Thursday, January 10, 2019

जॉब चाहिए, जुमला नहीं

योगेंद्र यादव
अध्यक्ष, स्वराज इंडिया
देरी से ही सही, जाते-जाते मोदी जी एक सर्जिकल स्ट्राइक कर गये. एक बेरोजगार युवक संसद में सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण के संविधान संशोधन की खबर पढ़ रहा था. मुझसे रहा नहीं गया-भाई यह सर्जिकल स्ट्राइक नहीं, यह तो खाली कारतूस चलाया है. सिर्फ देरी से नहीं, गलत निशाने पर चलाया है. सबको पता है कि लागू नहीं हो सकता. और लागू हो गया तो एक भी गरीब सवर्ण को इससे नौकरी मिलनेवाली नहीं है. मेरी बात सुनकर वह चौंका, अंकल, बाकी बात बाद में. पहले यह बताइए कि इस देश में सवर्ण भी गरीब है या नहीं है? या कि शिक्षा और नौकरी के सारे अवसर सिर्फ एससी-एसटी और ओबीसी के लिए ही होंगे? अब मेरी बारी थी, बेटा, इसमें कोई शक नहीं कि देश की अधिकांश सवर्ण जातियों के अधिकांश परिवार तंगी में जीते हैं. दिल्ली में रिक्शा चलाने या मजदूरी का काम करने जो लोग बिहार से आते हैं, उनमें बड़ी संख्या सवर्ण जातियों की होती है. सारे देश में रोजगार का संकट है, सवर्ण समाज को भी रोजगार का संकट है. इसके लिए आरक्षण चाहिए या नहीं, इसकी चर्चा बाद में कर लेंगे. लेकिन उन्हें काम चाहिए, रोजगार चाहिए, नौकरी चाहिए और अभी चाहिए. अगर कोई सरकार उनके लिए कुछ भी करे, तो उसका स्वागत होना चाहिए. लड़के को ढाढस बंधा, तो आप को सरकार की घोषणा का स्वागत करना चाहिए. देश में पहली बार किसी को सवर्ण गरीब की याद तो आयी! मैंने उसे याद दिलाया- श्यह घोषणा सिर्फ सवर्ण समाज के लिए नहीं है. मुसलमान, ईसाई और सिख जो भी आरक्षण के तहत नहीं आते, उन सब सामान्य वर्गों के गरीब इसके दायरे में आयेंगे. और ना ही यह पहली बार हुई है. आज से 27 साल पहले सितंबर 1991 में नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े हुए सामान्य वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का आदेश जारी किया था. उस आदेश का वही हुआ था, जो इस आदेश का होगा. उस सरकारी आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी. सन 1992 के अपने ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की संवैधानिक बेंच ने सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए किये गये इस आरक्षण को दो आधार पर अवैध और असंवैधानिक घोषित किया. पहला तो इसलिए कि हमारे संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है. केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण करना हमारे संविधान के प्रावधानों और आरक्षण की भावना के खिलाफ है. दूसरा, इस आधार पर कि आर्थिक आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण देने से कुल आरक्षण 59 प्रतिशत हो जायेगा, जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा है. जो आपत्ति तब थी, वह आपत्ति आज भी मान्य होगी. लेकिन इस बार तो सरकार संविधान में संशोधन कर रही है. सभी बड़ी पार्टियों ने संसद में इसका समर्थन किया है. फिर तो सुप्रीम कोर्ट को मानना ही होगा. उसने काफी उम्मीद के साथ कहा. मैंने उसे समझाया- संविधान संशोधन पेचीदा और लंबा मामला है. पहले लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत चाहिए फिर राज्यों में विधानसभा से पास करवाना होगा. और संशोधन हो भी गया, तो भी सुप्रीम कोर्ट उसे खारिज कर सकता है. शायद करेगा भी.
