जनप्रतिनिधियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम फैसला...
अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश आया, जिसमें उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों के सरकारी बंगले को खाली करने को कहा गया। सुप्रीम कोर्ट का यह मानना है कि कोई भी व्यक्ति जब तक पद पर होता है, तभी तक उसकी उस पद के सापेक्ष गरिमा और सुविधाएं होनी चाहिये, पद से हटने के बाद वह आम आदमी होता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी इसी दलील को आधार बनाते हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा द्वारा पारित वह कानून निरस्त कर दिया, जिसके मुताबिक पूर्व मुख्यमंत्रियों को आजीवन सरकारी बंगले में रहने की सुविधा दी गई थी। कोर्ट का कहना है कि किसी को इस आधार पर सरकारी बंगला अलॉट नहीं किया जा सकता कि वह अतीत में किसी सार्वजनिक पद पर रह चुका है। इससे पहले 2016 में भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी आशय का आदेश जारी किया था जिसे बेअसर करने के लिए प्रदेश सरकार ने विधानसभा से नया कानून पारित करवाया। कोर्ट ने सरकार की इस दलील को खारिज कर दिया कि चूंकि सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को जेड प्लस सुरक्षा मिली हुई है, इसलिए उन्हें आवास की सुविधा भी मिलनी चाहिए। अदालत ने सुरक्षा और अन्य प्रोटोकॉल की जरूरत को स्वीकार किया, लेकिन कहा कि इसे सरकारी बंगला आवंटित करने का आधार नहीं बनाया जा सकता।
यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि हाल के दिनों में हमारे जनप्रतिनिधियों में अपने लिए अधिक से अधिक फायदा बटोरने की भावना बहुत तेज हुई है। अपना वेतन और भत्ता बढ़वाने के लिए वे जाने कहां-कहां से तर्क उठा लाते हैं। यह देखने की जहमत नहीं मोल लेते कि जिनका प्रतिनिधि होने के नाते वे तमाम सुविधाएं मांग रहे हैं, वे लोग किन हालात में रहते हैं।
ऐसा ही एक मामला जनप्रतिनिधियों के पेंशन का है। एक विधायक जब एमएलसी बन जाता है या फिर लोकसभा व राज्यसभा के लिए चुन लिया जाता है तो वह जिस भी सदन का सदस्य चुना गया होता है, भले ही उस पद पर बने रहने की अवधि कुछ समय की ही हो, उसे आजीवन पेंशन मिलने लगती है। हैरानी इस बात की है कि वह जिस-जिस सदन का सदस्य रह चुका होता है, उस उस सदन से उसे पेंशन प्राप्त होती है। जनप्रतिनिधियों के मामले को छोड़ दिया जाये तो यह व्यवस्था अन्य किसी भी सरकारी या गैर सरकारी सेवा में नहीं है। यदि पेंशन देने की मजबूरी ही है तो संबंधित जनप्रतिनिधि को एक ही सदन से पेंशन मिलना चाहिये, जिसमें ज्यादा पेंशन मिलती हो। सरकारी सेवा में भी जब कोई अधिकारी या कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर जाता है तो भी उसे उसके मूल कैडर यानी एक ही विभाग से पेंशन प्राप्त होती है। इसी तरह से संसद और विधानमण्डलों की कैंटीन है, जहां बहुत थोड़े से रूपयों में बेहतरीन खाने-पीने की सुविधा मुहैया होती है, जबकि जिस जनता की नुमाइंदगी वे करते हैं, उसको इसका कई गुना भुगतान करने पर भी इतनी अच्छी सुविधा प्राप्त नहीं हो पाती है। ऐसी न जाने कितनी विसंगति देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्याप्त है, जिसे दूर करने की नितांत आवश्यकता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताजा आदेश भले ही यूपी के पूर्व मुख्यमंत्रियों के संदर्भ में दिया गया हो, पर जिन सिद्धांतों और मान्यताओं को इस फैसले का आधार बनाया गया है, वे व्यापक हैं और अन्य राज्यों तथा केंद्र पर भी लागू होते हैं। देखना यह होगा कि हमारी राजनीति सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से आंखें मूंदे बैठी रहती है या इसे शब्दों व भावनाओं के अनुरूप हर स्तर पर लागू करने की पहल करती है।
Please Add your comment
No comments:
Post a Comment
Please share your views