निराश करता है उपचुनावों में कम मतदान प्रतिशत
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या के इस्तीफे से रिक्त हुई सीटों पर आज मतदान संपन्न हो गया, लेकिन मतदाताओं ने इन वीआईपी सीटों पर जो रवैया अपनाया, वह चिंताजनक है। सभी दलों ने इन सीटों पर रिकार्ड वोटों से विजयी होने के दावे किये थे, परन्तु जब वोट ही रिकार्ड दर से नहीं पड़े तो दावे का क्या। निर्वाचन आयोग के मुताबिक शाम पांच बजे तक गोरखपुर में 43 प्रतिशत और फूलपुर में 38 प्रतिशत ही मतदान हो सका। जबकि इस बार दोनों सीटों पर वीवीपीएटी यानी वोटर वेरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल द्वारा मतदान प्रक्रिया को संपन्न कराया गया।इस चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी धुंआधार चुनाव प्रचार किया था। फिर भी इतना कम मतदान प्रतिशत चिंताजनक है। 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा में दिखने वाला जबर्दस्त उत्साह आखिर मतदाताओं का कहां चला गया। कम मतदान प्रतिशत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या की साख पर बट्टा लगाते हैं। आखिरकार मतदाताओं में अचानक इस चुनाव में अरूचि का क्या कारण हो सकते हैं।
ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों ने इस चुनाव में केवल अपने फायदे को ही सामने रखा, जनता और उनके विकास की बातें बेमानी सी थी। भाजपा मतदाताओं को रिझाने में नाकामयाब साबित हुई तो सपा और बसपा के गठबंधन ने भी कोई उत्साह नहीं जगाया। बताया जाता है कि चुनाव के ऐन मौके पर गठबंधन के बजाये डील शब्द के इस्तेमाल ने मतदाताओं को सिर्फ भ्रमित करने का कार्य किया। बसपा के मतदाता जो सुबह सबसे पहले मतदान कर आते थे, वे इस बार कम ही निकले। कांग्रेस के चुनाव लड़ने से गठबंधन जैसी बातें भी बेमानी सी हो गई। जबकि बिहार के उपचुनावों में गठबंधन की मजबूती मतदान प्रतिशत में दिखी और एक लोकसभा व दो विधानसभा सीटों के लिए हुए मतदान में सभी जगह 50 प्रतिशत से अधिक मतदान देखने को मिला। अररिया लोकसभा के लिए 57 प्रतिशत, जहानाबाद विधानसभा के लिए 50.6 तथा भभुआ विधानसभा के लिए 54.3 प्रतिशत मतदान हुआ।
बिहार का मतदान प्रतिशत बताता है कि वहां गठबंधन में विश्वास के भाव ने वोट प्रतिशत को बढ़ाने का कार्य किया। बिहार का उदाहरण लेते हुए उत्तर प्रदेश में भी गठबंधन को राजनीतिक डील न बनाकर जनता के भरोसे पर बनाया जाना उचित होगा। यदि मतदाताओं में राजनीतिक स्थिरता का भाव दिखेगा, राजनीतिक दलों में जनता के लिए लड़ने का भाव दिखेगा तो वे चुनावों न सिर्फ बढ़चढ़कर मतदान करेंगे, बल्कि अपनी भागीदारी भी सुनिश्चित करेंगे। राज्यसभा चुनावों की तरह सपा, बसपा और कांग्रेस का एक साथ आने जैसी स्थिति यदि उपचुनाव में भी दिखा होता तो शायद स्थिति दूसरी होती। फिलहाल निर्वाचन आयोग को भी कम मतदान प्रतिशत पर अपनी मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त करनी होगी।
सत्तासीन भाजपा को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है कि मतदाताओं की मतदान में अरूचि क्यों होने लगी है। क्या उनका सरकारों और चुने हुए प्रतिनिधियों से भरोसा कम हो रहा है। यदि ऐसा है तो इस भरोसे को जगाने की आवश्यकता है। कम मतदान से कहीं न कहीं लोकतंत्र की कमजोरी भी सामने आ रही है। ज्यादा से ज्यादा मतदान ही लोकतंत्र की खूबसूरती है, जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों को यह सोचना पड़ेगा।
कम मतदान लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है.
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