मान लीजिए संशोधन हो जाये, सुप्रीम कोर्ट स्वीकार भी कर ले, तो भी इससे सामान्य वर्ग के सचमुच गरीबों को कोई फायदा नहीं मिलेगा. सरकार ने इस आरक्षण के लिए गरीब की परिभाषा अजीब बना दी है. जो इनकम टैक्स में 8 लाख तक की आमदनी दिखाये या जिसके पास 5 एकड़ तक जमीन हो या बड़ा मकान ना हो, उन सबको गरीब माना जायेगा. मतलब यह कि हर महीने एक लाख से अधिक तनख्वाह पानेवाले या बहुत बड़े किसानों और व्यापारियों को छोड़कर लगभग सभी सामान्य वर्ग के लोग इस आरक्षण के हकदार हो जायेंगे. मजदूर या रिक्शावाले के बेटे को वकील और अध्यापक के बच्चे के साथ इस 10 प्रतिशत आरक्षण के लिए मुकाबला करना होगा. अगर ये गरीब हैं, तो सामान्य वर्ग के लिए जो 51 प्रतिशत सीट खुली है, उसमें से एक बड़ा हिस्सा तो इस श्गरीब सामान्य वर्गश् को मिल रहा होगा. जिसे बिना आरक्षण के आज भी 20 या 30 प्रतिशत नौकरियां मिल रही हैं, उसे 10 प्रतिशत आरक्षण देने से क्या मिलेगा? कागज पर आरक्षण रहेगा, लेकिन पहले से भर जायेगा, और एक भी व्यक्ति को नौकरी देने की जरूरत नहीं होगी. अब उसके चेहरे पर निराशा थी- श्यह सब तो सरकार को भी पता होगा. तो फिर सरकार यह घोषणा क्यों कर रही है?श् जवाब उसे भी पता था मुझे भी. मोदी सरकार आज वही तिकड़म खेल रही है, जो पांच साल पहले मनमोहन सिंह सरकार ने जाट आरक्षण को लेकर खेली थी. उसे पता था कि कानूनी तरीके से जाटों को आरक्षण देना संभव नहीं था, फिर भी उसने चुनाव से कुछ महीने पहले आरक्षण की घोषणा कर दी. बीजेपी ने भी समर्थन कर दिया. दोनों को पता था कि सुप्रीम कोर्ट तो खारिज करेगा, लेकिन वह तो चुनाव के बाद देखा जायेगा. वही हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव बाद जाट आरक्षण को खारिज कर दिया और जनता ने कांग्रेस को भी खारिज कर दिया. इस बार भी वही खेल हो रहा है. बीजेपी को चुनावी हार दिख रही है. वह जान-बूझकर ऐसे प्रस्ताव ला रही है, जिससे किसी को कुछ मिलना नहीं है, बस चुनाव के वक्त ध्यान बंट जायेगा. कांग्रेस भी खेल खेल रही है कि हम विरोध कर के बुरे क्यों बनें. इसलिए समर्थन कर रही है. यानी सरकार हमें सिर्फ लॉलीपॉप दे रही है? उसने पूछा. मैंने कहा- सरकार लॉलीपॉप भी नहीं दे रही. वह हमारी जेब में पड़ी दो लॉलीपॉप में से एक निकालकर हमें पकड़ा रही है और कह रही है ताली बजाओ! तो फिर करना क्या चाहिए अंकल? अब वह खीजकर बोला. मैंने बात को समेटारू श्समस्या आरक्षण की नहीं रोजगार की है. अगर नौकरी ही नहीं होगी तो आरक्षण देने या ना देने से क्या फर्क पड़ेगा. आज केंद्र सरकार के पास चार लाख से अधिक पद रिक्त हैं. राज्य सरकारों के पास 20 लाख रिक्त पद पड़े हैं. पैसा बचाने के चक्कर में सरकारें इन पदों को भर नहीं रही हैं. प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां घट रही हैं, पिछले साल एक करोड़ से ज्यादा नौकरियां घटी हैं. अगर सरकार गंभीर है, तो इन नौकरियों को भरने का आदेश जारी क्यों नहीं करती? दोनों के मुंह से एक-साथ निकला-यानी  जॉब चाहिए, जुमला नहीं!
ये लेखक के अपने विचार हैं.

No comments:

Post a Comment

Please share your views

युवाओं को समाज और देश की उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए : प्रो. सुधीर अवस्थी कानपुर। छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के प्रति कुलपति प्...