इसे इत्तेफाक कहें या कुछ और कि एक तरफ नई दिल्ली में शनिवार को सुबह सपा-बसपा गठबंधन की बैठक चली और दूसरी तरफ दोपहर होते-होते यूपी के कई ठिकानों पर धड़ाधड़ सीबीआई के छापे पड़ गए। एक ओर फैसला हुआ कि यूपी में आगामी लोकसभा चुनावों में सपा और बसपा 37-37 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी और दूसरी ओर शाम तक सीबीआई ने अवैध खनन के मामले में सपाविधायक रमेश मिश्रा और उनके भाई दिनेश कुमार को आरोपी बना दिया। सीबीआई की यह कार्रवाई अवैध रेत खनन मामले से जुड़ी है। हमीरपुर, नोएडा, लखनऊ और कानपुर समेत अन्य इलाकों में की गई छापेमारी में क्या बरामद हुआ, अभी यह साफ नहीं है, लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि आईएएस अधिकारी बी. चंद्रकला से जुड़ी इस कार्रवाई के तार पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से जुड़ते दिख रहे हैं, क्योंकि अवैध खनन का मामला उस वक्त का है, जब तत्कालीन सीएम अखिलेश यादव के पास खनन मंत्रालय की भी जिम्मेदारी थी। बात तो यहां तक हो रही है कि इस मामले में अखिलेश यादव की भूमिका की जांच की जाएगी और जांच एजेंसी उनसे पूछताछ भी कर सकती है।
नि:संदेह पिजड़े में बंद तोता के रूप में प्रसिद्घ हो चुकी सीबीआई की अचानक इस तेजी से हर कोई चकित था। आपसी द्वंद में फंसी सीबीआई की यह तेजी जानकारों के लिए अप्रत्यासित थी। अगले कुछ दिनों में और भी इसी तरह की कार्रवाई देखने को मिल सकती है। जैसा कि अखिलेश यादव ने छापे के तुरन्त बाद अपनी पत्रकार वार्ता में स्पष्ट किया कि यूपी में सपा-बसपा गठबंधन को तोडऩे के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया जा रहा है। सच्चाई क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन छापे की टाइमिंग अखिलेश यादव की दलीलों को मजबूती देती दिखती है। वैसे सच तो यह है कि केन्द्रीय शासक दल भाजपा को यूपी में सपा और बसपा का महागठबंधन खतरे की घंटी लगती है। भाजपा बहुत पहले से ऐसे किसी गठबंधन को रोकने के लिए प्रयासरत रही है, क्योंकि इस गठबंधन की मौन स्वीकृति से ही भाजपा का मजबूत और अभेद्य दुर्ग रहा गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव के समय केन्द्र और प्रदेश में सरकार रहते भरभरा कर ढह गया था। अब जबकि कुछ एक महीने में लोकसभा चुनाव होने वाला है तो यह गठबंधन केन्द्रीय शासक दल के लिए चिन्ता का विषय तो है।
अखिलेश यादव की दलीलों में दम इस बात से भी लगता है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा सीबीआई का दुरूपयोग पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा के पूर्व अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव आय से अधिक संपत्ति के मामले में फंस चुके हैं। ये और बात है कि इन दोनों नेताओं के खिलाफ जांच में सीबीआई खाली हाथ थी और अंतत: मामले को बन्द करना पड़ा था।
वैसे अखिलेश यादव का कार्यकाल बेदाग माना जाता रहा है। उनके समय में विकास के काफी कार्य कराये गये थे। उन्होंने बाद में खनन मंत्री बने गायत्री प्रजापति को खनन में अनियमितता की बुनियाद पर मंत्रीमण्डल से हटाया था, जिस पर मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव उनसे नाराज भी हुए थे। केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद अब साढ़े चार वर्ष बीत चुके हैं, तब जाकर उन पर कार्रवाई शक की बुनियाद को मजबूत करती है। हो सकता है कि दूसरे नेताओं की तरह अखिलेश यादव भी अगले कुछ वर्षों की जांच में बरी हो जाये, लेकिन यह