मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव से पहले बड़ा दांव चलते हुए आर्थिक तौर पर पिछड़े सवर्णों को सरकारी नौकरी और शिक्षा में 10 फीसदी आरक्षण के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। संविधान संशोधन विधेयक वाला यह प्रस्ताव लोकसभा में भारी बहुमत से पास भी हो गया। आज इसे राज्यसभा में भी पेश किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने के बाद मोदी सरकार ने यह यह नई चुनावी चाल है, क्योंकि सवर्णों को पहले से ही 50 प्रतिशत से अधिक का आरक्षण प्राप्त है। ऐसे में दो सवाल उभरकर सामने आते हैं। पहला- सवर्णों को आरक्षण की मंजूरी क्यों देनी पड़ी और दूसरा- आरक्षण के इस दांव से बीजेपी को क्या लाभ होगा।
2014 में सवर्णों ने बीजेपी को छप्पर फाड़कर वोट दिया था। बीजेपी जब से अस्तित्व में आई है तभी से उसकी एक पहचान रही है- ब्राह्मण, बनिया की पार्टी। मतलब सवर्ण वोटर शुरू से बीजेपी का कोर वोटर रहा है। 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद बीजेपी को कोर वोटर यानी सवर्ण मतदाता का वोट पहले कहीं ज्यादा मिला। मतलब सवर्ण समाज ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी की पर अटल-आडवाणी की बीजेपी से भी ज्यादा भरोसा किया और बंपर वोट देकर पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। लोकनीति सर्वे के मुताबिक, 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगियों को करीब 56 प्रतिशत सवर्ण मतदाताओं का वोट प्राप्त हुआ। 2009 लोकसभा चुनाव के परिणामों से तुलना करें तो यह 30 प्रतिशत ज्यादा था। 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 19 प्रतिशत सवर्णों का वोट मिला था। 2009 लोकसभा चुनाव में बीजेपी हार गई थी, कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई थी, लेकिन तब भी बीजेपी और कांग्रेस का अपर कास्ट वोट प्रतिशत एकदम बराबर था। मतलब बुरे समय में सवर्ण मतदाताओं ने बीजेपी का साथ नहीं छोड़ा। लोकनीति सर्वे में सबसे अहम बात जो सामने आई, वह यह रही कि बीजेपी के हिंदी हार्टलैंड में अपर कास्ट वोट सबसे ज्यादा शिफ्ट हुआ। जैसे- बिहार और उत्तर प्रदेश। बिहार में बीजेपी का अपर कास्ट वोट 2009 की तुलना में 2014 में 14 प्रतिशत बढ़ा। यह वोट कांग्रेस से शिफ्ट होकर सीधे बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के पक्ष में गया। ऐसा ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में देखा गया।
मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद अपर कास्ट वोटर बीजेपी से लगातार दूर जा रहा था। मोदी सरकार के दो फैसले अपर कास्ट को सबसे ज्यादा नागवार गुजरे। यहां तक कि पार्टी के भीतर सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी का मुद्दा जोर पकडऩे लगा। यहां तक कि तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसका असर भी दिखा। मोदी सरकार के दो अहम फैसले सवर्णों को नागवार गुजरे। नंबर एक- दलितों की नाराजगी दूर करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार एससी/एसटी एक्ट को मूल स्वरूप में बहाल करने के लिए संशोधन विधेयक लाई और उसे पास कराया। नंबर दो- सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन में रिजर्वेशन दिए जाने के पक्ष में मोदी सरकार खड़ी है। इन दो फैसलों ने सवर्ण मतदाता को नाराज कर दिया, जिससे पार्टी के भीतर हलचल मची हुई थी। ऐसे में सवर्ण वोटरों को लुभाने के लिए बीजेपी को कोई न कोई बड़ा कदम उठाना ही था। उसी की परिणति यह सवर्ण वोटरों को लुभाने के लिए आरक्षण का दांव लगता है।
