राज्य को यूपीकोका की नहीं, सक्रिय पुलिस की जरूरत...
उत्तर प्रदेश सरकार ने विधानसभा में यूपीकोका बिल दोबारा पास कर दिया। अब इसे लागू होने से नहीं रोका जा सकता है। अत: अब यह कानून आने वाले दिनों में यूपी पुलिस के लिए मुख्य हथियार बनने वाला है। सम्पूर्ण विपक्ष इसके खिलाफ है। उसे डर है कि पूर्व में पोटा और एनएसए जैसे कानूनों का खूब दुरुपयोग लोगों ने देखा है। यूपीकोका भी कहीं उसी राह पर न चल पड़े। यह भी एक तथ्य है कि जहां भी इस तरह के कानून बने हैं, वहां भी कोई उत्साहजनक परिणाम नहीं आये हैं। महाराष्ट्र में मकोका का उदाहरण सबके सामने है। उससे कितना अपराध नियंत्रण हुआ यह सर्वविदित है।
डर यूपी पुलिस की कार्यशैली को भी लेकर है। पुलिस थानों में सामान्य जन की सुनवाई के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं, जबकि रसूखवालों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। पुलिसिया कार्यशैली में सत्ता की हनक भी देखी जाती है। ऐसे में विपक्षियों की चिंता जायज है। लोगों ने पोटा जैसे कानूनों में पहले भी देखा है, सरकारों ने इसे अपने लाभ के लिए खूब दुरुपयोग किया। आतंकवादियों के बजाये इस कानून के तहत विपक्षी नेताओं को जेल की हवा खानी पड़ी। चाहे तमिलनाडु हो या उत्तर प्रदेश हर जगह इसका दुरुपयोग देखने को मिला। अब यूपीकोका उन्हीं दिनों की याद दिला रहा है। यह कानून संगठित अपराध के खिलाफ पुलिस को असीमित अधिकार देता है। इसके तहत जुर्म के लिए पुलिस आरोपी को 15 दिनों की रिमांड पर ही हवालात में रख सकती है। बिना जुर्म साबित हुए भी पुलिस किसी आरोपी को 60 दिनों तक हवालात में रख सकती है। आईपीसी की धारा के तहत गिरफ्तारी के 60 से 90 दिनों के अंदर चार्जशीट दाखिल करना होता है, वहीं यूपीकोका में ०६ महीनों तक बिना चार्जशीट दाखिल किए आरोपी को जेल में रखा जा सकेगा। इसमें जेल में बंद कैदियों से मिलने के लिए भी बहुत सख्ती है। जिलाधिकारी की अनुमति के बाद ही कोई यूपीकोका के आरोपी से मिल सकते हैं, वो भी हफ्ते में एक से दो बार। यूपीकोका की सुनवाई के लिए स्पेशल कोर्ट होगी, उम्रकैद से लेकर मौत की सजा का भी प्रावधान होगा। यही नहीं मुजरिम पर 05 से लेकर 25 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि प्रदेश में अपराध रोकने के लिए कानून पर्याप्त नहीं है। आईपीसी, सीआरपीसी के साथ-साथ बहुत से ऐसे कानून हैं, जिसके द्वारा अपराध पर अंकुश लगाया जा सकता है। जरूरत है इन कानूनों को लागू करने की इच्छाशक्ति का। यह बात कोई दबी छिपी नहीं है कि पुलिस थानों पर ज्यादातर मामलों में सत्ता का हस्तक्षेप बना रहता है। इसे दूर करने की आवश्यकता है। इस कानून के लागू होने पर पोटा जैसा इतिहास भी दोहराये जाने की संभावना हमेशा बनी रहेगी। यह स्थिति एक कल्याणकारी राज्य के लिए अच्छी नहीं मानी जा सकती है।
फ़िर भी इसके होने मात्र से अपराधियों के गले तो सूखने प्रारम्भ होंगे!
ReplyDeleteऔर गुण-दोष तो एक ही सिक्के के दो पहलूँ है!
दृष्टि-दृष्टि फेर है।
बेहतरीन विचार प्रभाकर, वैसे कानून से समस्या खत्म नहीं हो जाती, फिर भी समस्या बढ़ने पर कानून तो बनता ही है।
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