Tuesday, May 15, 2018

Opinion on Increasing rate of petroleum

पेट्रो पदार्थों की बेलगाम कीमतों से आम आदमी की सांसत में इजाफा तय 


अभी हाल ही में कर्नाटक चुनाव प्रचार के खत्म होते ही पेट्रोलियम कम्पनियों ने पेट्रोल और डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्घि कर दी। इस समय इसका मूल्य पिछले चार सालों में अपने सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। पेट्रोलियम पदार्थों में यह तेजी आने वाले समय को कष्टïकारी बनाने के पूरे संकेत देती है। अभी हाल ही में सरकार ने आंकड़ेबाजी कर महंगाई दर के कम होने का दावा किया था, लेकिन पेट्रोलियम पदार्थों के महंगे होने से सरकारी दावा हास्यास्पद लगता है, क्योंकि पेट्रो पदार्थों के महंगे होने से माल ढुलाई से उत्पादन कार्य स्वत: महंगा हो जायेगा और नतीजे में भारी महंगाई से दो-चार होना पड़ेगा।
  वर्तमान में उत्तर प्रदेश में पेट्रोल की कीमत 76 रूपये तक पहुंच गई है, जबकि डीजल की कीमत भी 65 रूपये के रिकार्ड स्तर पर आ गई है। यह भी सच है कि अब पेट्रोलियम के मूल्यों पर सरकारी अंकुश समाप्त हो गया है। पहले 15-15 दिनों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पेट्रोलियम की कीमतों पर समीक्षा के बाद मूल्यों का निर्धारण किया जाता है। यह व्यवस्था तब था जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल की कीमत काफी कम होती थी, लेकिन 15 दिन के समीक्षात्मक अवधि के चलते उपभोक्ताओं को ज्यादा मूल्य देना पड़ता था। अब सरकार ने पेट्रोलियम कंपनियों को मूल्य निर्धारण प्रक्रिया से मुक्त कर दिया है तथा ये कंपनियां रोज नई-नई कीमतों का स्वत: निर्धारण करती हैं। यह भी हास्यास्पद है कि सार्वजनकि क्षेत्र की तीन कंपनियां भारत, इंडियन और हिन्दुस्तान तीनों के दामों में अंतर होता है। भारत अपनी जरूरत या खपत का करीब 80 प्रतिशत तेल आयात करता है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ती है तो इसका भारत की घरेलू अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ता है। पिछले दस महीनों में पेट्रोल नौ रुपए से ज्यादा और डीजल लगभग बारह रुपए महंगा हो चुका है। इस स्थिति ने जहां उपभोक्ताओं के लिए परेशानी खड़ी कर दी है।
  गौरतलब है कि दक्षिण एशियाई देशों में भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमतें सर्वाधिक हैं। इसलिए कि देश में पेट्रोल-डीजल की विपणन दरों में आधी हिस्सेदारी करों की है। इन करों में कटौती क्यों नहीं की जा सकती? जब पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों को नियंत्रण-मुक्त किया गया, तो यह तर्क दिया गया कि अंतत: इससे उपभोक्ताओं को लाभ ही होगा। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत गिरेगी तो पेट्रोल-डीजल का खुदरा मूल्य उन्हें कम चुकाना होगा। सच तो यह है कि ऐसा कभी हुआ ही नहीं, हाल के कुछ महीनों को छोड़ दें तो पिछले साढ़े तीन साल में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत नीचे थी। पर उसका लाभ उपभोक्ताओं को नहीं मिल पाया, क्योंकि कर बढ़ा दिए गए। नवंबर 2014 से जनवरी 2016 के बीच उत्पाद शुल्क में नौ बार बढ़ोतरी की गई। उत्पाद शुल्क में महज एक बार पिछले साल अक्तूबर में दो रुपए प्रति लीटर की कटौती की गई थी। एक बार फिर करों में कटौती की मांग हो रही है। लेकिन तेल पर निर्भरता घटाने और ऊर्जा के दूसरे संसाधनों के विकास पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
   भारत कृषि प्रधान देश है और यह समय जायद और खरीफ की फसलों का है। इस समय किसानों को सिचाई की ज्यादा आवश्यकता होती है और नहरों में पानी नहीं होता। ऐसे में बढ़े डीजल की कीमतों ने किसानों को खेती करने के लिए हतोत्साहित ही करेगा। सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि भारत में पेट्रोलियम पदार्थों की अंधाधुंध मांग बढ़ी है। देश में दो पहिया और चार पहिया वाहनों के उपयोग में बेतहाशा वृद्घि हुई है। स्थिति यह है कि इससे प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रदूषण के मामले में विश्व के टॉप 15 शहरों में 14 भारत से हैं। सरकार ने इसके विकल्प के रूप में कभी कोई ठोस रणनीति नहीं अपनाई। पेट्रो पदार्थों के बजाये सीएनजी का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिससे प्रदूषण के स्तर को कम करने के साथ पेट्रो पदार्थों की खपत का दबाव भी कम होता। दुर्भाग्य से भारत में ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें आसमान छूती जा रही हैं। सरकार न तो इन पर उत्पाद शुल्क घटा रही है और न ही इसके विकल्प पर ही गंभीर दिखती है। यह स्थिति सोचनीय है।
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