकिन सरकार द्वारा समय-समय पर जरी किये आदेशों और विभिन्न कानूनों में इस सन्दर्भ में दिए गये प्रावधानों की रोशनी में ही सरकारी कर्मचारियों व अधिकारीयों को मीडिया से संबंधित कार्य करने पड़ते है |
भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय सिविल सेवक नियम बनाये गए है ,जिसमें बता गया है की किसी सिविल सेवक को किस प्रकार का व्यवहार या आचरण करना चाहिए |
1. सरकार के बिना पूर्वानुमति के कोई सरकारी सेवक,पुर्णतः या अंशतः न तो किसी समाचार-पत्र आवधिक प्रकाशन का स्वामी हो सकता है और न ही वह उसका प्रबंधक हो सकता है |वह ऐसे प्रकाशनों का संपादन भी बीना नहीं कर सकता है |
2. अपनी सरकारी जिम्मेदारियों के अलावा कोई भी सरकारी सेवक,सरकार या प्राधिकृत अधिकारी के पूर्वानुमति के बिना निम्नलिखित कृत्य नहीं ककर सकता :
(क)स्वयं या किसी प्रकाशक के द्वारा पुस्तक का प्रकाशन
(ख) किसी पुस्तक के लिए कोई लेख आदि लिखना अथवा लेखों को संकलित/सम्पादित करना ;
(ग) रेडियो प्रसारण में भाग लेना ;
(घ) अपने स्वयं के नाम,किसी दूसरे के नाम या किसी अन्य नाम से या फिर किसी और व्यक्ती के नाम से किसी समाचार पत्र या आवधिक प्रकाशन के लिए लेख,पत्र आदि लिखना |
3. मीडिया संबंधी निम्नलिखित कृतियों के लिए सरकारी सेवक को सरकार से अनुमति /पूर्वानुमति लेने की आवश्यकता नहीं है :-
(क)यदि पुस्तक आदि का प्रकाशन,किसी प्रकाशक के द्वारा होता है और पुस्तक की सामग्री,वैज्ञानिक,कलात्मक या साहित्यिक प्रकार की है |
(ख) यदि रेडियो आदि पर प्रसारण अथवा समाचार-पत्र आदि के लिए लिखे गए लेख आदि पूर्णतः साहित्यिक ,वैज्ञानिक या कलात्मक प्रकार के हों|
भारत सरकार के संबंधित निर्णय :
1.आल इंडिया रेडियो में भाग लेने और इसके बदले में शुल्क प्राप्त करने के लिए अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है | (भारत सरकार,गृह मंत्रालय,कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/32/56 (ए),15 जनवरी 1957)
2. मीडिया संबंधी कोई कृत्य को सम्पादित करने के लिए यदि सरकारी सेवक अपने प्राधिकृत अधिकारी से अनुरोध करता है और उसे अगले 30 दिन तक कोई जवाब नहीं मिलता है तो अनुमति मानी जाएगी|(भारत सरकार,व्यैक्तिक और प्रशिक्षण विभाग,कार्यालय ज्ञापन संख्या 11013/2/88(ए),दिनांक 7 जुलाई,1988 एवं 30 दिसम्बर 1988)
भारत सरकार का संबंधित निर्णय
कोई भी सरकारी सेवक अपने विदेश यात्रा के दौरान भारतीय या विदेशी संबंधों पर किसी मौखिक या लिखित बयान के द्वारा टिप्पणी नहीं कर सकता उसे संबंधित राजदूत की लिखित पूर्वानुमति पर किया जा सकता है |(भारत सरकार,गृह मंत्रालय,कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/71/51 दिनांक 17 अक्टूबर,1951)
न्ययालय की अवमानना और मीडिया
जैसा की हमलोगों को ज्ञात है की भारतीय संविधान के अनुसार न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया है,जो संघ और राज्य की विधियों को देख-रेख करने का काम करती है | इस पूरी प्रणाली के शीर्ष पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय है |
न्यायपालिका और मीडिया के बिच गहरा संबध है | अख़बारों के अधिकांशतः जगह और टेलीविजन समाचार चैनलों के अधिकांश समय पर अपराध से संबंधित समचार ही कब्ज़ा जमाये रखता है | किसी अपराध का अंतिम निर्णय न्यायालय में ही होता है ,इसीलिए पत्रकारों को अक्सर न्यायालयों से रिपोर्टिंग करनी पड़ती है | न्यायालय रिपोर्टिंग करते समय बड़ा ही सावधानी बरतना पड़ता है कारण की थोडा सा भी अचूक होते ही न्यायालय अवमानना की तलवार मीडिया कर्मी पर लटक जाता है |
न्यायालय अवमानना
अदालत की अवमानना के मामले में इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपका इरादा अवमानना करने का था या नहीं. जब कोई मामला अदालत में चल रहा हो तो रिपोर्टिंग पर कई तरह की पाबंदियाँ लगी हो सकती हैं, जिनमें से कुछ अपने-आप लागू होती हैं और कुछ अदालत के निर्देश पर लगाई जाती हैं.
न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के अंतर्गत है| अधिनियम की धारा 2(ए)(बी) और (सी) में बताया गया है,
ए दीवानी या फ़ौजदारी दोनों तरह से कोर्ट की अवमानना हो सकती है.
· बी यदि किसी न्यायालय के निर्णय/डिक्री/आदेश/निर्देश/ याचिका अथवा न्यायालय की किसी प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया जाए या न्यायालय द्वारा दिए गए किसी वचन को जानबूझकर कर भंग किया जाए, तो यह न्यायालय की दीवानी अवमानना होगी.
· सी किसी प्रकाशन, चाहे वह मौखिक/लिखित/सांकेतिक या किसी अभिवेदन या अन्य किसी कृत्य द्वारा,बदनाम या बदनाम करने की कोशिश या अभिकरण/न्यायालय को नीचा दिखाने की कोशिश की जाए.
· किसी न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात या हस्तक्षेप
· न्यायिक व्यवस्था में किसी प्रकार के हस्तक्षेप या उसे बाधित करना/ बाधित करने की कोशिश करना न्यायालय की अवमानना हो सकती है.
समाचार पत्र- पत्रिकाओं का पंजीकरण
भारत में छपने तथा प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र एवं आवधिक प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867 तथा समाचारपत्रों के पंजीकरण(केन्द्रीय) नियम, 1956 द्वारा नियंत्रित होते हैं ।
अधिनियम के अनुसार, किसी भी समाचार पत्र अथवा आवधिक का शीर्षक उसी भाषा या उसी राज्य में पहले से प्रकाशित हो रहे किसी अन्य समाचारपत्र या आवधिक के समान या मिलता‑जुलता न हो, जब तक कि उस शीर्षक का स्वामित्व उसी व्यक्ति के पास न हो ।
इस शर्त के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए ,भारत सरकार ने समाचारपत्रों का पंजीयक नियुक्त किया है , जिन्हें प्रेस पंजीयक भी कहा जाता है, जो भारत में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों एवं आवधिकों की पंजिका का रख‑ रखाव करते हैं ।
भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय का मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा देश के सभी क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोलकाता,मुंबई तथा चेन्नई में तीन क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं ।
समाचार पत्र के प्रथम अंक के प्रकाशन के बाद, आर.एन.आई. से समाचारपत्र को पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध अवश्य किया जाना चाहिए । समाचार पत्रों/पत्रिकाओं के पंजीकरण के लिए जांच सूची/दिशा निर्देश निम्नलिखित हैं :
1. आवश्यक दस्तावेज
(क) आर.एन.आई. द्वारा जारी शीर्षक सत्यापन पत्र की फोटोकापी ।
(ख) डी.एम./ए.डी एम/डी सी पी/सी एम एम/एस डी एम द्वारा प्रपत्र‑। में निर्दिष्ट(देखें नियम‑3) प्रमाणीकृत घोषणा की सत्यापित प्रति ।
(ग) प्रथम अंक में खंड‑1 और अंक‑1 का उल्लेख करें !
