Sunday, May 6, 2018

Opinion on Karl Marx

कार्ल मार्क्स : सहस्त्राब्दी के सबसे महान चिंतक

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   मार्क्स का जन्म एक जर्मन यहूदी वकील के घर में 5 मई 1818 को हुआ था। 65 वर्ष की आयु में, 14 मार्च 1883 को उनका निधन हुआ था। इस अपेक्षाकृत छोटे अर्से में उन्होंने जो कुछ लिखा उसमें ऐसा क्या था, जो न सिर्फ आज भी सारी दुनिया उसके महत्व को मानती है बल्कि यह भी स्वीकार करती है कि मार्क्स के बाद, दुनिया पहले जैसी नहीं रह गयी। जाहिर है कि दुनिया के पहले जैसा न रह जाने का संबंध, मार्क्स के विचारों के वास्तविक जीवन पर प्रभाव से है। याद रहे कि मार्क्स ने ही कहा था कि विचार जब लोगों के मानस में जड़ जमा लेते हैं, तो वे एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं। मार्क्स के विचारों को ऐसी ही भौतिक शक्ति का रूप लेकर समूचे समाज को ही बदलते, पहले-पहल 1917 में रूस में तथा आगे चलकर दूसरे भी कई देशों में दुनिया ने देखा था। लेकिन, उसकी चर्चा बाद में। सभी जानते हैं कि कार्ल मार्क्स और उनके आजीवन सहयोगी, फ्रेडरिख एंगेल्स ने कम्युनिज्म का, एक वर्गीय शोषण तथा वर्गीय विभाजन से मुक्त समाज का लक्ष्य, मानवता के सामने रखा था। बेशक, ऐसे समाज का सपना उनसे पहले ही अस्तित्व में आ चुका था। पर मार्क्स और एंगेल्स ने इस सपने को यथार्थ की ठोस जमीन पर उतारने का काम किया था। 1884 में प्रकाशित कम्युनिस्ट घोषणापत्र में, जिसकी गिनती आज भी दुनिया की अब तक की सबसे प्रभावशाली पचास पुस्तकों में होती है, पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फैंकने के लिए मजदूर वर्ग के आह्वड्ढान के जरिए, इस क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन को उन्होंने ठोस सामाजिक शक्तियों के एजेंडे पर पहुंचा दिया। लेकिन, मार्क्स और एंगेल्स जैसे उनके संगी, कोई विचारों की दुनिया तक ही सीमित रहने वाले जीव नहीं थे। इसके उलट, उनका तमाम लेखन तथा उनके विचार और वास्तव में उनका पूरा का पूरा जीवन ही, इस सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई का ही अभिन्न हिस्सा था। अचरज नहीं कि वे मजदूर वर्ग के सामने, एक वर्गहीन समाज का लक्ष्य रखने पर नहीं रुक गए। वे खुद भी इस संघर्ष के लिए मजदूरों को संगठित करने के प्रयास में जुट गए। 1864 में स्थापित इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स एसोसिएशन इन्हीं प्रयासों का नतीजा थी। बहरहाल, वर्गहीन समाज के सपने को इस तरह जमीन पर उतारना, सिर्फ किसी बौद्घिक युक्ति या चमत्कार का करिश्मा नहीं था। इसके  विपरीत, मार्क्स-एंगेल्स ने सामाजिक इतिहास के आम नियमों की वैज्ञानिक खोज और उनसे निकलने वाले तत्कालीन समाज की प्रगति के नियमों की ठोस जमीन पर, इस सपने को टिकाया था। इन्हीं नियमों के आधार पर इतिहास की व्याख्या को, ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम जाता है। इसके केंद्र में यह विचार है कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का उद्यम, समाज के विकास की मुख्य चालक शक्ति है। यह उद्यम खुद, उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के संगठन के संदर्भ में ही रूप लेता है, जिनकी समग्रता को उत्पादन पद्घति कहते हैं। इन सभी का बदलाव या विकास होता रहा है और उत्पादन पद्घतियों में गुणात्मक बदलावों के आधार पर, समाज के विकास के अलग-अलग चरणों की पहचान की जा सकती है। उत्पादन पद्घतियों के अनुरूप ही अन्य तमाम सामाजिक संरचनाओं का विकास होता है। यह बदलाव या विकास, वर्ग