पांच दशक पूर्व जब बैंकों राष्ट्रीयकरण किया गया था तब शायद यह उम्मीद थी कि देश का पैसा एक व्यवस्थित और केन्द्रीय सिस्टम में होगा और इस वित्तीय प्रबंधन के चलते देश में विकास की योजनाओं को व्यवस्थित तरीके से चलाने में सफलता मिलेगी। कमोवेश उसका देश के विकास में फायदा भी हुआ और सरकार पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से तमाम विकास कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने का कार्य किया। कल पूरे देश ने बड़ी श्रद्घा के साथ पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जयंती पर उनको याद किया। इंदिरा जी का बैंकों का राष्टï्रीयकरण करने का कदम ऐतिहासिक था। उनका यह कार्य देश के विकास कार्यों के लिए वरदान साबित हुआ और सरकार की नीतियों के अनुरूप पैसे उनकों दिये जाने लगे, जिन्हें वाकई में इसकी जरूरत होती थी। नतीजा यह हुआ कि देश व्यापार के साथ कृषि क्षेत्र में तरक्की के नये-नये आयाम छूने लगा।
करीब चार दशकों तक यह व्यवस्था अपने उद्देश्यों के अनुरूप चलती रही और बैंकिंग सेक्टर का देश के विकास में योगदान सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक में पहुंचने लगा। जगह-जगह बैंकों की शाखाएं खास कर बड़े बैंकों द्वारा ग्रामीण बैंक खोले गये। किसानों को मुख्यधारा में लाया गया। एक तरह से बैंकों का राष्टï्रीयकरण होने से पूरे देश में विकास को पंख लग गये थे। परंतु कहते हैं कि किसी व्यवस्था में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप उसे बर्बाद कर देता है और बैंकिंग व्यवस्था के साथ भी ऐसा ही देखा जा रहा है। सरकारी हस्तक्षेप से बैंकों का एनपीए यानी डूबा हुआ कर्ज दिनोंदिन बढ़ता गया और जो बैंक विकास के लिए प्रतिबद्घ सहयोगी बनकर उभरे थे, वे खुद ही रूग्णता के शिकार होने लगे हैं। पिछले कुछ समय से बैंकों की आर्थिक हालत खस्ता होने लगी है। आरबीआई द्वारा चालू वित्त वर्ष में जारी जुलाई से सितम्बर तिमाही रिपोर्ट में बैंकों का घाटा पिछले वर्ष की तुलना में साढ़े तीन गुना बढ़ चुका है। फंसे कर्ज में लगातार बढ़ोतरी से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल घाटा 14,716.20 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। एक साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन 21 सरकारी बैंकों का कुल घाटा 4,284.45 करोड़ रुपये रहा था।
यह स्थिति देश की अर्थव्यवस्था के साथ वित्तीय प्रबंधन के भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के इस घाटे का सबसे बड़ा और बुरा असर होगा, बैंकों की विश्वस्नीयता पर खतरा। एक आम आदमी बैंक में रखी जमापूंजी को सुरक्षित मानता है, लेकिन बैंकों की वर्तमान हालत देखते हुए लोगों का भरोसा बैंकों से घटेगा और जमापूंजी के प्रवाह में कमी आ सकती है। दूसरा बड़ा नुकसान छोटे लोन लेने वालों को होगा, क्योंकि एनपीए से डरे बैंक अब लोन लेने की प्रक्रिया को सख्त कर देंगे। इससे निश्चित रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में भी बुरा असर पड़ेगा। छोटी-छोटी पूंजी पर आधारित कृषि कार्यों में रूकावट आयेगी। अत: किसानों के सामने भी पूंजी का संकट खड़ा होगा। शेयर मार्केट में इस घाटे के दूरगामी परिणाम होने से अनिश्चिंतता का माहौल बनेगा और छोटे निवेशकों के लिए यह अच्छा नहीं होगा। महंगाई दर के बढऩे की आशंका बढ़ेगी।