(घ) निर्धारित प्रपत्र में ‘ कोई विदेशी बंधन नहीं ‘ के लिए प्रकाशक का शपथ पत्र(देखें परिशिष्ट‑IV) ।
2. यदि मुद्रक और प्रकाशक भिन्न हों तो अलग घोषणा दाखिल करनी होगी ।
3. प्रथम अंक में स्पष्ट रूप से खंड‑। और अंक‑1, दिनांक‑रेखा,पृष्ठसंख्या और प्रकाशन के शीर्षक का उल्लेख होना चाहिए ।
4. घोषणा के प्रमाणीकरण की तिथि से छह सप्ताह की अवधि के भीतर (दैनिक/साप्ताहिक के लिए) और तीन महीने के भीतर(अन्य अवधियों वाले प्रकाशनों के लिए) प्रकाशन प्रकाशित हो जाना चाहिए ।
5. इंम्प्रिंट लाइन में(क) प्रकाशक का नाम(ख) मुद्रक का नाम,(ग) स्वामी का नाम,(घ) मुद्रणालय का नाम व पूरा पता,(ड.) प्रकाशन का स्थान व पता,और (च) सम्पादक का नाम शामिल होना चाहिए ।
2.11.2 यदि उचित जांच पड़ताल के पश्चात आवेदन संतोषजनक पाया जाता है तो प्रेस पंजीयक अपने यहां रखे गए रजिस्टर में समाचार पत्र के विवरण दर्ज करेगा और प्रकाशक को पंजीकरण प्रमाण पत्र जारी करेगा ।
पुस्तकों का पंजीकरण
परिभाषा :-
सन 1950 में यूनेस्कों ने एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें पुस्तक को परिभाषित किया गया था | ऐसी साहित्यिक प्रकाशन ,जिसमें कवर को छोड़कर 49 या इससे अधिक पृष्ठों और वह पत्रिका न हो पुस्तक कहलायेगा|
इतिहास :
भारतीय भाषाओ में पुस्तकों का छपना,सन 1800 में प्रारंभ हुआ था | अगस्त 1800 में मंगल समाचार तथा मतियेर द्वारा लिखित एक बंगला पुस्तक का प्रकाशन हुआ |हिंदी की पहली पुस्तक 1802 में,फोर्ट विलियम कालेज ,कलकता द्वारा हरकारु प्रेस कलकता में मुद्रित हुई|
नोट:आजकल भारत में पुस्तकों के पंजीकरण में प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम लागु होते है |
प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम ,1867
जैसा कि हम सब जानते है की भारत में आज अधिकांश कानून ब्रिटिश के समय के कानून के आधार पर ही चलते है ,कुछ संशोधन के साथ |उसी तरह प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 में ही ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा लाया गया था |
अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ‘भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक के कार्यालय में आवेदन पत्र की जाँच की जाती है और यदि वह नियमानुसार होता है तथा आवेदन में प्रस्तावित कोई शीर्षक ,उपलब्ध होता है (अर्थात वह शीर्षक किसी अन्य के नाम से पंजीकृत नहीं होता है ) तो आवेदक के शीर्षक को उसके नाम से पंजीकृत करके वह शीर्षक को आवंटित कर दिया जाता है |
अधिनियम के अनुसार पत्र का प्रकाशन करने से पूर्व प्रकाशक को एक घोषणा-पत्र निर्धारित प्रारूप में सक्षम मजिस्ट्रेट के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है | इस घोसणा पत्र में पत्र के संपादक ,प्रकाशक और मुद्रक का नाम तथा पत्र के मुद्रण व प्रकाशन के स्थानों (पतों) की जानकारी देना भी अनिवार्य होता है|
भारत में छपने तथा प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र एवं आवधिक प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867 तथा समाचारपत्रों के पंजीकरण(केन्द्रीय) नियम, 1956 द्वारा नियंत्रित होते हैं ।
अधिनियम के अनुसार, किसी भी समाचार पत्र अथवा आवधिक का शीर्षक उसी भाषा या उसी राज्य में पहले से प्रकाशित हो रहे किसी अन्य समाचारपत्र या आवधिक के समान या मिलता‑जुलता न हो, जब तक कि उस शीर्षक का स्वामित्व उसी व्यक्ति के पास न हो ।
इस शर्त के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए ,भारत सरकार ने समाचारपत्रों का पंजीयक नियुक्त किया है , जिन्हें प्रेस पंजीयक भी कहा जाता है, जो भारत में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों एवं आवधिकों की पंजिका का रख-रखाव करते हैं ।
भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय का मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा देश के सभी क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोलकाता,मुंबई तथा चेन्नई में तीन क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं । प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम के अनुसार, मुद्रक एवं प्रकाशक को जिला/महाप्रांत/उप‑प्रखण्ड दण्डाधिकारी के समक्ष घोषणा करनी होती है , जिसके स्थानीय अधिकारक्षेत्र के अधीन समाचारपत्र मुद्रित अथवा प्रकाशित किया जाएगा, कि वह उक्त समाचारपत्र का मुद्रक/प्रकाशक है ।
घोषणा पत्र में समाचारपत्र संबंधी सभी विवरण शामिल होने चाहिए , जैसे कि किस भाषा में प्रकाशित होगा ,प्रकाशन का स्थान इत्यादि । समाचारपत्र के प्रकाशन से पहले दण्डाधिकारी द्वारा घोषणा पत्र को अधिप्रमाणित किया जाना चाहिए ।
अधिप्रमाणन से पहले , दण्डाधिकारी समाचारपत्रों के पंजीयक से छानबीन करने के बाद यह पुष्टि करता है कि प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम की धारा 6 में उल्लिखित शर्तों का पालन हो रहा है ।
मानहानि: प्रकार और क़ानूनी प्रावधान
मानहानि की परिभाषा ( 1963) :
किसी व्यक्ति, व्यापार, उत्पाद, समूह, सरकार, धर्म या राष्ट्र के प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाला असत्य कथन मानहानि (Defamation) कहलाता है। अधिकांश न्यायप्रणालियों में मानहानि के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही के प्रावधान हैं ताकि लोग विभिन्न प्रकार की मानहानियाँ तथा आधारहीन आलोचना अच्ची तरह सोच विचार कर ही करें।
मानहानि असल में वो प्रभाव है जो किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति की आधारहीन आलोचना करने उसके बारे में गलत धारणा बिना किसी पुख्ता आधार के समाज में पेश करना से व्यक्ति की छवि पर पड़ता है और इसके लिए जिस व्यक्ति के बारे में भ्रामक बातें कही जा रही है वो व्यक्ति न्यायालय में अपने खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार के खिलाड़ उसकी छवि को जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई के लिए मुकदमा कर सकता है |
परिचय :
मानहानि दो रूपों में हो सकती है- लिखित रूप में या मौखिक रूप में। यदि किसी के विरुद्ध प्रकाशितरूप में या लिखितरूप में झूठा आरोप लगाया जाता है या उसका अपमान किया जाता है तो यह "अपलेख" कहलाता है। जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अपमानजनक कथन या भाषण किया जाता है। जिसे सुनकर लोगों के मन में व्यक्ति विशेष के प्रति घृणा या अपमान उत्पन्न हो तो वह "अपवचन" कहलाता है।
मानहानि करने वाले व्यक्ति पर दीवानी और फौजदारी मुकदमें चलाए जा सकते हैं। जिसमें दो वर्ष की साधारण कैद अथवा जुर्माना या दोनों सजाएँ हो सकती हैं।
सार्वजनिक हित के अतिरिक्त न्यायालय की कार्यवाही की मूल सत्य-प्रतिलिपि मानहानि नही मानी जाती। न्यायाधीशों के निर्णय व गुण-दोष दोनों पर अथवा किसी गवाह या गुमास्ते आदि के मामले में सदभावनापूर्वक विचार प्रकट करना मानहानि नही कहलाती है। लेकिन इसके साथ ही यह आवश्यक है कि इस प्रकार की टिप्पणियाँ या राय न्यायालय का निर्णय होने के बाद ही दिये जाने चाहिएँ।
सार्वजनिक हित में संस्था या व्यक्ति पर टिप्पणी भी की जा सकती है या किसी भी बात का प्रकाशन किया जा सकता है। लेकिन यह ध्यान रखा जाये कि अवसर पड़ने पर बात की पुष्टि की जा सके। कानून का यह वर्तमानरूप ही पत्रकारों के लिए आतंक का विषय है।
अधिकांश मामलों में बचाव इस प्रकार हो सकता है
1- कथन की सत्यता का प्रमाण।
2- विशेषाधिकार तथा
3- निष्पक्ष टिप्पणी तथा आलोचना।
यदि किये गये कथनों का प्रमाण हो हो तो अच्छा बचाव होता है। विशेषाधिकार सदैव अनुबन्धित और सीमित होता है। समाचारपत्रों का यह विशेषाधिकार विधायकों आर न्यायालयों को भी प्राप्त होता है। अतः कहने का तात्पर्य यह है कि आलोचना का विषय सार्वजनिक हित का होना चाहिएऔर स्पष्टरूप से कहे गये तथ्यों का बुद्धिवादी मूल्यांकन होने के साथ-साथ यह पूर्वाग्रह से भी परे होना चाहिए।
मानहानि की दशा में सजा के प्रावधान :
इसके लिए भारतीय कानून के अनुसार दो धाराएँ है जो इसे समझाती है और वो है IPC यानि इंडियन पेनेल कोड (Indian Penal Code) के अनुसार धारा 499 और धारा 500 के अनुसार मानहानि के अपराध में दोषी पाये जाने पर दोषी को दो साल तक की सजा हो सकती है
उदाहरण:
हालाँकि भारतीय परिवेश में सामान्य तौर पर यह एक कम ही सामने आने वाला मुद्दा है क्योंकि इस तरह की शिकायतों को स्थानीय लोग अपने स्तर पर सुधार लेते है और अगर ऐसा होता भी है कि कोई व्यक्ति मानहानि का दावा करता है तो विशेष परिस्थिति को छोड़कर सामान्यत यह साबित करने में बहुत वक़्त जाया होता है कि टिप्पणी करने वाला सही है या उसके पीछे कोई आधार भी है लेकिन आप अगर भारतीय राजनीती की बात करे तो कई तरह के ऐसे मामले है जो चर्चित रहे है | उसमे से एक है – मशहूर राजनीतिज्ञ सुभ्रमन्यम स्वामी के खिलाफ तमिलनाडु की सरकार ने मानहानि के पांच मामले कोर्ट में दायर किये थे जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने बाद में रोक लगा दी थी और उन पर आरोप ये था कि उन्होंने मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल साइट्स पर अपमानजनक टिप्पणियाँ की थी |
भारतीय सरकारी रहस्य अधिनियम, 1923
सरकारी गोपनीयता अधिनियम 1923 ' भारत विरोधी जासूसी ब्रिटिश राज से आयोजित कार्य उपनिवेश की स्थापना . यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी कार्रवाई की है जो भारत के खिलाफ एक दुश्मन राज्य की मदद शामिल है. यह भी कहा गया है कि एक दृष्टिकोण, निरीक्षण नहीं, कर सकते हैं या पर भी एक निषिद्ध सरकार साइट या क्षेत्र के पास है। इस अधिनियम के अनुसार, शत्रु राज्य की मदद करने के लिए एक स्केच, योजना, एक शासकीय गुप्त बात के मॉडल, या सरकारी कोड या पासवर्ड का संचार करने के लिए दुश्मन को, के रूप में हो सकता है. किसी भी जानकारी है कि भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, या विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के प्रभावित होने की संभावना है के प्रकटीकरण, इस अधिनियम के द्वारा दंडनीय है. अधिनियम रेंज के अंतर्गत तीन से चौदह साल की कैद की सजा.
इस अधिनियम के अंतर्गत किसी भी समय खोज वारंट जारी किया जा सकता है अगर मजिस्ट्रेट का मानना है कि उनके सामने सबूत के आधार पर राज्य की सुरक्षा के लिए पर्याप्त खतरा है.
जनता की रुचि के सदस्यों को अदालत की कार्यवाही से बाहर रखा जा सकता है अगर मुकदमों का मानना है कि किसी भी जानकारी पर कार्यवाही के दौरान पारित किया जा रहा है संवेदनशील है. यह भी मीडिया भी शामिल है, तो पत्रकारों को उस विशेष मामले को कवर करने की अनुमति नहीं होगी.