वैसे सरकार आने के बाद सबसे बड़ा सवाल रोजगार का था, जो कि मोदी सरकार देने में पूर्णत: विफल रही। सेंटर फार मानीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में लोगों को नौकरी मिलने के बजाये 1.10 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी। अत: रोजगार का मुद्दा अहम था, इसे आरक्षण के दांव से कितना भुलाया जा सकेगा, यह भविष्य के गर्त में है। फिर भी यह मुद्दा चुनावी दांव ही प्रतीत होता है।
2014 में सवर्णों ने बीजेपी को छप्पर फाड़कर वोट दिया था। बीजेपी जब से अस्तित्व में आई है तभी से उसकी एक पहचान रही है- ब्राह्मण, बनिया की पार्टी। मतलब सवर्ण वोटर शुरू से बीजेपी का कोर वोटर रहा है। 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर आने के बाद बीजेपी को कोर वोटर यानी सवर्ण मतदाता का वोट पहले कहीं ज्यादा मिला। मतलब सवर्ण समाज ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी की पर अटल-आडवाणी की बीजेपी से भी ज्यादा भरोसा किया और बंपर वोट देकर पुराने सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले। लोकनीति सर्वे के मुताबिक, 2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी और उसके सहयोगियों को करीब 56 प्रतिशत सवर्ण मतदाताओं का वोट प्राप्त हुआ। 2009 लोकसभा चुनाव के परिणामों से तुलना करें तो यह 30 प्रतिशत ज्यादा था। 2014 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 19 प्रतिशत सवर्णों का वोट मिला था। 2009 लोकसभा चुनाव में बीजेपी हार गई थी, कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई थी, लेकिन तब भी बीजेपी और कांग्रेस का अपर कास्ट वोट प्रतिशत एकदम बराबर था। मतलब बुरे समय में सवर्ण मतदाताओं ने बीजेपी का साथ नहीं छोड़ा। लोकनीति सर्वे में सबसे अहम बात जो सामने आई, वह यह रही कि बीजेपी के हिंदी हार्टलैंड में अपर कास्ट वोट सबसे ज्यादा शिफ्ट हुआ। जैसे- बिहार और उत्तर प्रदेश। बिहार में बीजेपी का अपर कास्ट वोट 2009 की तुलना में 2014 में 14 प्रतिशत बढ़ा। यह वोट कांग्रेस से शिफ्ट होकर सीधे बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन के पक्ष में गया। ऐसा ही उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में देखा गया।
मोदी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद अपर कास्ट वोटर बीजेपी से लगातार दूर जा रहा था। मोदी सरकार के दो फैसले अपर कास्ट को सबसे ज्यादा नागवार गुजरे। यहां तक कि पार्टी के भीतर सवर्ण मतदाताओं की नाराजगी का मुद्दा जोर पकडऩे लगा। यहां तक कि तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसका असर भी दिखा। मोदी सरकार के दो अहम फैसले सवर्णों को नागवार गुजरे। नंबर एक- दलितों की नाराजगी दूर करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार एससी/एसटी एक्ट को मूल स्वरूप में बहाल करने के लिए संशोधन विधेयक लाई और उसे पास कराया। नंबर दो- सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन में रिजर्वेशन दिए जाने के पक्ष में मोदी सरकार खड़ी है। इन दो फैसलों ने सवर्ण मतदाता को नाराज कर दिया, जिससे पार्टी के भीतर हलचल मची हुई थी। ऐसे में सवर्ण वोटरों को लुभाने के लिए बीजेपी को कोई न कोई बड़ा कदम उठाना ही था। उसी की परिणति यह सवर्ण वोटरों को लुभाने के लिए आरक्षण का दांव लगता है।
वैसे सरकार आने के बाद सबसे बड़ा सवाल रोजगार का था, जो कि मोदी सरकार देने में पूर्णत: विफल रही। सेंटर फार मानीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में लोगों को नौकरी मिलने के बजाये 1.10 करोड़ लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी। अत: रोजगार का मुद्दा अहम था, इसे आरक्षण के दांव से कितना भुलाया जा सकेगा, यह भविष्य के गर्त में है। फिर भी यह मुद्दा चुनावी दांव ही प्रतीत होता है।
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