शीतयुद्ध के बाद रक्षा सौदों में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी...
पिछले साल 2017 में संसार में हथियारों के निर्माण और खरीद पर 01 हजार 07 सौ बिलियन डालर खर्च हुआ, जिसमें 07 सौ बिलियन डालर से अधिक अकेले अमेरिका का हिस्सा है। अमेरिका ने अपने बाद के 07 देशों के कुल हथियारों पर खर्च से अधिक पैसा अकेले स्वयं खर्च किया है। शीत युद्घ के बाद इतनी बड़ी रकम हथियारों के निर्माण और खरीद पर किसी वर्ष खर्च नहीं हुई थी। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अपनी सेना पर खर्च का जिक्र गर्व से किया था और वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भी उनसे आगे बढ़कर अपनी फौज को सुसज्जित करना चाहते हैं।जिन राष्ट्रों ने अपनी फौज पर अधिक खर्च किया है, उनमें चीन, भारत, रूस, जापान, पाकिस्तान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम और खाड़ी के देश शामिल हैं। इनमें अधिकतर देश वे हैं जहां इस रकम का बेहतर उपयोग होना चाहिये था। भारत, पाकिस्तान और चीन विकासशील देश हैं और इनमें गरीबी रेखा के नीचे भी बड़ी संख्या रहती है। रूस में भी आर्थिक विकास जरूरी है। स्वयं अमेरिका में बहुत गरीबी है और अश्वेत आबादी का बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे है। अमेरिकी शहरों में भी भूखे नंगे लोग मिलते हैं और वहां इतनी बड़ी रकम उस फौज पर खर्च करना, जो पहले से ही बहुत शक्तिशाली है, उचित नहीं लगता। भारत और पाकिस्तान द्वारा बड़ी रकम सेना पर खर्च करना न्यायोचित नहीं लगता। जहां करोड़ों लोग भूखे नंगे हों वहां इतने बड़े पैमाने पर हथियार खरीदने का कार्य केवल संसाधन बर्बादी है।
पश्चिमी देश ये हथियार बेचते हैं और वहीं हथियार बेचे जाने का माहौल भी बनाते हैं। अमेरिका देशों के बीच में दुश्मनी का बीज बोता है और फिर स्वयं हथियार बेचकर उनके संसाधनों का अपने फायदे के लिए दोहन करता है। पिछड़े देशों के नेतृत्व द्वारा हथियार खरीदना अपने गरीब लोगों के साथ ज्यादती है। यह हथियार पड़े-पड़े बेकार हो जाते हैं। पिछले 50 वर्षों से कोई बड़ा युद्ध नहीं हुआ है, जिसमें ये हथियार इस्तेमाल हों। एक जमाने में हास्यास्पद स्थिति यह थी कि अमेरिका, भारत और पाकिस्तान दोनों को हथियार बेचता था और एक-दूसरे के हथियारों से बचाव का साधन भी बेचता था।
खाड़ी के देशों की फौजें इतनी छोटी हैं कि उन्हें अधिक अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता नहीं है, परन्तु अमेरिकी दबाव में यह देश अपने संसाधनों को अपने नागरिकों का जीवन बेहतर बनाने के बजाय हथियार खरीदने में लगाते है। अमेरिकी नेतृत्व की कोशिश होती है कि उनकी शस्त्र की फैक्ट्रियां उन्हीं के पैसों से चलती रहे। कभी-कभी एक-दूसरे से आगे बढ़कर अमेरिका को खुश करने के लिए भी शस्त्र खरीदे जाते हैं। पिछले दिनों जब सऊदी अरब ने सौ बिलियन से अधिक का रक्षा सौदा अमेरिका से किया तो कतर ने भी अच्छी बड़ी रकम का सौदा किया। चार साल पहले जब भारत ने फ्रांस से एक बड़ा रक्षा सौदा किया तो अमेरिका इतना नाराज हुआ कि उसने अपने राजदूत को बुला लिया। फिर भारत द्वारा अमेरिका को भी एक मिलता-जुलता आर्डर देना पड़ा। इस तरह का कार्य इन देशों के नागरिकों के हक पर डाका की तरह है। रक्षा सामग्री बेचने वाले हमेशा ऐसा करते रहेंगे। यह पिछड़े देशों के नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि लड़ाई की बात छोड़कर समझौते और शांति का रास्ता अपनायें और अपने संसाधनों से अपने नागरिकों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने का प्रयास करें।
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