जब एक कंपनी को इस अधिनियम के तहत अपराधी के रूप में देखा जाता है, कंपनी के निदेशक बोर्ड सहित प्रबंधन के साथ शामिल सभी सजा के लिए उत्तरदायी हो सकता है. एक अखबार के संपादक, प्रकाशक और मालिक एक अपराध के लिए जेल में बंद किया जा सकता है सहित सभी के मामले में.
गृह मंत्रालय का नागरिक चार्टर
उपयोगकर्ता गृह मंत्रालय के नागरिक अधिकार पत्र प्राप्त कर सकते हैं। पुडुचेरी, लक्षद्वीप,चंडीगढ़, दमन और दीव, दादरा और नगर हवेली, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और दिल्ली पुलिस के नागरिक अधिकार पत्र से संबंधित विवरण उपलब्ध कराए गये हैं। क्षेत्रीय परिषद सचिवालय और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के नागरिक अधिकार पत्र भी प्राप्त किये जा सकते हैं।
Ø रिश्तेदारों द्वारा विदेशी अंशदान की प्राप्ति की सरकार को सूचना देने के लिए प्रपत्र एफसी -1:
भारतीय मिशन और वीजा केन्द्र पर वीजा के लिए किये गए आवेदन की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करें। प्रयोक्ता को वीजा की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत और पासपोर्ट संबंधी जानकारी उपलब्ध करानी होगी। आपको भारतीय मिशन का नाम, फ़ाइल संख्या या वेब फाइल नंबर, पासपोर्ट नंबर, जन्म तिथि आदि जानकारी स्थिति जानने के लिए प्रदान करनी होगी।
इसमें 1967 में कुछ संशोधन कर कुछ और कड़े प्रावधान जोड़ दिये गये थे. गोपनीय और क्लासिफाइड फाइलों की तो बात छोड़ दें, जिन दस्तावेजों को गोपनीय की श्रेणी से बाहर यानी डिक्लासिफाइ कर दिया जाता है, वे भी लोगों को नहीं मिल पाते हैं.
क्या हैं क्लासिफाइड दस्तावेज?
किसी दस्तावेज में उल्लिखित सूचना की संवेदनशीलता और सार्वजनिक करने से राष्ट्रीय सुरक्षा पर पड़नेवाले असर के आधार पर क्लासिफाइड दस्तावेजों को चार श्रेणियों में रखा जाता है : टॉप सिक्रेट, सिक्रेट, कॉन्फिडेंसियल और रेस्ट्रिक्टेड.
अति गोपनीय सूचनाएं वह हैं जिनके खुलासे से राष्ट्रीय सुरक्षा या राष्ट्रीय हितों को अत्यधिक नुकसान पहुंच सकता है. इसमें देश के सबसे गंभीर रहस्य शामिल हैं. सिक्रेट श्रेणी में ‘अत्यंत महत्वपूर्ण मामले’ आते हैं जिनके सार्वजनिक होने से देश की सुरक्षा या हितों को ‘गंभीर नुकसान’ हो सकता है या सरकार के लिए गंभीर परेशानी खड़ी हो सकती है. आम तौर पर वर्गीकरण की यह सबसे उच्च श्रेणी है.
कॉन्फिडेंसियल सूचनाएं अपेक्षाकृत कम गंभीर श्रेणी में आती हैं. रेस्ट्रिक्टेड उन सूचनाओं को कहा जाता है, जो सिर्फ आधिकारिक प्रयोग के लिए होती हैं, जिन्हें आधिकारिक प्रयोग की सीमा के बाहर प्रकाशित या साझा नहीं किया जा सकता है. जो दस्तावेज इन चार श्रेणियों में नहीं आते, उन्हें ‘अनक्लासिफाइड’ माना जाता है
पब्लिक रिकार्ड्स एक्ट, 1993 और पब्लिक रिकॉर्ड्स रुल्स, 1997 की व्यवस्थाओं के अनुसार, जिस विभाग से संबंधित दस्तावेज होता है, उसका अधिकारी, जो उप सचिव से नीचे स्तर का न हो, दस्तावेज को डिक्लासिफाइ कर सकता है. जिस दस्तावेज को सुरक्षित रखने की जरूरत होती है, उसे राष्ट्रीय अभिलेखागार भेज दिया जाता है. हर पांच साल में दस्तावेजों की समीक्षा होती है और 25 वर्षों से अधिक पुरानी फाइलें अमूमन राष्ट्रीय अभिलेखागार में स्थानांतरित कर दी जाती हैं.परंतु कुछ दस्तावेज संबंधित विभाग में ही रख लिये जाते हैं, जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने परमाणु परीक्षण से जुड़ी फाइलों को अभिलेखागार में नहीं भेजा है. सरकार ने हाल में पब्लिक रिकार्ड्स एक्ट की समीक्षा का इरादा व्यक्त किया है..
अध्याय 11
प्रेस परिषद् अधिनियम ,1978
भारतीय प्रेस परिषद एक संविघिक स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और नागरिकों के अघिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व निबाहता है। सर्वप्रथम इसकी स्थापना 4 जुलाई सन् 1966 को हुई थी.
अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है जिसे राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अघ्यक्ष और प्रेस परिषद के सदस्यों में चुना गया एक व्यक्ति मिलकर नामजद करते हैं। परिषद के अघिकांश सदस्य पत्रकार बिरादरी से होते हैं लेकिन इनमें से तीन सदस्य विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,बार कांउसिल आफ इंडिया और साहित्य अकादमी से जुड़े होते हैं तथा पांच सदस्य राज्यसभा व लोकसभा से नामजद किए जाते हैं - राज्य सभा से दो और लोकसभा से तीन।
प्रेस परिषद, प्रेस से प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या किसी सम्पादक या पत्रकार के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त करने के बावजूद इस परिषद को काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक दायित्वों के निर्वहन पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है।
प्रेस परिषद् की शक्तियाँ निम्नानुसार अधिनियम की धारा 14 और 15 में दी गई हैं।
परिनिंदा करने की शक्ति
14.1 समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर सकेगी।
14.2 यदि परिषद् की यह राय है कि लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी जाँच से संबंधित किन्हीं विषयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक समझे प्रकाशित करे।
14.3 उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।
14.4 यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।
परिषद् की साधारण शक्तियाँ
14.5 इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय
1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-
(क) व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा करना,
(ख) दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,
(ग) साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना,
(घ) किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपियों की अध्यपेक्षा करना,
(ड़) साक्षियों का दस्तावेज़ की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,
(च) कोई अन्य विषय जो विहित जाए।
2, उपधारा 1, की कोई बात किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को उस समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित या उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार द्वारा प्राप्त रिपोर्ट किये गये किसी समाचार या सूचना का स्रोत प्रकट करने के लिए विवश करने वाली नहीं समझी जायेगी।
1860 का 45, 3, परिषद् द्वारा की गयी प्रत्येक जाँच भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जायेगी।
4, यदि परिषद् अपने उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए या अधिानियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए आवश्यक समझती है तो वह अपने किसी विनिश्चय में या रिपोर्ट में किसी प्राधिकरण के, जिसके अन्तर्गत सरकार भी है, आचरण के संबंध में ऐसा मत प्रकट कर सकेगी जो वह ठीक समझे। शिक्षाविदों की विशिट मंडली द्वारा संवारा गया है।
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायामूर्ति श्री जे. आर. मधोलकर, पहले अध्यक्ष थे जिन्होंने 16 नवम्बर 1966 से 1 मार्च 1968 तक परिषद् की अध्यक्षता की।
अपने कार्य करने के लिये अथवा अधिनियम के अंतर्गत जाँच करने के लिये, परिषद् निम्नलिखित मामलों के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत एक मुकदमें की छानबीन के लिये सिविल न्यायालय में निहित कुछ अधिकारों का इस्तेमाल करती है|
(क) लोगों को सम्मन करने और उपस्थिति हेतु दबाव डालने तथा शपथ देकर उनका परीक्षण करने हेतु।
(ख) दस्तावेजों की खोज और निरीक्षण की आवश्यकता हेतु।
(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य की प्राप्ति हेतु।
(घ) किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से किसी सरकारी रिकार्ड अथवा इसकी प्रतियों की मांग हेतु।
(ड.) गवाहों अथवा दस्तावेजों के परीक्षण हेतु कमीशन जारी करना और
(च) कोई अन्य मामला, जैसकि निर्दिष्ट किया जाये।
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978 की धारा 13 2 ख्र द्वारा परिषद् को समाचार कर्मियों की संहायता तथा मार्गदर्शन हेतु उच्च व्ययवसायिक स्तरों के अनुरूप समाचारपत्रों; समाचारं एजेंसियों और पत्रकारों के लिये आचार संहिता बनाने का व्यादेश दिया गया है। ऐसी संहिता बनाना एक सक्रिय कार्य है जिसे समय और घटनाओं के साथ कदम से कदम मिलाना होगा।
मार्गनिर्देश और नीति निर्माण:
परिषद् ने मार्गनिर्देश जारी किये है और प्रेस तथा लोगों से सम्बंद्ध विभिन्न मामलों पर नीति रूपरेखा की सिफारिश की। इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं भी गंभीर स्थिति पैदा हुई जिसमें प्रेस से संयम और सावधानी के साथ कार्य करने की आशा की गई वहाँ परिषद् के अध्यक्ष, वक्तव्यों के माध्यम से प्रेस का मार्गदर्शन करते रहे हैं। जब कभी भी सुनियोजित बृहत हमले किये गये, तब इन्होंने ऐसे वक्तव्यों के माध्यम से तीव्र प्रतिक्रिया भी की।
1969 में, परिषद् ने सांप्रदायिक संबंधों से सम्बद्ध मामलों पर रिपोर्टिंग और टिप्पणियाँ करने में नियमों और स्तरों को निर्दिट करते हुए 10-सूत्री मार्गनिर्देश जारी किये। सुविस्तार के बिना मार्गनिर्देशों में यह सूचीबद्ध और स्पट किया गया कि पत्रकारिता औचित्य और नीति के विरूद्ध क्या आपत्तिजनक होगा, अतः उससे बचना चाहिए। पुनः 1990 में अयोध्या की घटनाओं को देखते हुए, परिषद् ने 1969 के मार्गनिर्देशों को दोहराते हुए, नये अनुभव के प्रकाश में अन्य 12 सूत्री मार्गनिर्देश जारी किये। परिषद् ने कहा कि इसमें रेखांकित सिद्धांत प्रशिक्षण की अवस्था से लेकर मीडिया के प्रत्येक स्तर पर अंतर्निविट किये जाने चाहिए। इन सिद्धांतों संलग्नक बी-2 ने प्रेस और राज्य दोनों के लिये कुछ कार्य करने और कुछ कार्य न करने निर्दिष्ट किये।
कुछ प्रमुख कार्य:
Ø मीडिया में महिलाओं का चिंत्रांकन (1996)
Ø लघु और मझौले समाचारपत्रों की समस्यायें (1996)
Ø समाचारपत्रों का बंद होना और उर्दू समाचारपत्रों की समस्यायें
Ø पत्रकारों पर अनुग्रह करना
Ø विधानों का परीक्षण
Ø सूचना के गोपनीय स्रोत की सुरक्षा
Ø प्रेस और पंजीकरण अपील बोर्ड आदि
अध्याय 12
श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम ,1955
परिचय:
पत्रकारों के लिए सन 1955 में संसद ने पत्रकारों की चिरकालीन मांग को मूर्त रूप देते हुए श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारी और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम,1955 पारित किया.इसका उद्देश्य समाचारपत्रों और संवाद समितियों में काम करनेवाले श्रमजीवी पत्रकारों तथा अन्य व्यक्तियों के लिए कतिपय सेवा-शर्तें निर्धारित व विनियमित करना था.इससे पहले अखबारी कर्मचारियों को श्रेणीबद्ध करने,कार्य के अधिकतम निर्धारित घंटों, छुट्टी,मजदूरी की दरों के निर्धारण और पुनरीक्षण करने,भविष्य-निधि और ग्रेच्युटी आदि के बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं थी.पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.