संघर्ष के आधार पर होने से ही माक्र्स इस निष्कर्ष तक पहुंचे थे कि अब तक का इतिहास, वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है। और यह भी कि पूंजीवादी व्यवस्था  के गर्भ से पैदा हुआ मजदूर वर्ग इस अनोखी स्थिति में है कि वह, इस अर्थ में इतिहास का अतिक्रमण कर, एक वर्गहीन समाज का रास्ता खोल सकता है। यहां आकर वर्गहीन समाज का सपना सिर्फ सदेच्छा का मामला न रहकर, समाज के विकास की एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन जाता है। माक्र्स के विचारों के अमर होने का संबंध सबसे बढ़कर इन विचारों के वैज्ञानिक पद्घति पर आधारित होने से है। इस वैज्ञानिक पद्घति का सार हैरू सामाजिक यथार्थ विशेष के अध्ययनों से, सामाजिक विकास के आम नियमों तक पहुंचना और इन आम नियमों की रौशनी में विश्लेषण के माध्यम से, यथार्थ विशेष की बेहतर समझ हासिल करना। स्वाभाविक रूप से माक्र्स ने अपने समय की पूंजीवादी व्यवस्था का विशद और गहरा अध्ययन किया था। मार्क्स का महाग्रंथ पूंजी इसी का पारिणाम था, जिसका पहला खंड ही माक्र्स के जीवन काल में प्रकाशित हो पाया था और अन्य दो खंड बाद में उनकी छोड़ी पांडुलिपियों से तैयार किए गए थे। इस विशद अध्ययन के फलस्वरूप माक्र्स ने पूंजीवाद की जिन बुनियादी प्रवृत्तियों को रेखांकित किया था, वे आज भी सच हैं। इसके बावजूद, माक्र्स जाहिर है कि पूंजीवाद के उसी रूप की प्रवृत्तियों को देख सकते थे, जो रूप उनके समय तक सामने आ चुका था। पूंजीवाद के रूप के बाद के विकास की पड़ताल करने और उसके आधार पर माक्र्सवाद की पद्घति से बढ़कर उसके निष्कर्षों को अपडेट करने का काम, उनके बाद के माक्र्सवादियों ने किया। लेनिन का नाम इनमें सबसे प्रमुख है, जिन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था के साम्राज्यवादी रूप की पहचान की। माक्र्स उत्तराधिकारियों द्वारा माक्र्सवाद का यही विकास था जिसने पश्चिमी योरप की विकसित पूंजीवादी दुनिया से बाहर, मजदूर-किसान एकता के आधार पर, पूंजीवादी व्यवस्था के अतिक्रमण का रास्ता खोला था। दुनिया की पहली समाजवादी क्रांति, रूसी क्रांति इसी सिलसिले की शुरूआत थी। इसी ने समाजवाद की इस उभरती हुई ताकत और साम्राज्यवादी गुलामी के जुए तले पिसते जनगण की स्वतंत्रता की आकांक्षाओं की, स्वाभाविक मैत्री को संभव बनाया था। पूर्वी योरपीय समाजवादी शिविर के पराभव से पहले तक अंतर्राष्टड्ढ्रीय संबंधों में आम तौर पर इसका असर देखा जा सकता था। नवउदारवाद के बोलबाले के आज के दौर में भी, यह गति कोई पूरी तरह से रुक नहीं गयी है और विश्व पूंजीवाद के मौजूदा संकट के खिलाफ जहां विकसित दुनिया में मेहनतकश बढ़ते पैमाने पर आंदोलित हो रहे हैं, वहीं तीसरी दुनिया के देशों में भी मजदूर-किसान उठ रहे हैं। पड़ौस में नेपाल का ताजा घटनाक्रम इसकी याद दिलाता है। मार्क्स का कभी दावा नहीं था कि उनका कहा ही हर्फे आखिर है। उल्टे वह खुद जीवन भर अपने विचारों का विकास करते रहे थे। परिस्थितियों में बदलाव स्वाभाविक रूप से इन विचारों को नये तत्व जोड़कर समृद्घ करने की मांग करता है। मार्क्स के विचारों के वास्तविक वारिस, इन विचारों का मंत्रजाप करने वाले नहीं बल्कि उन्हें सामाजिक बदलाव का औजार बनाने वाले लोग हैं। उन्हें मार्क्स के विचारों के अपने इसी व्यवहार के तकाजों से, इन विचारों का निरंतर विकास करते रहना होगा। यही मार्क्स के विचारों को अमर बनाएगा। यही 200 वीं सालगिरह पर मार्क्स के लिए सच्ची श्रद्घांजलि होगी।

राजेंद्र शर्मा (साभार : यूएनएस)

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