मुद्दा लोकसभा चुनाव प्रभावित करने वाला जरूर रहेगा। खनन घोटाले का नाम से इस मामले को चुनाव में भुनाने की कोशिश भी होगी। यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की दूसरी सहयोगी पार्टी बसपा के खिलाफ भी आने वाले समय में कुछ ऐसी ही कार्यवाही देखने को मिले, क्योंकि यह गठबंधन भाजपा की राजनीति के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। भाजपा नेतृत्व को स्पष्ट पता है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में पिछडऩे पर केन्द्रीय सत्ता की डोर खिसक जायेगी।
नि:संदेह पिजड़े में बंद तोता के रूप में प्रसिद्घ हो चुकी सीबीआई की अचानक इस तेजी से हर कोई चकित था। आपसी द्वंद में फंसी सीबीआई की यह तेजी जानकारों के लिए अप्रत्यासित थी। अगले कुछ दिनों में और भी इसी तरह की कार्रवाई देखने को मिल सकती है। जैसा कि अखिलेश यादव ने छापे के तुरन्त बाद अपनी पत्रकार वार्ता में स्पष्ट किया कि यूपी में सपा-बसपा गठबंधन को तोडऩे के लिए सीबीआई का इस्तेमाल किया जा रहा है। सच्चाई क्या है यह तो जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन छापे की टाइमिंग अखिलेश यादव की दलीलों को मजबूती देती दिखती है। वैसे सच तो यह है कि केन्द्रीय शासक दल भाजपा को यूपी में सपा और बसपा का महागठबंधन खतरे की घंटी लगती है। भाजपा बहुत पहले से ऐसे किसी गठबंधन को रोकने के लिए प्रयासरत रही है, क्योंकि इस गठबंधन की मौन स्वीकृति से ही भाजपा का मजबूत और अभेद्य दुर्ग रहा गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव के समय केन्द्र और प्रदेश में सरकार रहते भरभरा कर ढह गया था। अब जबकि कुछ एक महीने में लोकसभा चुनाव होने वाला है तो यह गठबंधन केन्द्रीय शासक दल के लिए चिन्ता का विषय तो है।
अखिलेश यादव की दलीलों में दम इस बात से भी लगता है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा सीबीआई का दुरूपयोग पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा के पूर्व अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव आय से अधिक संपत्ति के मामले में फंस चुके हैं। ये और बात है कि इन दोनों नेताओं के खिलाफ जांच में सीबीआई खाली हाथ थी और अंतत: मामले को बन्द करना पड़ा था।
वैसे अखिलेश यादव का कार्यकाल बेदाग माना जाता रहा है। उनके समय में विकास के काफी कार्य कराये गये थे। उन्होंने बाद में खनन मंत्री बने गायत्री प्रजापति को खनन में अनियमितता की बुनियाद पर मंत्रीमण्डल से हटाया था, जिस पर मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव उनसे नाराज भी हुए थे। केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद अब साढ़े चार वर्ष बीत चुके हैं, तब जाकर उन पर कार्रवाई शक की बुनियाद को मजबूत करती है। हो सकता है कि दूसरे नेताओं की तरह अखिलेश यादव भी अगले कुछ वर्षों की जांच में बरी हो जाये, लेकिन यह मुद्दा लोकसभा चुनाव प्रभावित करने वाला जरूर रहेगा। खनन घोटाले का नाम से इस मामले को चुनाव में भुनाने की कोशिश भी होगी। यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की दूसरी सहयोगी पार्टी बसपा के खिलाफ भी आने वाले समय में कुछ ऐसी ही कार्यवाही देखने को मिले, क्योंकि यह गठबंधन भाजपा की राजनीति के लिए हानिकारक साबित हो सकता है। भाजपा नेतृत्व को स्पष्ट पता है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनावों में पिछडऩे पर केन्द्रीय सत्ता की डोर खिसक जायेगी।
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