श्रमजीवी पत्रकार और गैर-पत्रकार कर्मी अधिनियम ,1955
पत्रकारों को कानूनी तौर पर कोई आर्थिक व सेवारत सुरक्षा प्राप्त नहीं थी.इस कानून में समाज में पत्रकार के विशिष्ट कार्य और स्थान तथा उसकी गरिमा को मान्यता देते हुए संपादक और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों के हित में कुछ विशेष प्रावधान किए गए हैं.इनके आधार पर उन्हें सामान्य श्रमिकों से,जो औद्योगिक सम्बन्ध अधिनियम,1947 से विनियमित होते हैं,कुछ अधिक लाभ मिलते हैं.पहले यह अधिनियम जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं था पर 1970 में इसका विस्तार वहां भी कर दिया गया.अतः अब यह सारे देश के पत्रकारों व अन्य समाचारपत्र-कर्मियों के सिलसिले में लागू है
परिभाषा
श्रमजीवी पत्रकार की कानूनी परिभाषा पहली बार इस अधिनियम से ही की गई.इसके अनुसार श्रमजीवी पत्रकार वह है जिसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता हो और वह किसी समाचारपत्र स्थापन में या उसके सम्बन्ध में पत्रकार की हैसियत से नौकरी करता हो.इसके अन्तर्गत संपादक,अग्रलेख- लेखक, समाचार-संपादक,समाचार संवाददाता उप-संपादक, फीचर लेखक,प्रकाशन-विवेचक (कॉपी,टेस्टर),रिपोर्टर,संवाददाता (कौरेसपोंडेंट),व्यंग्य-चित्रकार (कार्टूनिस्ट),संचार फोटोग्राफर और प्रूफरीडर आते हैं.अदालतों के निर्णयों के अनुसार पत्रों में काल करनेवाले उर्दू-फारसी के कातिब,रेखा-चित्रकार और सन्दर्भ-सहायक भी श्रमजीवी पत्रकार हैं.कई पत्रों के लिए तथा अंशकालिक कार्य करनेवाला पत्रकार भी श्रमजीवी पत्रकार है यदि उसकी आजीविका का मुख्य साधन अर्थात उसका मुख्य व्यवसाय पत्रकारिता है.किन्तु,ऐसा कोई व्यक्ति जो मुख्य रूप से प्रबंध या प्रशासन का कार्य करता है या पर्यवेक्षकीय हैसियत से नियोजित होते हुए या तो अपने पद से जुड़े कार्यों की प्रकृति के कारण या अपने में निहित शक्तियों के कारण ऐसे कृत्यों का पालन करता है जो मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः प्रशासकीय प्रकृति के हैं,तो वह श्रमजीवी पत्रकार की परिभाषा में नहीं आता है.इस तरह एक संपादक श्रमजीवी पत्रकार है यदि वह मुख्यतः सम्पादकीय कार्य करता है और संपादक के रूप में नियोजित है.पर यदि वह सम्पादकीय कार्य कम और मुख्य रूप से प्रबंधकीय या प्रशासकीय कार्य करता है तो वह श्रमजीवी पत्रकार नहीं रह जाता है
अधिनियम की धारा 3 (1) से श्रमजीवी पत्रकारों के सम्बन्ध में वे सब उपबंध लागू किये गए हैं जो औद्योगिक विकास अधिनियम,1947 में कर्मकारों (वर्कमैन)पर लागू होते हैं |
छंटनी का नियम:
धारा 3 (2) के जरिये पत्रकारों की छंटनी के विषय में यह सुधार कर दिया गया है कि छंटनी के लिए संपादक को छह मास की और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को तीन मास की सूचना देनी होगी.संपादकों और अन्य श्रमजीवी पत्रकारों को इस सुधार के साथ-साथ वह सभी अधिकार और विशेषाधिकार प्राप्त है जो औद्योगिक विकास कानून के अन्तर्गत अन्य कर्मकारों को सुलभ है |
तनख्वाह के संबंध में:
धारा 8 (1) में उपबंधित किया गया है कि केंद्रीय सरकार एक निर्धारित रीति से श्रमजीवी पत्रकारों और अन्य समाचारपत्र-कर्मचारियों के लिए मजदूरी की दरें नियत कर सकेगी और धारा 8 (2) के तहत मजदूरी कि दरों को वह ऐसे अंतरालों पर, जैसा वह ठीक समझे, समय-समय पर पुनरीक्षित कर सकेगी। दरों का निर्धारण और पुनरीक्षण कालानुपाती (टाइम वर्क) और मात्रानुपाती (पीस वर्क) दोनों प्रकार के कामों के लिए किया जा सकेगा। इसलिए धारा 9 में एक मजदूरी बोर्ड के गठन का प्रावधान किया गया है। वर्तमान में मजीठिया वेतन बोर्ड लागू है और मजदूरी दरें वेतन बोर्ड की दरों से किसी तरह कम नहीं होगी नहीं तो धारा 13 के तहत अधिनियम का उल्लंघन करने के आरोप में 500 रूपए का जुर्माना अदा करना पड़ेगा
काम का समय:
धारा 6 के तहत काम के समय का प्रावधान है। चार सप्ताहों में 144 घंटों से ज्यादा काम नहीं लिया जा
सकता। सात दिन में एक दिन (24 घंटे) का विश्राम। दो प्रकार की छुट्टियां हैं पहली उपार्जित छुट्टी और
चिकित्सा छुट्टी। उपार्जित छुट्टी काम पर व्यतीत अवधि की 1/11 से कम नहीं होगी और यह पूरी तनख्वाह पर मिलेगी। चिकित्सा प्रमाण-पत्र पर चिकित्सा छुट्टियाँ कार्य पर व्यतीत अवधि की 1/18 से कम नहीं होंगी। यह आधी तनख्वाह पर दिया जाएंगा। मतलब एक माह की उपार्जित छुट्टी व चार सप्ताह की मेडिकल छुट्टी (आधे वेतन पर)। वैसे धारा 7 के तहत काम के घंटों का प्रावधान संपादक पर लागू नहीं होता। लेकिन श्रमजीवी पत्रकारों से दिन की पारी में 6 घंटे से ज्यादा व रात्रि की पारी में साढ़े पांच घंटे से ज्यादा काम नहीं लिया जा सकता। दिन में चार घंटे में एक घंटे का विश्राम व रात्रि में तीन घंटे में आधे घंटे का विश्राम दिया जायेगा। एक पत्रकार वर्ष में 10 सामान्य छुट्टियों का अधिकारी है। लेकिन यदि किसी कारणवश छुट्टी के दिन भी कार्य करना पड़ता है तो मालिक व पत्रकार की सहमति से किसी अन्य दिन छुट्टी ले सकता है। 11 माह में एक माह की उपार्जित छुट्टी दी जाएगी।
किन्तु 90 उपार्जित छुट्टियां एकत्र हो जाने के बाद और छुट्टियां उपार्जित नहीं मानी जायेंगी। सामान्य छुट्टियों, आकस्मिक छुट्टियों और टीका छुट्टी की अवधि को काम पर व्यतीत अवधि माना जाएगा। प्रत्येक 18 मास की अवधि में एक मास की छुट्टी चिकित्सक के प्रमाण-पत्र पर दी जाएगी। यह छुट्टी आधे वेतन पर होगी। ऐसी महिला श्रमजीवी पत्रकारों को, जिनकी सेवा एक वर्ष से अधिक की हो, तीन मास तक की प्रसूति छुट्टी दी जाएगी। यह छुट्टी गर्भपात होने पर भी सुलभ की जाएगी। इसके अलावा नियोजक की इच्छा पर वर्ष में 15 दिन की आकस्मिक छुट्टी दी जाएगी
अध्याय 13
भारतीय तार अधिनियम,1885
भारतीय तार अधिनियम ,1885 भारत में ब्रिटिश हुकूमत के दौरान ही अस्तित्व में आया था|इस अधिनियम के अनुसार सरकार को यह अधिकार है की वह किसी तार-सन्देश को प्रेषित ही न करे अथवा उसे बिच में ही रोक लें |
तार अधिनियम और मीडिया
भारतीय तार अधिनियम 1885 की धारा 5 ही मीडिया से संबंधित है इस कारण से यहाँ इसी धारा का चर्चा किया जा रहा है |
सार्वजनिक आपात स्थिति होने या सार्वजनिक सुरक्षा के हीत में भारत सरकार,राज्य सरकार, प्राधिकृत अधिकारी यदि चाहे तो तार संबंधी उपकरण अस्थाई रूप से अपने अधिकार में ले सकता है |
धारा 5(2) के अनुसार
सार्वजनिक आपात स्थिति पैदा होने या सार्वजनिक हित में आवश्यक होने पर केंद्र या राज्य सरकार या फिर प्राधिकृत अधिकारी ऐसी आवश्यकता से संतुष्ट होने पर या फिर भारत के एकता,अखंडता एवं सुरक्षा या विदेशों से मैत्रीपूर्ण संबंधब या अपराध की रोकथाम के लिए संप्रेषित तार (सन्देश) को रोका जा सकता है|
अध्याय 14
भारतीय प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम, 1957
परिचय :
कापीराइट का अर्थ है किसी कृति के संबंध में किसी एक व्यक्ति, व्यक्तियों या संस्था का निश्चित अवधि के लिये अधिकार। मुद्रणकला का प्रचार होने के पूर्व किसी रचना या कलाकृति से किसी के आर्थिक लाभ उठाने का कोई प्रश्न नहीं था। इसलिये कापीराइट की बात उसके बाद ही उठी है। कापीराइट का उद्देश्य यह है कि रचनाकार, या कलाकार या वह व्यक्ति अथवा संस्था जिसे कलाकार या रचनाकार ने अधिकार प्रदान किया हो उस कलाकृति और रचना से निर्धारित अवधि तक आर्थिक लाभ उठा सके तथा दूसरा कोई इस बीच उससे उस रूप में लाभ न उठा पाए।
