Sunday, May 6, 2018

Opinion on Judiciary

  'जस्टिस डिलेड, जस्टिस डिनाएड'


   न्यायालयों में गर्मी की छुट्टियों के शुरू होने से पहले शुक्रवार को बाम्बे हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस शाहरूख जे. कथावाला अखबारों की सुर्खियां बने। उन्होंने छुट्टियों के मद्देनजर अंमित दिन शनिवार को भोर तक करीब 100 से अधिक मामले निपटाये। ये वह मामले थे, जिनमें बेहद जरूरी आधार पर अंतरिम राहत की मांग की गयी थी। शुक्रवार की सुबह से लेकर शनिवार को भोर 3.30 बजे तक सुनवाई किया जाना वाकई मेें काबिलेतारीफ है, लेकिन यह नौबत आयी क्यों? इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
  भारतीय लोकतंत्र में केवल न्यायपालिका ही है, जिसकी साख आम लोगों में अच्छी बरकरार है और हर तरफ से नाउम्मीद लोगों के लिए न्यायपालिका ही उम्मीद की किरण है। न्याय के इस चौखट पर फरियादी बड़ी उम्मीद से आता है, लेकिन आजादी के बाद से ही न्यायपालिका को सुदृढ़ करने में सरकारें घोर लापरवाही बरतती रहीं। नतीजतन न्यायपालिका में हजारों से गुजरते हुए लाखों और अब करोड़ों की संख्या में मामले लंबित हैं। अधिकतर की सुनवाई की तारीख ही नहीं आ पाती है और कई मामलों में वादी-प्रतिवादी का निधन तक हो जाता है, लेकिन उन पर फैसले नहीं आ पाते।
  यह हाल सोचनीय है। आखिर लोकतंत्र के सबसे विश्वसनीय स्तम्भ में न्याय पाना क्यों मुश्किल हो चला है। सच्चाई यह है कि वर्तमान में न्यायपालिका के विस्तार पर ही ध्यान नहीं दिया गया। जनसंख्या के अनुपात में न्यायपालिकाओं की संख्या को नहीं बढ़ाया गया। दो दशक पूर्व जब काफी मामले बढ़ गये तो सरकार ने कुछ फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन कामचलाऊ व्यवस्था को शुरू किया, लेकिन यह सरकारी प्रयास ऊंट के मुंह में जीरा जैसा था। एक दशक पहले सरकारी स्तर पर न्यायपालिकाओं को विस्तार देने पर चर्चा चली थी और ग्राम पंचायत न्यायालय का विचार उठा था, लेकिन वह आज तक धरातल पर नहीं आ सका। सरकार की तरफ से विधिक सेवा प्राधिकरण का गठन किया गया, जिसमें लोक अदालत के माध्यम से सुलह समझौते के द्वारा मामलों के निपटान की व्यवस्था की गई, लेकिन लंबित मामलों के समस्या की जड़ जस की तस बनी हुई है।
  सच्चाई यह है कि वह चाहे फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन का मामला हो या लोक अदालतों का। किसी भी मामले में अलग से न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं की गई। जो न्यायाधीश पहले से कार्यरत थे, उन्हें ही अतिरिक्त जिम्मेदारी दे दी गई। इससे दो बातें हुई, एक तो न्यायाधीशों पर काम का बोझ बढ़ता गया और दूसरी तरफ गंभीर मामलों में उनको द्वारा अधिक समय न मिल पाने की समस्या बढ़ी। यह भारतीय संविधान की उस परिकल्पना के ठीक उलट था, जिसमें यह कहा गया है कि चाहे सौ अपराधी छूट जायें, लेकिन किसी निर्दोष को सजा न होने पाये। हकीकत तो यह है कि न्याय के लिए किसी भी केस की तह तक पहुंचने के लिए समय की आवश्यकता होती है, जो लंबित मामलों के बढ़ते बोझ के चलते न्यायाधीशों को नहीं मिल पा रही है। बाम्बे हाईकोर्ट के जस्टिस कथावाला अंतिम दिन रात के 3.30 बजे तक सुनवाई किये, लेकिन यह हर दिन मुमकिन नहीं है। इसके लिए सरकार को सृजित पदों पर भर्तियां करने के साथ साथ नये पदों के सृजन और नये कोर्ट के गठन का भी बृहद स्तर पर करना होगा।
 मौजूदा स्थिति यह है कि सुप्रीम कोर्ट में कुल 31 स्वीकृत पद है,  जिसमें 07 खाली हैं और लंबित मामलों की संख्या 54 हजार से अधिक हैं। देश के कुल 24 हाईकोर्ट में  1079 पदों के सापेक्ष 413 पद खाली पड़े हैं तथा लंबित मामलों की संख्या 41 लाख 53 हजार हैं। निचली अदालतों का तो और बुरा हाल है और यहां 22677 स्वीकृत पदों के सापेक्ष करीब 06 हजार पद रिक्त पड़े हैं, जिस कारण लंबित मामलों की संख्या 02 करोड़ 80 लाख तक पहुंच गई है। लंबित मामलों की संख्या को देखकर इस बात का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में न्याय पाना कितना मुश्किल हो गया है। इस पर जल्दी कोई ठोस पहल नहीं शुरू की गई तो निश्चित रूप से लोकतंत्र के इस सबसे विश्वसनीय स्तम्भ की लोगों के बीच गरिमा गिरेगी।
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