देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लगाम लगाने की आवश्यकता
आपको याद होगा, जब केवल दूरदर्शन नाम का चैनल आया करता था। उसपर ही समाचार, चित्रहार, कृषि विशेष, हास्य आदि कार्यक्रम आया करते थे।
समय बदला, ज़ी मीडिया की देखा देखी अन्य बहुत से चैनल आये जो केवल, समाचार, धारावाहिक या संगीत पर केंद्रित थे।
पहले जब एक ही चैनल पर सभी कार्यक्रम अलग अलग समय पर आते थे तो कॉन्टेंट की कोई समस्या नही थी, लोगों को एक ही चैनल के माध्यम से सभी चीजें मिल जाती थीं। अब समाचार चैनलो के सर पर एक चिंता आगयी, जो प्रोग्राम केवल सुबह और शाम को आता था, वह उन्हें दिन भर चलाना था। अब न्यूज़ तो उतनी ही थी, तो खानापूर्ति कैसे करते? तो वाद विवाद प्रतियोगिताएं, एक्सकलुसिव प्रोग्राम्स, लंबी अवधि के न्यूज़ प्रोग्राम आदि जैसे नुस्खे निकाले। जबकि यकीन मानिए,अगर इसकी जगह कुछ समय कल्चरल जर्नलिज्म को देते तो अपने आप को नैतिक पतन से बचते हुए, टी.आर. पी का मुनाफा भी कमाते। दूसरी बात ये की आप ये क्यों नही समझ लेते है, आपको कोई अधिकार नही है आइडियोलॉजी क्रिएट करने का, केवल समाचार देने का अधिकार है आपका, बस उतना करें।
अब डिबेट्स और एक्सकलुसिव्स के माध्यम से हर प्रकार का झूठा-सच और अनैतिकता परोसने लगे। लोग भी इसलिए इंटरेस्ट लेते है कि बिना पढ़े या दिमाग पर जोर डाले चंडूखाने की चार खबरें ही पता चल रही हैं जो बाद में आपसी चकल्लसों के दौरान आपना अपना बौद्धिक प्रदर्शन करने में सहायस्क होंगी,चाहे कोरी बकवास ही क्यों न हों।
उदाहरण के लिए भारत के एक बहुत ही बेहतरीन अंग्रेजी न्यूज़ चैनल की बात बताती हूँ। 6 मई को इंडिया टुडे की खबर के अनुसार श्रीनगर के पुराने इलाके में, एक पत्थरबाज पुलिस कैंटर की चपेट में आगया और उसकी मौत होगयी। इसपर एंकर का कहना है कि ये नृशंस हत्या है, बीजेपी इसपर सफाई दे, एक युवा का नुकसान हुआ जो देश के लिए कुछ कर सकता था, पुलिस जवानों को गाडी रोक कर उसको रस्ते से हटाना चाहिए था, मानवाधिकार का हनन,आदि। इसपर क्या प्रतिक्रिया दें, समझ नहीं आता। क्या इसी को ऊंचा बौद्धिक स्तर कहा जाता है? इसका जवाब मेरे जैसा कोई भी साधारण व्यक्ति देदेगा। सिक्योरिटी ऑपरेशन्स के दौरान सिविलियन्स को बाहर रहने की अनुमति नहीं होती। पत्थरबाजी चल रही थी, जो मरा वो भी वीडियो में पत्थर चलाता हुआ दिखा, और उस रोड पर करीब 15-20पत्थरबाज और थे, तो पुलिस कैंटर हड़बड़ी में भाग्य जा रहा था जिसके कारण वो चपेट में आया। अब मोहतरमा के अनुसार वह पत्थर चला कर देश के लिए उज्जवल भविष्य बनाने वाला था, जो अब नही हो सकता। जवानों को गाडी से उतर कर उन दरिंदो को समझाने का प्रयास करना चाहिए था। अय्यूब पंडित के साथ तो बहुत प्रेम भरी वार्तालाप की थी न उन सबने? अय्यूब तो एक नाम है, न जाने कितने जवान घायल और शहीद होते हैं, इन कुकुर-झुन्डों के कारण। बेहतरीन बात ये है कि मानवाधिकार केवल पत्थरबाजों के हैं, जवानों के नही, वो अपने जान माल की रक्षा का अधिकार नही रखते। समझ नही आता की इसको बिना सर पैर की बकवास कहें या नीच षड्यंत्र...
ये तो केवल एक मामला है, कहीं किसी एंकर की हाफिज सईद जैसे आतंकी सराहना कर रहे हैं और कोई 2000 के नोट में चिप लगाए दे रहा है। आपको पता है, अगर मीडिया पर भी किसी का कण्ट्रोल होता तो न ऐसी वीडियो परोसना संभव होता, और न ही एक रेप पीड़ित बच्ची का नाम और चित्र उजागर होता। और अगर इनको ये सब बातें खुद से समझ नहीं आतीं तो हां, आवश्यकता है इनपर लगाम लगाने की।
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