Monday, January 28, 2019

यूपी में गठबंधन से रोचक होती दिल्ली की पॉलिटिक्स

उत्तर प्रदेश की करवट लेती राजनीति का प्रभाव दूरगामी नजर आ रहा है। प्रदेश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों सपा और बसपा की कांग्रेस के प्रति बेरूखी उसे राजनीति में भाजपा की तरह अछूत की श्रेणी में ला दिया। स्पष्ट है कि सपा और बसपा के गठबंधन में कांग्रेस की अनदेखी राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा संदेश देने वाली है। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सकी है और यदि थोड़ा सा भी विपरीत परिस्थिति आयी तो चुनाव बाद भी कांग्रेस की राह आसान नहीं होगी, क्योंकि अब ऐसा लगता है कि क्षेत्रीय स्तर पर दखल देने वाली पार्टियां चुनाव बाद सरकार बनाने में भी कांग्रेस की अनदेखी कर सकती है।
हालांकि यह सब अचानक नहीं हुआ है। देश और प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस का अप्रासंगिक होना उसकी ही अदूरदर्शी राजनीति का परिणाम है। असल में इससे पहले तीन प्रदेशों छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों ने गठबंधन के लिए हाथ बढ़ाया तो कांग्रेस की बेरूखी ने लोकसभा चुनाव में उसकी राह मुश्किल कर दी। यही नहीं कर्नाटक में ज्यादा सीटें पाने के बाद अपने प्रतिद्वंदी क्षेत्रीय पार्टी जद एस को सरकार की कमान सौंप देना भी उसके लिए भविष्य की राहें तय कर दी। अब क्षेत्रीय दल समझते हैं कि परिस्थितियां विपरीत होने पर देश की सत्ता उन्हीं केे हाथ में आने वाली है। इस कारण भी कोई कांग्रेस को अपने साथ नहीं लेना चाहता है। यदि कांग्रेस किसी गठबंधन में शामिल होगी तो कम सीटों के बावजूद अन्य दलों की सीटें भी उसके खाते में जोड़ी जाएंगी, जो कांग्रेस के लिए रणनीतिक जीत होगी। इस कारण भी उसे क्षेत्रीय दल ज्यादा तवज्जो देने के मूड में नहीं है।
जैसा कि उत्तर प्रदेश में देखा जा सकता है। सपा-बसपा गठबंधन तय हो चुका है। दोनों दल प्रदेश की 37-37 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। चार सीटें राष्ट्रीय लोकदल के खाते में गई है। जबकि अमेठी और रायबरेली सीट पर राहुल और सोनिया गांधी के चुनाव लड़ने की दशा में ये सपा और बसपा अपने उम्मीदवार नहीं खड़े करेंगे। बताया जाता है कि ये दोनों दल इसी माह के अंत तक अपने अपने उम्मीदवार भी घोषित कर देंगे। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने गठबंधन में शामिल नहीं होना चाहा, उसने इसके लिए तमाम जतन किये। सबसे पहले तो कांग्रेस ने सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। ये और बात है कि कुछ एक सीटों को छोड़ दिया जाये तो उसके पास ढंग के उम्मीदवारों का टोटा है। पार्टी में प्रियंका गांधी को शामिल किया जाना और उन्हें पूर्वी यूपी का कमान दिया जाना भी एक तरह से गठबंधन पर राजनीतिक दबाव डालने जैसा ही था। परंतु ऐसा लगता है कि इसका भी प्रभाव गठबंधन पर बेअसर ही रहा है। 
वैसे भारतीय राजनीति में सपा-बसपा का गठबंधन ऐतिहासिक कहा जा सकता है। दोनों पार्टियों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीति करने के तरीके भी अलग-अलग हैं। इन दोनों का गठबंधन निश्चित रूप से भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है और यह बात पिछले उपचुनावों के सकारात्मक परिणामों ने साबित कर दिया।
साल 2014 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट शेयर जहां 42.6 प्रतिशत था, तो वहीं सपा-बसपा का मिलाकर भी 42 प्रतिशत था। यानी अगर इस समीकरण को देखें, तो सपा-बसपा गठबंधन और भाजपा के बीच बराबरी की लड़ाई हो सकती है। यह भी सही है कि 2014 से 2019 तक में बहुत कुछ बदल चुका है। अब प्रदेश में मोदी लहर नहीं है और भाजपा के सामने सपा-बसपा का मजबूत गठबंधन, जो कि प्रदेश की 80 फीसदी सीटों प्रदर्शन के लिहाज से बेहतर साबित हो सकता है। 
एक बात और भी कही जा रही है। राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस का गठबंधन में न शामिल किया जाना, भाजपा के लिए राहें मुश्किल करने वाला साबित होगा। दरअसल वोट बैंक की बात करें तो कांग्रेस का प्रभाव ज्यादातर सवर्ण, दलित और मुस्लिम समुदाय में माना जाता है। अब वर्तमान में बात करें तो दलित मतों का ज्यादातर हिस्सा कांग्रेस से छिटककर बसपा के निकट जा चुका है। मुस्लिम मतों की बात करें तो 90 के दशक से उनका रूझान उस दल या गठबंधन की तरफ होता है, जो भाजपा को हराने में कामयाब हो सके। रही बात सवर्ण मतों की तो वह भाजपा का भी वोट बैंक है और यदि थोड़े भी मत कांग्रेस हथियाने में कामयाब होती है तो यह सीधे-सीधे भाजपा को नुकसान देने वाली स्थिति होगी। जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के ज्यादातर हिस्से पर सपा और दलित वर्ग पर बसपा की मजबूत पकड़ अभी भी बरकरार है।
मौजूदा तथ्यों से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राजनीति में अप्रासंगिक होती जा रही है, जबकि भाजपा के लिए अब चुनावी फतह का रास्ता सीधा नहीं रहा है। उसे हर सीट कठिन चुनौती मिलने जा रही है। 
भारतीय राजनीति में यह कहावत बहुत पहले से ही कही जाती है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। इस लोकसभा चुनाव में भी यह बात सही साबित हो सकती है। चुनाव बाद के परिदृश्य में यदि गठबंधन सफल हुआ, जिसकी संभावना काफी है तो दिल्ली में भाजपा की राह मुश्किल हो जाएगी और कांग्रेस की राह भी आसान नहीं रहेगी, क्योंकि उसकी सीटों में क्षेत्रीय दलों का बहुत बड़ा हिस्सा शामिल नहीं होगा। अतः यहां के गठबंधन से दिल्ली की पालिटिक्स बहुत रोचक होने जा रही है।

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