Wednesday, April 4, 2018

Opinion on political campaigning

देश में राजनीतिक विमर्श बदल गया है...   


केन्द्र में भाजपानीत सरकार के आने के बाद से देश के राजनीतिक मिजाज में काफी तब्दीली दर्ज हुई है। राजनीति धर्म, सम्प्रदाय और जाति के इर्द-गिर्द सिमटता जा रहा है। विपक्षी दल भी इसी मनोदशा की शिकार हैं।
  अभी हाल ही सम्पन्न हुए गुजरात का विधानसभा चुनाव इसका प्रमुख उदाहरण है। इस चुनाव में गुजरात का विकास मॉडल गायब था, जो २०१४ के लोकसभा चुनाव में भाजपा का मुख्य मुद्दा था। विधानसभा चुनाव में तो बस मंदिरों की बात हो रही थी। कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के नेताओं के बीच इस बात की होड़ थी कि कौन कितने मंदिरों में जाकर मत्था टेका। हास्यास्पद जैसी बात यह थी कि आस्था दिखाने के चक्कर में जनेऊ तक दिखाने और देखने तक का अध्याय भी लोगों ने देखा। दलित अस्मिता और जाट आरक्षण जैसा मुद्दा भी चुनाव भर खूब गरमाया रहा। अगर किसी बात की चर्चा नहीं हुई तो वह था विकास। शुरूआत भले ही 'विकास पागल हो गयाÓ जैसी बातों से हुआ हो, लेकिन अंत में धर्म, जाति और संप्रदाय ने पूरी तरह से चुनाव को अपने कब्जे में ले लिया।
 यही हाल उसके बाद त्रिपुरा के चुनाव में भी दिखा। यहां भाजपा ने भारी संख्या में नाथ संप्रदाय को अपने पाले में करने के लिए योगी आदित्यनाथ को स्टार प्रचारक के तौर पर इस्तेमाल किया। आदिवासियों को पटाने के लिए वहां के आदिवासी संगठन को अपने साथ मिला लिया। वहां भी विकास के बजाये जातीय और क्षेत्रीय अस्मिता ही मुख्य मुद्दा बना रहा। नागालैण्ड और मेघालय के चुनाव में भी इसी बात पर जोर दिया गया।
  ...और अब कर्नाटक के चुनाव में भी वही कहानी दोहरायी जा रही है। ऐसा लग रहा है कि स्किृप्ट पहले ही लिखी जा चुकी है। यहां का चुनाव में अब विकास की बात नहीं होगी। होगी तो सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म को बांटा जाये या नहीं। लिंगायत समुदाय यहां का सबसे प्रभावशाली और जनसंख्या में भी बहुतायत में है। राजनीतिक दलों में भी यही लिंगायत वोट बैंक को अपने पाले करने की चाहत परवान चढ़ रही हैं। इन दलों का मानना है कि लिंगायत को पाले में करके चुनावी वैतरणी पार की जा सकती है। कांग्रेस हो या भाजपा दोनों दलों का पूरा फोकस अब इसी बात पर है। कल मध्यप्रदेश सरकार ने एक समुदाय के पांच धार्मिक संतों राज्यमंत्री का दर्जा दे दिया। स्पष्टï है कि शिवराज सरकार का यह कदम चुनावी वर्ष में धार्मिक संतों और उनके अनुनाइयों को विधानसभा चुनावों में साधने की कवायद है।
  यह स्थिति प्रजातंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। साथ ही भारतीय संविधान के प्रस्तावना में वर्णित धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र के अनुरूप भी नहीं है। दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में मुंह की खाने के बाद भाजपा ने अपना विकास का मुद्दा पृष्ठ में छोड़ दिया। विपक्षी दल भी इसका प्रतिकार करने के बजाये उसी की राह पर हैं। हर चुनाव में जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर कोई न कोई राग छेड़ दिया जाता है। चूंकि यह भावनात्मक रूप से जनता के वर्ग को संगठित कर देता है, इस कारण राजनीतिक दल इसका फायदा उठाने से नहीं चूक रहे हैं। आम जनता को राजनीतिक दलों के इस व्यवहार को समझना होगा। उसे राजनीतिक दलों के बहकाने में आने के बजाये अपने लिए अच्छी शिक्षा, रोजगार के अवसर, रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए राजनीतिक दलों को जवाबदेही तय करनी होगी। तभी लोकतंत्र को मजबूती मिल पायेगी।

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