भारत में इस समय कापीराइट (प्रतिलिप्यधिकार या कृतिस्वाम्य) की जो व्यवस्था है वह 1957 के प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम और उसके अंतर्गत बनाए गए नियमों द्वारा परिचालित होती है। इसके पूर्व भारत में 1914 में जो कापीराइट ऐक्ट बना था वह बहुत कुछ ब्रिटेन के 'इंपीरियल कापीराइट ऐक्ट (1911)' पर आधारित था। ब्रिटेन का यह कानून और उसके नियम, जो भारतीय स्वाधीनता अधिनियम के अनुच्छेद 18 (3) के अनुसार अनुकूलित कर लिए गए थे, 1957 तक चलते रहे। 1957 में नया कानून बनने पर पुराना कानून निरस्त हो गया।
भारतीय प्रतिलिप्याधिकार अधिनियम, 1957
हमारे देश में इस समय जो प्रतिलिप्यधिकार अधिनियम 1957 से लागू है उसके अनुसार यह व्यवस्था है कि अधिनियम के अमल में आने के बाद से एक प्रतिलिप्यधिकार कार्यालय स्थापित किया गया है जो इसी कार्य के लिये नियुक्त एक रजिस्ट्रार के अधीन है। इस रजिस्ट्रार को केंद्रीय सरकार के नियंत्रण और निर्देशन में काम करना पड़ता है तथा उसके कई सहायक हैं। इस कार्यालय का मुख्य काम यह है कि वह एक रजिस्टर रखे जिसमें लेखक या रचनाकार के अनुरोध पर रचना का नाम, रचनाकार या रचनाकारों के नाम, पते और कापीराइट जिसे हो उसके नाम, पते दर्ज किए जाएँ।
इसके साथ ही एक प्रतिलिप्यधिकार मंडल (कापीराइट बोर्ड) की स्थापना की गई जिसका कार्यालय प्रधान भी रजिस्ट्रार ही होता है। इस मंडल को किन्हीं मामलों में दीवानी अदालतों के अधिकार प्राप्त हैं। रजिस्ट्रार के आदेशों के विरोध में इस मंडल में अपील भी की जा सकती है।
मंडल का अध्यक्ष उच्च न्यायालय का जज, या सेवानिवृत्त जज हो सकता है तथा उसको सहायता के लिये नियुक्त तीनों व्यक्तियों के लिये यह आवश्यक है कि वे साहित्य और कलाओं के जानकार हों। इसके आदेशों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
यहां प्रयुक्त कार्यों का अर्थ हैं :-
साहित्यिक रचना :- इसमें कम्प्यूटर कार्यक्रम, सारणियां, संकलन और कम्प्यूटर डाटाबेस शामिल हैं।
नाट्य रचना :- इसमें गायन, नृत्य रचना या किसी प्रदर्शन में मनोरंजन का कोई रूप, नाट्य प्रबंध या अभिनय जिसका रूप लिखित या किसी अन्य रूप में तय हो, शामिल हैं।
संगीत रचना :- इसमें संगीत रचनाएं शामिल हैं, ऐसी रचनाओं का ग्राफीय रूप शामिल है लेकिन इसमें संगीत के साथ गाए, बोले या अभिनीत किए जाने वाले शब्द या अंगविक्षेप शामिल नहीं हैं।
कलात्मक रचना :- इसका अर्थ है चित्र, मूर्ति, आलेख (जिसमें आरेख, मानचित्र, चार्ट या प्लान भी शामिल है), उत्कीर्णन, या फोटोग्राफ, भले ही उनमें कलात्मक गुण हों या न हों। इसमें स्थापत्य रचनाएं और कलात्मक कारीगरी की कोई अन्य रचनाएं भी शामिल हो सकती हैं।
चलचित्र रचना :- इसका अर्थ है किसी ऐसी प्रक्रिया में जरिए, जिससे किसी भी तरह चलती-फिरती छवि निर्मित की जा सकती है, बनाए गए किसी माध्यम पर दृश्य रिकार्डिंग की कोई रचना।
ध्वनि रिकार्डिंग :- इसका अर्थ है ध्वनियों की रिकार्डिंग जिससे ध्वनियां निर्मित की जा सकती हैं, उस माध्यम पर ध्यान दिए बिना, जिससे ध्वनियां निर्मित की गई हो।
यहां 'संबंधित अधिकार या निकटवर्ती अधिकार' है कलाकारों (उदाहरणार्थ अभिनेताओं,गायकों और संगीतकारों), फोनोग्राम (ध्वनि रिकार्डिंग) के निर्माताओं और प्रसारण संगठनों के अधिकार।
सन 1984 में किए गए संशोधन
1. विडियो फ़िल्में भी सिनेमा फिल्मों की भांति होती है |
2. साहित्यिक कृति में संकलन ,कंप्यूटर डिस्क तथा सूचनाओं को संग्रहित करने वाले कंप्यूटर उपकरण भी शामील होंगे|
3. प्रत्येक रिकॉर्ड तथा विडियो के पैक पर ऐसी घोषणा छापना आवश्यक है कि-उनमें किसी प्रतिलिप्यधिकार का उल्लंघन नहीं किया गया और विडियो फ़िल्में के प्रदर्शन के लिए आवश्यक प्रमाणीकरण करा लिया गया है |
4. कानून का उल्लंघन करने पर एक वर्ष के स्थान पर न्यूनतम 6 मास और अधिकतम 3 वर्ष के कारागार अथवा जुर्माने या दोनों की सजा दी जा सकती है |
5. दोबारा अपराध करने पर दंड दुगुना भी किया जा सकता है |
अध्याय 15
सूचना का अधिकार विधेयक ,1996
परिचय
मैग्सैसे अवार्ड विजेता श्रीमती अरूणा रॉय के नेतृत्व में व मजदूर किसान शक्ति संगठन के बैनर तले सूचना का अधिकार के लिए वर्ष 1992 में राजस्थान से आंदोलन शुरू हुआ था। इसी क्रम में अप्रेल 1996 में सूचना के अधिकार की मांग को लेकर चालीस दिन का धरना दिया गया। राजस्थान सरकार पर दबाब बढ़ने पर तत्कालीन मुख्य मंत्री अशोक गहलोत ने वर्ष 2000 में राज्य स्तर पर सूचना का अधिकार कानून अस्तित्व में लाया। इसके बाद देखते ही देखते नौ राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, कर्नाटक, जम्मू-कश्मीर, असम, गोवा व मध्यप्रदेश में सूचना का अधिकार कानून लागू हो गया। कॉमन मिनियम प्रोग्राम में सूचना के अधिकार अधिनियम को लोकसभा में पारित करने का संकल्प लिया गया था तथा नेशनल एडवायजरी कॉन्सिल के सतत् प्रयास से यह कानून देश में लागू हो गया है।
वर्ष 2002 में केन्द्र की राजग सरकार ने सूचना की स्वतंत्रता विधेयक पारित कराया, लेकिन वह राजपत्र में प्रकाशित नहीं होने से कानून का रूप नहीं ले सका। इस विधेयक में सिर्फ सूचना लेने की स्वतंत्रता दी, सूचना देना या नहीं देना अधिकारी की मर्जी पर छोड दिया।
वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली केन्द्र की संप्रग सरकार ने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया, जिसने अगस्त 2004 में केन्द्र सरकार को सूचना का स्वतंत्रता अधिनियम में संशोधन सुझाए और उसी वर्ष यह विधेयक संसद में पेश हो गया। 11 मई 2005 को विधेयक को लोकसभा ने और 12 मई 2005 को राज्यसभा ने मंजूरी दे दी। 15 जून 2005 को इस पर राष्ट्रपति की सहमति मिलते ही सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 पूरे देश में प्रभावशील हो गया। उक्त अधिनियम की धारा 4 की उपधारा (1) एवं धारा 12, 13,15, 16, 24, 27, 28 की उपधाराएं (1) एवं (2) तत्काल प्रभाव में आ गई और शेष प्रावधान अधिनियम बनने की तिथि से 120 वें दिन अर्थात् 12 अक्टूबर 2005 से लागू किया गया। प्रत्येक राज्य में आयोग का गठन करने का प्रावधान रखा गया।
सूचना का तात्पर्यः
रिकार्ड, दस्तावेज, ज्ञापन, ईःमेल, विचार, सलाह, प्रेस विज्ञप्तियाँ, परिपत्र, आदेश, लांग पुस्तिका, ठेके सहित कोई भी उपलब्ध सामग्री, निजी निकायो से सम्बन्धित तथा किसी लोक प्राधिकरण द्वारा उस समय के प्रचलित कानून के अन्तर्गत प्राप्त किया जा सकता है।
सूचना का अधिकार-सांविधानिक प्रावधान:
सूचना के अधिकार का दर्ज़ा उपयोगिता और इस बात से सिद्ध होता है कि संविधान में इसे मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा दिया गया है। आरटीआई का अर्थ है सूचना का अधिकार और इसे संविधान की धारा 19 (1) के तहत एक मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। धारा 19 (1),जिसके तहत प्रत्येक नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है और उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार कैसे कार्य करती है, इसकी क्या भूमिका है, इसके क्या कार्य हैं आदि।सूचना का अधिकार अधिनियम प्रत्येक नागरिक को सरकार से प्रश्न पूछने का अधिकार देता है और इसमें टिप्पणियां, सारांश अथवा दस्तावेजों या अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियों या सामग्री के प्रमाणित नमूनों की मांग की जा सकती है।
आरटीआई अधिनियम पूरे भारत में लागू है (जम्मू और कश्मीर राज्य के अलावा) जिसमें सरकार की अधिसूचना के तहत आने वाले सभी निकाय शामिल हैं जिसमें ऐसे गैर सरकारी संगठन भी शामिल है जिनका स्वामित्व, नियंत्रण अथवा आंशिक निधिकरण सरकार द्वारा किया जाता है |
सूचना प्राप्ति की प्रक्रिया
आप सूचना के अधिकार अधिनियम- 2005 के अंतर्गत किसी लोक प्राधिकरण (सरकारी संगठन या सरकारी सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठनों) से सूचना प्राप्त कर सकते हैं।
