Monday, May 14, 2018

American Embassy in Jerusalem

इसराइली अधिकृत येरूशलम में अमेरिकी दूतावास...       


कल अमेरिका ने अपना दूतावास येरूशलम में स्थापित कर दिया। येरूशलम 1967 के अरब-इसराइल युद्ध में इसराइल द्वारा कब्जाया इलाका है, जिसे दुनिया ने फलस्तीनियों के होने वाली राजधानी के रूप में मान्यता दी है। अमेरिका पर भी सुरक्षा परिषद के उन प्रस्तावों की जिम्मेदारी है, जिनमें इसराइल को 1967 के युद्ध के सभी क्षेत्रों से हटने की बात मानी गयी थी। यह दूसरी बात है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प आंख बन्द करके इसराइल के कहने पर अमल कर रहे हैं।
   अमेरिका बराबर कहता रहा है कि उसका इसराइल से 'विशेष रिश्ता' है। दरअसल मध्य-पूर्व में इसराइल उपनिवेशवादी शक्तियों की चौकी की तरह है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब सारे संसार से सम्राज्यवादी शक्तियां सिमट रही थीं, उस समय उन्होंने मध्य-पूर्व में अपने हितों की रक्षा के लिए एक राज्य कायम कराया, जहां यूरोप, रूस और अन्य देशों के पढ़े-लिखे, धनी और शक्तिशाली यहूदी आकर बसे। 21 शताब्दी के शुरू तक फलस्तीन में यहूदी आबादी बहुत कम थी और ब्रिटेन द्वारा बालफोर घोषणा के बाद भी यह आबादी 06 प्रतिशत के करीब ही थी। 1948 में जब राष्ट्र संघ ने फलस्तीन का अरबों और यहूदियों में बंटवारा किया, उस समय भी आबादी की एक चौथाई यहूदियों को फलस्तीन का 52 प्रतिशत दिया गया और अरबों को संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनसे कम क्षेत्र आवंटित किया। फिर यूरोप, अमेरिका से आये यहूदियों ने बड़े पैमाने पर अरबों को उनके घरों से खदेड़ा और लाखों अरब दर-दर की ठोकरें खाने के लिए अपने घरों से निकाल दिये गये। इसराइल के प्रथम प्रधानमंत्री और तथाकथित दार्शनिक डेविड बेनगोरियन ने इसे उचित ठहराते हुए कहा कि इन अरबों को घर से निकाले बिना यहूदी राज्य की परिकल्पना साकार नहीं हो सकती थी। अरब बहुत पिछड़े थे और शिक्षित और सामरिक तौर पर शक्तिशाली यूरोप से आये यहूदियों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं थे। उसके बाद इसराइल धीरे-धीरे अरबों को दिये गये क्षेत्र पर भी कब्जा करने लगा और 1967 में उसने पूरे फलस्तीन पर कब्जा कर लिया। 1945 के संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में यह बात स्पष्ट रूप से कहीं गयी है कि युद्घ में किसी के द्वारा जीतकर कोई क्षेत्र मान्य नहीं होगा, परन्तु ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका हमेशा इस सिद्घान्त को तोड़ते रहे। इस समय 40 लाख से ऊपर फलस्तीनी अरब विभिन्न देशों के शरणार्थी शिविरों पड़े हुए हैं। अमेरिका से कुछ शरणार्थियों को थोड़ी-बहुत खाने पीने की सुविधा मिल जाती थी, वह भी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बन्द कर दिया। फलस्तीनी अरब इसराइल के इस कदम को 'अल नकबा' (द डिजास्टर) कहते हैं और वह भरसक इसराइल की इन हरकतों के खिलाफ लड़ते रहते हैं, जिसे पश्चिमी देश आतंकवाद का नाम देते हैं।
  पिछले कुछ हफ्तों से कुछ फलस्तीनी जिनके घर गाजा-इसराइल सरहद के पास थे, सीमा पर आकर अपने घर जाने का प्रयास करते रहते हैं और इसमें 50 से अधिक फलस्तीनी मारे गये हैं और हजारों घायल हैं। इसराइली फौज इन निहत्थे प्रदर्शनकारियों को मारने में कोई रहम नहीं करती।
  अमेरिका द्वारा अपना दूतावास येरूशलम ले जाने का विरोध सारी दुनिया में हुआ और हो रहा है। दुर्भाग्यवश कुछ अरब देश जैसे सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मिस्र इस समय इसराइल के साथ हैं, क्योंकि उन्हें अपने नागरिकों से बहुत डर लगता है और इसराइल की सुरक्षा उन्हें प्राप्त है। अरबों के लिए इससे बुरा वक्त क्या होगा, जब फलस्तीनी शरणार्थी दाने-दाने को मोहताज है और सबसे महत्वपूर्ण इस्लामी अरब राज्य के युवराज पेरिस में महल और लियोनार्डो द विंसी की पेंटिंग खरीदने में मशगूल हैं। जब उनसे किसी पत्रकार ने इस सम्बन्ध में पूंछा तो उन्होंने बड़े गर्व से कहा कि वह न तो महात्मा गांधी है और न ही नेलशन मण्डेला।
 अमेरिका की मध्य-पूर्व की नीतियां केवल इसराइली हितों को देखती हैं और इसीलिए ईराक और सीरिया बर्बाद किये गये। अमेरिका की कोशिश ईरान को भी ऐसा ही करने का है। डोनाल्ड ट्रम्प को अपने देश के नियो कन्जर्वेटिव, यहूदी लाबी और इवांजलिस लॉबी का समर्थन प्राप्त है।
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