इन सबके बीच आरबीआई और सरकार का आपसी विवाद सतह पर है। इससे बैंकिंग व्यवस्था पूरी तरह से सहमा हुआ है। ऊंट किस करवट बैठेगा, कुछ कहना मुश्किल है। सरकार आरबीआई पर लगाम कसने की कोशिश में है। इसका सीधा प्रभाव सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों पर भी पडऩे वाला है। 2016 में की गई नोटबंदी की मार बैंकों की बैलेंस शीट पहले से ही गड़बड़ा चुकी है। यदि सरकार बैंकों के निमित्त कोई बेहतर प्रबंधन नहीं करती है तो आने वाले समय में विकास के लिए अहम इस व्यवस्था में घुन लगने से नहीं बचाया जा सकेगा।
करीब चार दशकों तक यह व्यवस्था अपने उद्देश्यों के अनुरूप चलती रही और बैंकिंग सेक्टर का देश के विकास में योगदान सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों तक में पहुंचने लगा। जगह-जगह बैंकों की शाखाएं खास कर बड़े बैंकों द्वारा ग्रामीण बैंक खोले गये। किसानों को मुख्यधारा में लाया गया। एक तरह से बैंकों का राष्टï्रीयकरण होने से पूरे देश में विकास को पंख लग गये थे। परंतु कहते हैं कि किसी व्यवस्था में जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप उसे बर्बाद कर देता है और बैंकिंग व्यवस्था के साथ भी ऐसा ही देखा जा रहा है। सरकारी हस्तक्षेप से बैंकों का एनपीए यानी डूबा हुआ कर्ज दिनोंदिन बढ़ता गया और जो बैंक विकास के लिए प्रतिबद्घ सहयोगी बनकर उभरे थे, वे खुद ही रूग्णता के शिकार होने लगे हैं। पिछले कुछ समय से बैंकों की आर्थिक हालत खस्ता होने लगी है। आरबीआई द्वारा चालू वित्त वर्ष में जारी जुलाई से सितम्बर तिमाही रिपोर्ट में बैंकों का घाटा पिछले वर्ष की तुलना में साढ़े तीन गुना बढ़ चुका है। फंसे कर्ज में लगातार बढ़ोतरी से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल घाटा 14,716.20 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। एक साल पहले सार्वजनिक क्षेत्र के इन 21 सरकारी बैंकों का कुल घाटा 4,284.45 करोड़ रुपये रहा था।
यह स्थिति देश की अर्थव्यवस्था के साथ वित्तीय प्रबंधन के भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के इस घाटे का सबसे बड़ा और बुरा असर होगा, बैंकों की विश्वस्नीयता पर खतरा। एक आम आदमी बैंक में रखी जमापूंजी को सुरक्षित मानता है, लेकिन बैंकों की वर्तमान हालत देखते हुए लोगों का भरोसा बैंकों से घटेगा और जमापूंजी के प्रवाह में कमी आ सकती है। दूसरा बड़ा नुकसान छोटे लोन लेने वालों को होगा, क्योंकि एनपीए से डरे बैंक अब लोन लेने की प्रक्रिया को सख्त कर देंगे। इससे निश्चित रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में भी बुरा असर पड़ेगा। छोटी-छोटी पूंजी पर आधारित कृषि कार्यों में रूकावट आयेगी। अत: किसानों के सामने भी पूंजी का संकट खड़ा होगा। शेयर मार्केट में इस घाटे के दूरगामी परिणाम होने से अनिश्चिंतता का माहौल बनेगा और छोटे निवेशकों के लिए यह अच्छा नहीं होगा। महंगाई दर के बढऩे की आशंका बढ़ेगी।
इन सबके बीच आरबीआई और सरकार का आपसी विवाद सतह पर है। इससे बैंकिंग व्यवस्था पूरी तरह से सहमा हुआ है। ऊंट किस करवट बैठेगा, कुछ कहना मुश्किल है। सरकार आरबीआई पर लगाम कसने की कोशिश में है। इसका सीधा प्रभाव सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों पर भी पडऩे वाला है। 2016 में की गई नोटबंदी की मार बैंकों की बैलेंस शीट पहले से ही गड़बड़ा चुकी है। यदि सरकार बैंकों के निमित्त कोई बेहतर प्रबंधन नहीं करती है तो आने वाले समय में विकास के लिए अहम इस व्यवस्था में घुन लगने से नहीं बचाया जा सकेगा।
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