· आवेदन हस्तलिखित या टाइप किया होना चाहिए। आवेदन प्रपत्र भारत विकास प्रवेशद्वार पोर्टल से भी डाउनलोड किया जा सकता है। आवेदन प्रपत्र डाउनलोड संदर्भित राज्य की वेबसाईट से प्राप्त करें
· आवेदन अँग्रेजी, हिन्दी या अन्य प्रादेशिक भाषाओं में तैयार होना चाहिए।
· अपने आवेदन में निम्न सूचनाएँ दें:
Ø सहायक लोक सूचना अधिकारी/लोक सूचना अधिकारी का नाम व उसका कार्यालय पता,
Ø विषय: सूचना का अधिकार अधिनियम- 2005 की धारा 6(1) के अंतर्गत आवेदन
Ø सूचना का ब्यौरा, जिसे आप लोक प्राधिकरण से प्राप्त करना चाहते हैं,
Ø आवेदनकर्त्ता का नाम,
Ø पिता/पति का नाम,
Ø वर्ग- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ी जाति
Ø आवेदन शुल्क
Ø क्या आप गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) परिवार से आते हैं- हाँ/नहीं,
Ø मोबाइल नंबर व ई-मेल पता (मोबाइल तथा ई-मेल पता देना अनिवार्य नहीं)
Ø पत्राचार हेतु डाक पता
Ø स्थान तथा तिथि
Ø आवेदनकर्त्ता के हस्ताक्षर
Ø संलग्नकों की सूची
· आवेदन जमा करने से पहले लोक सूचना अधिकारी का नाम, शुल्क, उसके भुगतान की प्रक्रिया आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर लें।
· सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सूचना प्राप्त करने हेतु आवेदन पत्र के साथ शुल्क भुगतान का भी प्रावधान है। परन्तु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति या गरीबी रेखा से नीचे के परिवार के सदस्यों को शुल्क नहीं जमा करने की छूट प्राप्त है।
· जो व्यक्ति शुल्क में छूट पाना चाहते हों उन्हें अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/बीपीएल प्रमाणपत्र की छायाप्रति जमा करनी होगी।
· आवेदन हाथो-हाथ, डाक द्वारा या ई-मेल के माध्यम से भेजा जा सकता है।
· यदि आप आवेदन डाक द्वारा भेज रहे हैं तो उसके लिए केवल पंजीकृत (रजिस्टर्ड) डाक सेवा का ही इस्तेमाल करें। कूरियर सेवा का प्रयोग कभी न करें।
आवेदन ई-मेल से भेजने की स्थिति में जरूरी दस्तावेज का स्कैन कॉपी अटैच कर भेज सकते हैं। लेकिन शुल्क जमा करने के लिए आपको संबंधित लोक प्राधिकारी के कार्यालय जाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में शुल्क भुगतान करने की तिथि से ही सूचना आपूर्ति के समय की गणना की जाती है।
आगे उपयोग के लिए आवेदन पत्र (अर्थात् मुख्य आवेदन प्रपत्र, आवेदन शुल्क का प्रमाण,स्वयं या डाक द्वारा जमा किये गये आवेदन की पावती) की 2 फोटोप्रति बनाएं और उसे सुरक्षित रखें।
यदि अपना आवेदन स्वयं लोक प्राधिकारी के कार्यालय जाकर जमा कर रहे हों, तो कार्यालय से पावती पत्र अवश्य प्राप्त करें जिसपर प्राप्ति की तिथि तथा मुहर स्पष्ट रूप से अंकित हों। यदि आवेदन रजिस्टर्ड डाक द्वारा भेज रहे हों तो पोस्ट ऑफिस से प्राप्त रसीद अवश्य प्राप्त करें और उसे संभाल कर रखें।
सूचना आपूर्ति के समय की गणना लोक सूचना अधिकारी द्वारा प्राप्त आवेदन की तिथि से आरंभ होता है।
शिकायत कब करें
इस अधिनियम के प्रावधान 18 (1) के तहत यह केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग का कर्तव्य है, जैसा भी मामला हो, कि वे एक व्यक्ति से शिकायत प्राप्त करें और पूछताछ करें।
जो केन्द्रीय सूचना लोक अधिकारी या राज्य सूचना लोक अधिकारी के पास अपना अनुरोध जमा करने में सफल नहीं होते, जैसा भी मामला हो, इसका कारण कुछ भी हो सकता है कि उक्त अधिकारी या केन्द्रीय सहायक लोक सूचना अधिकारी या राज्य सहायक लोक सूचना अधिकारी, इस अधिनियम के तहत नियुक्त न किया गया हो जैसा भी मामला हो, ने इस अधिनियम के तहत अग्रेषित करने के लिए कोई सूचना या अपील के लिए उसके आवेदन को स्वीकार करने से मना कर दिया हो जिसे वह केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना अधिकारी धारा 19 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट राज्य लोक सूचना अधिकारी के पास न भेजे या केन्द्रीय सूचना या आयोग अथवा राज्य सूचना आयोग में अग्रेषित न करें,जैसा भी मामला हो।
जिसे इस अधिनियम के तहत कोई जानकारी तक पहुंच देने से मना कर दिया गया हो। ऐसा व्यक्ति जिसे इस अधिनियम के तहत निर्दिष्ट समय सीमा के अंदर सूचना के लिए अनुरोध या सूचना तक पहुंच के अनुरोध का उत्तर नहीं दिया गया हो।
· जिसे शुल्क भुगतान करने की आवश्यकता हो, जिसे वह अनुपयुक्त मानता / मानती है।
· जिसे विश्वास है कि उसे इस अधिनियम के तहत अपूर्ण, भ्रामक या झूठी जानकारी दी गई है।
· इस अधिनियम के तहत अभिलेख तक पहुंच प्राप्त करने या अनुरोध करने से संबंधित किसी मामले के विषय में।
अध्याय 16
प्रसार भारती और संबंधित अधिनियम
परिचय :
प्रसार भारती (ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया के नाम से भी जानते हैं) भारत की एक सार्वजनिक प्रसारण संस्था है। इसमें मुख्य रूप से दूरदर्शन एवं आकाशवाणी शामिल हैं।
प्रसार भारती का गठन 23 नवंबर, 1997 प्रसारण संबंधी मुद्दों पर सरकारी प्रसारण संस्थाओं को स्वायत्तता देने के मुद्दे पर संसद में काफी बहस के बाद किया गया था। संसद ने इस संबंध में 1990 में एक अधिनियम पारित किया लेकिन इसे अंततः 15 सितंबर 1997 में लागू किया गया।
प्रसार भारती कानून
रेडियो और दूरदर्शन को स्वायत्त देने वाले वर्तमान प्रसार भारती कानून का मूल नाम प्रसार भारती (भारती प्रसारण निगम) विधान 1990 था। इसमें कुल चार अध्याय थे जो कुल 35 धाराओं – उपधाराओं में बंटे थे। अधिनियम के अनुसार रेडियो – दूरदर्शन का प्रबंधन एक निगम द्वारा किया जायेगा और यह निगम एक 15 सदस्यीय बोर्ड (परिषद) द्वारा संचालित होगा। परिषद में एक अध्यक्ष, एक कार्यकारी सदस्य, एक कार्मिक सदस्य, छह अंशकालिक सदस्य, एक –एक पदेन महानिदेशक (आकाशवाणी और दूरदर्शन), सूचना और प्रसारण मंत्रालय का एक प्रतिनिधि और कर्मचारियों के दो प्रतिनिधियों का प्रावधान था। अध्यक्ष व अन्य सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जायेगी।
प्रावधानों के अनुसार यह प्रसार भारती बोर्ड सीधे संसद के प्रति उत्तरदायी होगा और साल में एक बार यह अपनी वार्षिक रिपोर्ट संसद के समक्ष प्रस्तुत करेगा। अधिनियम में प्रसार भारती बोर्ड की स्वायत्ता के लिये दो समितियों का भी प्रावधान था - संसद समिति और प्रसार परिषद। संसदीय समिति में लोक सभा के 15 और राज्य सभा के 7 सदस्य होंगे जबकि प्रसार भारती परिषद में 11 सदस्य होंगे जिसे राष्ट्रपति नियुक्त करेंगे।
अधिनियम के अनुसार प्रसार भारती के निम्न उद्देश्य
1. देश की एकता और अखंडता तथा संविधान में वर्णित लोकतंत्रात्मक मुल्यों को बनाये रखना।
2. सार्वजनिक हित के सभी मामलों की सत्य व निष्पक्ष जानकारी, उचित तथा संतुलित रुप में जनता को देना।
3. शिक्षा तथा साक्षरता की भावना का प्रचार – प्रसार करना।
4. विभिन्न भारतीय संस्कृतियों व भाषाओं के पर्याप्त समाचार प्रसारित करना।
5. स्पर्धा बढ़ाने के लिये खेल – कूद के समाचारों को भी पर्याप्त स्थान देना।
6. महिलाओं की वास्तविक स्थिति तथा समस्याओं को उजागर करना।
7. युवा वर्ग की आवश्यकताओं पर ध्यान देना।
8. छुआछूत – असमानता तथा शोषण जैसी सामाजिक बुराईयों का विरोध करना और सामाजिक न्याय को प्रोत्साहन देना।
9. श्रमिकों के अधिकार की रक्षा करना।
10. बच्चों के अधिकारों की रक्षा करना।
अध्याय 17
प्रसारण:नीति और संबंधित कानून
भारत सरकार के द्वारा 19दिसम्बर 1996 को जारी एक जनसूचना के अनुसार बिना लाइसेंस के कोई भी व्यक्ति या संस्था ,डी.टी.एच् का इस्तेमाल नहीं करेगी |लेकिन इसका उल्लंघन करने पर इसके लिए कोई दंड का प्रावधान नहीं किया गया |
प्रसारण से संबंधित ऐसे ही और अनेक मामले है जिनकों विनियमित करने के लिए एक समग्र प्रसारण नीति की जरुरत काफी लम्बे समय से महसूस की जा रही थी |ऐसे मामलों से संबंधित प्रावधानों को प्रसारण विधेयक 1997 में समाविष्ट किया गया है |
