अविश्वास प्रस्ताव में भी अनुत्तरित रह गये जनता के सवाल...
केन्द्र में सत्तासीन मोदी सरकार अपने चार वर्षों के कार्यकाल के खिलाफ लाये गये अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करने में सफल रही। यह पहले से ही तय था, क्योंकि संख्या बल सत्ता के साथ थी और लोकतंत्र में बहुमत ही निर्णायक होता है। परन्तु जिस उम्मीद के साथ यह अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था, सत्तापक्ष की जुमलेबाजी के चलते वह धाराशायी हो गया। विपक्ष के साथ-साथ जनता को भी उन सवालों के जवाब नहीं मिल पाये, जिसके लिए उसे पिछले चार वर्षों से इंतजार था। इतना जरूर रहा कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद न सिर्फ राहुल गांधी ने अपने आप को साबित किया, बल्कि विपक्ष के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरे। शुरूआत में ही उन्होंने टीडीपी और भाजपा के बाद अपने वक्तव्य में जो मुद्दे उठाये, उससे पहली बार प्रधानमंत्री मोदी जी तथा उनके मंत्रिमण्डल को बगले झांकना पड़ा। यह भी लोगों ने देखा कि सत्तापक्ष की टोकाटोकी के बीच सम्पूर्ण विपक्ष राहुल के समर्थन में एकजुट था।
राहुल गांधी ने राफेल डील में धोखाधड़ी और घोटाले का आरोप लगाया और सीधे-सीधे इसके लिए प्रधानमंत्री को आरोपित किया। उन्होंने सदन मे बताया कि संप्रग सरकार ने जिस राफेल को खरीदने के लिए ५०० करोड़ की डील की थी, वहीं मोदी सरकार ने १६०० करोड़ में की। इसका प्रतिवाद खूब किया गया, लेकिन सत्तापक्ष इसका स्पष्टïीकरण नहीं दे सका कि आखिर राफेल डील में कीमत कैसे तीन गुना बढ़ गई। चार वर्षों के कार्यकाल के बाद पहली बार इसी तरह के घोटाले की बू इस अविश्वास प्रस्ताव से खुलकर सामने आयी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अविश्वास प्रस्ताव के जवाब में दिया गया वक्तव्य निराश करने वाला रहा। उन्होंने अपने भाषण में चार वर्ष का कार्यकाल गुजार देने के बाद भी केवल पिछली कांग्रेस सरकार को कोसने का कार्य किया। वे न तो जीएसटी पर कोई जवाब दे पाये और न ही नोटबंदी पर कोई स्पष्टïीकरण। कालेधन का भी मामला उनके भाषण में अछूता रहा। रोजगार सृजन के नाम पर उनका जवाब हास्यास्पद ही था, क्योंकि उन्होंने इसके लिए आटो की बिक्री और डॉक्टर व वकील की डिग्री का जिक्र कर अपने जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया। उन्होंने कहा कि एक आटो बिकने पर तीन लोगों को रोजगार ता मिलता ही है। इसी तरह वकील और डॉक्टर भी अपनी डिग्री लेने के बाद कई लोगों को रोजगार देते हैं। फिलहाल इस तरह के बचकाने जवाब की प्रधानमंत्री से कोई उम्मीद नहीं कर रहा था। इसी तरह मॉब लिंचिंग पर यह कहकर कि सबसे बड़ी मॉब लिंचिंग १९८४ में हुई थी, सरकार बच नहीं सकती। जनता इस पर सरकार का रूख जानना चाहती थी, परन्तु जनता के सवाल अनुत्तरित ही रह गया।
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