प्रसारण निति की आवश्यकता
1. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विदेशी निवेश की मात्रा और व्यवस्था |
2. टेलीविजन चैनलों की अपलिकिंग |
3. डायरेक्ट टू होम की व्यवस्था |
4. माइक्रोवेव मल्टीपॉइंट डिस्ट्रीब्यूशन का अधिकार |
5. केबल टेलीविजन का प्रचालन |
6. विदेशी उपग्रह प्रसारण सेवा |
7. टेलीविजन चैनलों पर अश्लीलता |
मूल प्रसारण विधेयक
प्रसारण विधेयक सर्वोच्च न्यायालय के उस अदालत (सन1995) पर आधारित है जिसमें कहा गया है की :-
“देश में प्रसारण व्यवस्था के नियमन के लिए कोई प्राधिकरण होना चाहिए और प्रसारण तरंगों पर एक ही अधिकार नहीं हो सकता |
यह विधेयक कुल 6 खण्डों में विभाजित है |
विदेशी सैटेलाइट टेलीविजन के फैलाव और असर को देखते हुए सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने 1991 में वर्धन कमेटी का गठन किया. यूं इसका मकसद था 1990 के प्रसार भारती एक्ट की फिर से जांच करना. संयुक्त मोर्चा सरकार ने आगे बढ़कर राष्ट्रीय मीडिया नीति बनाए जाने की वकालत की. मई 1997 में संसद में प्रसारण बिल पेश किया गया. इस बिल से जुड़ी एक अहम बात सुप्रीम कोर्ट का 1995 का निर्देश है, जिसमें कहा गया था कि वायु तरंगें जनता की संपत्ति हैं. सरकार को वायुतरंगों के इस्तेमाल को विनियमित करने और नियंत्रित करने के लिए समाज के सभी वर्गों और रुचियों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक स्वतंत्र स्वायत्त सार्वजनिक संस्था का गठन करना चाहिए. 23 नवंबर 1997 को प्रसार भारती अस्तित्व में आया. ये एक वैधानिक स्वायत्त संस्था बताई गई जो देश का सार्वजनिक प्रसारणकर्ता भी था. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन इसके अधीन आ गये. कागज पर तो स्वायत्तता आ गई लेकिन पर्दे के पीछे डोर केंद्र सरकार के हाथों में रही.
अध्याय 18
मीडिया संबंधी अन्य कानून
संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन का संरक्षण) विधेयक ,1977
यह अधिनियम मूल रूप से आपातकाल के दौरान 8 दिसम्बर 1975 को एक अध्यादेश द्वारा लाया गया था |आपातकाल हटने पर 1977 में यह अध्यादेश भी वापस ले लिया गया |सन 1977 में ही जनता पार्टी की सरकार कुछ संसोधनों के बाद इस अध्यादेश को पुनः लागु कर दिया गया |
इस कानून के द्वारा ,मीडियाकर्मी को संसद या राज्य विधानमंडलो की कार्यवाही के प्रकाशन /प्रसारण के अधिकार को वैधानिक संरक्षण भी प्रदान किया गया है |इसे फिरोज गाँधी कानून भी कहा जाता है |
1. संसदीय कार्यवाही से संबंधित प्रकाशित या प्रसारित समाचार |
2. पत्रकारों को संसद ,सांसद और विधयाकों के विशेषाधिकार का हनन नहीं करना चाहिए |
3. संसद में दिए गए भाषणों या खुल्लम-खुल्ला आरोपों के अंश भी प्रकाशित /प्रसारित किये जा सकते है लेकिन शर्त यह है कि इसका उद्धेश्य मात्र प्रेस-रिपोर्टिंग ही होना चाहिए |
4. सदन के किसी गोपनीय सत्र की कार्यवाही प्रकाशित नहीं की जा सकती |
पुरस्कार प्रतियोगिता अधिनियम ,1955
पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले शब्द-पहेलियों की आड़ में चलने वाले जुए पर अंकुश लगाने के लिए यह अधिनियम लाया गया था |यह कानून इन पहेलियों/प्रतियोगताओं पर अंकुश लगाने के लिए न होकर ,उन्हें नियंत्रित व नियमित करने हेतु था | इन प्रतियोगताओं में क्रास वर्ड पहेली,रिक्त स्थानों में शब्द पूर्ति प्रतियोगिता ,चित्र पहेली पुरस्कार आदि आते है |
इन अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार
1. एक हजार से अधिक रूपये का पुरस्कार प्रतिग्ताओं का विज्ञापन तथा प्रकाशन वर्जित है |
2. यदि जरुरत समझे तो लाइसेंस अधिकारी ,अनुमति देने से इंकार कर सकता है |
3. अधिनियम में वर्णित पुरस्कार प्रतिग्ताओं का पूरा हिसाब रखे और इसका विवरण संबंधित लाइसेंस प्राधिकरण को भी भेजें |
4. बिना लाइसेंस के छपने वाले पत्र-पत्रिकाओं को सरकार द्वारा जब्त किया जा सकता है |
पुस्तक और समाचार पत्र परिदान अधिनियम, 1954
इस अधिनियम के अंतर्गत प्रकाशकों पर यह कानूनी जिम्मेदारी डाली गयी है कि वे अपनी पुस्तकों या समाचार पत्रों की एक-एक प्रति भारत सरकार द्वारा अधिसूचित सार्वजनिक पुस्तकालयों को मुफ्त या अपने खर्च पर दें| उल्लंघन पर 50000 रुपये तक का जुर्माना हो सकता है|
औषधि और चमत्कारिक उपचार अधिनियम 1954
इस अधिनियम का उद्देश्य लोगों को तथाकथिक चमत्कारी दवाओं और उपचारों जैसे मंत्र तंत्र, कवच और जादू होने के प्रयोग के संभावित दुष्प्रभावों स बचाना है| इसमें कुछ प्रकार के विज्ञापनों को नियंत्रित करने और कुछ प्रयोजनों की कथित औषधियों के विज्ञापन पर रोक लगाने के उपबंध किये गए हैं| अधिनियम की धारा ३ के अंतर्गत किसी ऐसे विज्ञापन के प्रकाशन में लगा होना अपराध है जिससे यह धारणा बनती हो कि इस औषधि को....
(1) स्त्रियों का गर्भपात करने या गर्भधारण को रोकने
(2) यौन आनंद के लिए व्यक्तियों की क्षमता बनाये रखने या बढाने
(3) स्त्रियों के मासिक धर्म के विकारों को ठीक करने के लिए प्रयोग में लायी जा सकती है|
अनुसूची में 54 प्रकार के रोग, विकार या दशाओं को शामिल किया गया है| धारा 4 के अंतर्गत उस विज्ञापन के प्रकाशन में भाग लेना अपराध है|
(1) जिससे विज्ञापित औषधि के सम्बन्ध में कोई झूठी धारणा सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से बनती हो|
(2) उस औषधि के सम्बन्ध में कोई झूठा दावा किया गया हो या
(3) जो महत्वपूर्ण बातों में झूठा या भ्रामक हो|
धारा 5 के अंतर्गत चमत्कारी उपचार का धंधा करने वालों द्वारा ऐसे विज्ञापन लेना अपराध है|
धारा 6 के अंतर्गत ऐसे दस्तावेजों का आयात-निर्यात भी अपराध है| इसके उल्लंघन पर 6 मास का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है| पुनः दोष सिद्ध होने पर 1 वर्ष का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जाएगा|
नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876
ड्रमैटिक एक्ट 1876 यानि ‘नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876’, 16 दिसम्बर 1876 को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के द्वारा लाया गया था। अन्य अधिनियमों के भांति इस अधिनियम में भी दो भाग है। प्रथम भाग में अधिनियम में जो धाराएँ हैं उनकी सूची और दूसरे भाग में धाराओं के अंतर्गत प्रावधान वर्णित है। इस अधिनियम मे कुल 12 धाराएँ हैं।
बालक अधिनियम, 1960
यह अधिनियम बाल अपराधियों के सुधार और अच्छे नागरिक बनाने के उद्देश्य से बनाया गया है| धारा 36(1) के अंतर्गत समाचार पत्रों पर, पत्रिकाओं पर किसी बच्चे के बारे में चल रही जांच के सिलसिले में बच्चे का नाम? पता? उसके स्कूल का नाम या ऐसा विवरण जिससे उसकी पहचान हो सके प्रकाशित करना या उसकी तस्वीर छापना वर्जित है| इसके उल्लंघन पर 1000 रूपये तक का जुर्माना हो सकता है|
भारतीय डाकघर अधिनियम, 1898
इस अधिनियम की धारा 20 के अंतर्गत अभद्र या अश्लील सामग्री को डाक से भेजना वर्जित है|इसी प्रकार ऐसी डाक को, जिस पर या जिसके लिफाफे पर अभद्र, अश्लील, राजद्रोहात्मक,निन्दात्मक, धमकाने वाले या अत्यंत उत्तेजक शब्द, चिन्ह या डिजाइन हो, भेजना भी अवैध है|ऐसे समाचार पत्रों, पुस्तकों, पैटर्न, या नमूना पैकेटों को डाक तार महापाल द्वारा प्राधिकृत किसी अधिकारी द्वारा उसमें अश्लील या अभद्र सामग्री होने के संदेह पर रोका या खोला जा सकता है तथा उसका निपटान जैसे केंद्र सरकार चाहे वैसे किया जा सकता है|
जो पत्र, प्रेस और पुस्तक पंजियन अधिनियम 1867 के अधीन नियमों के अनुसार मुद्रित या प्रकाशित नहीं होते, उन्हें डाक से प्रेषित नहीं किया जा सकता| यदि प्रेषित किया जाता है तो इन्हें रोककर राज्य सरकार द्वारा इस विषय में नियुक्त अधिकारी को दिया जा सकता है|
अश्लीलता धारा 292
धारा 292 अश्लील लेखन की बिक्री को अपराध बताती है| इसके प्रावधान के उल्लंघन के अपराधी को पहली बार दोष सिद्ध होने पर २ वर्ष तक का कारावास और 2000 रुपया जुर्माना तथा पुनः दोष सिद्ध होने पर 5 वर्ष तक का कारावास और 5000 तक का जुर्माना हो सकता है|
धारा 293: तरुणों में अश्लील वस्तुओं का विक्रय
इस धारा के अधीन 20 वर्ष से कम आई के युवाओं को अश्लील वस्तुओं की बिक्री करने, भाड़े पर देने, वितरित, प्रदर्शित, परिचालित या पेश करने या ऐसा करने का प्रयत्न करने वालों के लिए अधिक कदा कानून बना दिया गया है| प्रथम दोष सिद्ध होने पर अपराधी को ३ वर्ष तक के साधारण या सश्रम कारावास और 2000 रूपये तक के जुर्माने से तथा पुनः दोष सिद्ध होने पर ७ वर्ष तक के कारावास और ५००० रुपये तक के जुर्माने से दण्डित किया जा सकता है|
अध्याय 19
प्रेस की आचार संहिता
भारतीय प्रेस परिषद् और भी अनेकों मीडिया संगठन ने समय –समय पर पत्रकारिता के लिए बहुत सारे आचार-संहिता का निर्माण किया है ,फिर भी सभी लोगों के आचार-संहिता को पढने के बाद एक सर्वव्यापी प्रेस की आचार-संहिता इस प्रकार है |
1.पत्रकार को किसी भी विचारधारा से प्रभावित होकर खबर का प्रकाशनया प्रसारण नहीं करना चाहिए। पत्रकार को हर समय न्यायनिष्ट और निष्पक्ष रहना चाहिए।
2. हमारे देश में जाति और धर्म के नाम पर हमेशा विवाद होता रहता है, कई बार तो दंगा की भी नौबत आ जाती है। अत: एक पत्रकारको खबर का प्रकाशन और प्रसारण करते समय समय विशेष सावधानी और निष्पक्षता बरती जाये। किसी भी प्रकार से जाति या धर्म को लेकर टिका-टिप्पणी नहीं करना चाहिए।
3. खबर की मूल आत्मा के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। खबर जो है ठीक वैसे ही पेश करना चाहिए। समाचारों में तथ्यों को तोडा मरोड़ा न जाये न कोई सूचना छिपायी जाये।
4. व्यावसायिक गोपनीयता का निष्ठा से अनुपालन का ध्यान रखना चाहिए।
5. पत्रकारिता एक मिशन है अत: इसका इस्तेमाल व्यक्तिगत हित साधने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। प्राय: कई ऐसे पत्रकार और पत्रकारिता संस्थान पत्रकारिता को ढाल बनाकर उसके आड़ में गलत धंधा करते हैं। खुद को पत्रकार बताकर नियम-कानून की अवहेलना करना या मनमानी करना भी अपराध की श्रेणी में आता है।
6. पत्रकार अपने पद और पहुंच का उपयोग गैर पत्रकारीय कार्यों के लिए न करें। उदाहरण के लिए- प्राय: ऐसा देखा जाता है कि कई बार ट्रैफिक नियम का पालन ना करने पर जब पत्रकार को दंडित किया जाता है तो वह खुद को प्रेस से बताकर अपने पद का दुरुपयोग करता है।
7. पत्रकारिता पर कई बार पेड न्यूज जैसे दाग लग चुके हैं। अत: पत्रकारिता की मर्यादा का ध्यान रखते हुए एक पत्रकार को रिश्वत लेकर समाचार छापना या न छापना अवांछनीय, अमर्यादित और अनैतिक है।
8. हर व्यक्ति की इज्जत उसकी निजी संपत्ति होती है। जिसपर सिर्फ उसी व्यक्ति का अधिकार होता है किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में अफवाह फैलाने के लिए पत्रकारिता का उपयोग नहीं किया जाये। यह पत्रकारिता की मर्यादा के खिलाफ है। अगर ऐसा समाचार छापने के लिए जनदबाव हो तो भी पत्रकार पर्याप्त संतुलित रहे।
कुछ साल पहले राष्ट्रपति एपीजे अव्दुल कलाम के हस्ताक्षर से एडीटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने एक पत्रकार व्यवहार संहिता भी जारी की थी। इसमें भी काफी मनन के बाद कई बिंदुओं को शामिल किया गया था। कुछ प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-
1. पर्याप्त समय सीमा के तहत पीड़ित पक्ष को अपना जवाब देने या खंडन करने का मौका दें।
2. किसी व्यक्ति के निजी मामले को अनावश्यक प्रचार देने से बचें।
3. किसी खबर में लोगों की दिलचस्पी बढ़ाने के लिए उसमें अतिश्योक्ती से बचें।
4. निजी दुख वाले दृश्यों से संबंधित खबरों को मानवीय हित के नाम पर आंख मूंद कर न परोसा जाये।मानवाधिकार और निजी भावनाओं की गोपनीयता का भी उतना ही महत्व है।
5. धार्मिक विवादों पर लिखते समय सभी संप्रदायों और समुदायों को समान आदर दिया जाना चाहिए।
6. अपराध मामलो में विशेषकर सेक्स और बच्चों से संबंधित मामले में यह देखना जरूरी है कि कहीं रिपोर्ट ही अपने आप में सजा न बन जाये और किसी जीवन को अनावश्यक बर्बाद न कर दे।
7. चोरी छिपे सुनकर (और फोटो लेकर) किसी यंत्र का सहारा लेकर ,किसी के निजी टेलीफोन पर बातचीत को पकड़ कर ,अपनी पहचान छिपा कर या चालबाजी से सूचनाएं प्राप्त नहीं की जायें। सिर्फ जनहित के मामले में ही जब ऐसा करना उचित है और सूचना प्राप्त करने का कोई और विकल्प न बचा हो तो ऐसा किया जाये।
कुछ ऐसी बातें हैं जिससे पत्रकार को फिल्ड में या डेस्क पर काम करते वक्त हमेशा दो-चार होना पड़ता है, इसलिए उपरोक्त सभी बातों को ध्यान में रखने के साथ-साथ एक पत्रकार को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि-
1. खबर, विजुअल या ग्राफिक्स में रेप पीड़िता का नाम, फोटो या किसी तरह का कोई पहचान ना हो। फोटो को ब्लर करवाकर इस्तेमाल किया जा सकता है।
2. न्यायालय को इस देश में सर्वश्रेष्ठ माना गया है इसलिए न्यायालय की अवहेलना नहीं होनी चाहिए।
3. देश हित एक पत्रकार की प्राथमिकता होती है अत: पत्रकार को देश के रक्षा और विदेश नीति के मामले में कवरेज करते वक्त देश की मर्यादा का हमेशा ध्यान रखना चाहिए।
4. न्यायालय जब तक किसी का अपराध ना सिद्ध कर दे उसे अपराधी नहीं कहना चाहिए इसलिए खबर में उसके लिए आरोपी शब्द का इस्तेमाल करें। 5. अगर कोई नाबालिग अपराध करता है तो उस आरोपी का विजुअल ब्लर करके ही चलाना चाहिए।
अध्याय 20
विज्ञापन की भारतीय आचार- संहिता
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने सन 1980 में समूचे भारतवर्ष में एक विज्ञापन निति लागु की जो देश भर की सभी पत्र-पत्रिकाओं पर सामान रूप से लागू होती है |यह नीति सही तरीके से लागू हो रही है या नहीं ,इसकी देख-रेख दृश्य प्रचार निदेशालय द्वारा किया जाता है |
विज्ञापन इस तरह डिजाइन किया जाना चाहिए कि वह देश की विधि के अनुरूप हो और लोगों की नैतिकता, शालीनता और धार्मिक भावनाओं पर आक्षेप न करता हो ।किसी भी ऐसे विज्ञापन के लिए अनुमति नही दी जाएगी जो -----
I. किसी प्रजाति, जाति, रंग, धर्म और राष्ट्रीयता का उपहास करता हो ।
II. भारत के संविधान के किसी निर्देशक सिद्धांत किसी अन्य उपबंध के विरुद्ध हो ।
III. लोगों को अपराध की ओर बढ़ावा देता है या अशान्ति, हिंसा या कानून भंगकरने को बढ़ावा देता है अथवा किसी भी प्रकार से हिंसा या अश्लीलता को महिमामंडित करता है;
IV. आपराधिक भावना को वांछनीय बतलाता है;
V. विदेशी राज्यों के साथ् मैत्रीपूर्ण संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है;
VI. राष्ट्रीय प्रतीक या संविधान के किसी भाग या किसी व्यक्ति या किसी राष्ट्रीय नेता या राज्य के उच्चाधिकारी के व्यक्तित्व का अनुचित लाभ उठाता हो;
VII. सिगरेट और तम्बाकू उत्पादों, मदिरा, शराब और अन्य मादक पदार्थों के बारे में है या उन्हें बढ़ावा देता है;
VIII. महिलाओं के चित्रण में सभी नागरिकों की स्थिति एवं अवसर की समानता तथा व्यक्तिगत मान मर्यादा की संवैधानिक गारंटी काउल्लंघन करता है । विशेषकर, किसी भी ऐसे विज्ञापन की अनुमति नहीं दी जाएगी जिसमें महिलाओं की अपमानजनक छविप्रस्तुत की गई हो । महिलाओं का चित्रांकन इस ढंग से कदापि नहीं किया जाना चाहिए जो निष्क्रियता एवं दब्बु स्वभाव पर बल देता हो और परिवार एवं समाज में उनकी अधीनस्थ और गौण भूमिका को प्रोत्साहित करता हो ।
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