सीताराम येचुरी की दोबारा ताजपोशी के निहितार्थ...
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) का सीताराम येचुरी को एक और कार्यकाल के लिए मौका देना दूर तक संदेश दे गया। सीपीएम की 22वीं कांग्रेस से यह साफ हो गया कि पार्टी वक्त की नजाकत को समझते हुए व्यावहारिक रुख अपनाना चाहती है। पार्टी ने बदलाव करके दिखा दिया कि वह समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए जरूरी लचीलापन अपना सकती है। इससे एक तरफ सीपीएम ने जहां खुद को एक बड़े आंतरिक संकट से बचा लिया, वहीं इससे समूचे भारतीय विपक्ष ने राहत की सांस ली है। वास्तव में यह बड़े असर वाला निर्णय है।
गौरतलब है कि सीपीएम पिछले कुछ समय से राजनीतिक स्तर पर आंतरिक संकट से जूझ रही थी। पूर्व महासचिव प्रकाश करात तथा एक बड़ा वर्ग यह मानना था कि सीपीएम को अपने वैचारिक धरातल पर कोई समझौता नहीं करे। इसके पीछे दलील यह थी कि चाहे भाजपा हो या कांगे्रस दोनों पार्टियों की आर्थिक नीतियां पूंजीवादी समर्थक हैं, जिससे दबे-कुचले, दलित, मजदूर, अल्पसंख्यक समुदाय की तरक्की होनी मुश्किल है। दूसरी तरफ सीताराम येचुरी का मानना था कि वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा देश को साम्प्रदायिक शक्तियों से बचाने का है। इसके लिए कांग्रेस समेत देश भर में सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ मजबूत गठजोड़ बनाने की जरूरत है। इसके लिए हमें कांग्रेस जैसी पार्टियों से परहेज नहीं करना चाहिये। उनकी इस बात में वजन भी था, क्योंकि अगर धरातल पर देखा जाये तो सीपीएम का मजबूत जनाधार बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ही है। जबकि देश अन्य राज्यों में उसे किसी न किसी धर्मनिरपेक्ष दल की तरफ गठजोड़ करना ही होगा। यह भी सही है कि कांग्रेस से परहेज करने पर किसी अन्य से गठबंधन की गुंजाइश न के बराबर होगी, क्योंकि अन्य विपक्षी दलों को भाजपा को रोकने के लिए कांग्रेस से गठजोड़ करने में कोई परहेज नहीं है। इस तरह से येचुरी की दोबारा ताजपोशी करके उनके विचारों को सीपीएम पोलित ब्यूरो ने एक तरह से मुहर लगा दी।
वैसे येचुरी की दोबारा ताजपोशी आसान नहीं थी। महासचिव पद के लिए बृन्दा करात, माणिक सरकार जैसे दिग्गजों का नाम सबसे आगे था। येचुरी विरोधी लॉबी की ताकत को देखते हुए उनका जाना तय माना जा रहा था, क्योंकि पार्टी नेतृत्व में मुख्यत: पश्चिम बंगाल और केरल के लोग हैं। दोनों ही राज्यों के प्रतिनिधि अपने स्थानीय समीकरणों के हिसाब से पार्टी की राजनीतिक लाइन तय करा लेते हैं। यही वजह है कि उत्तर भारत की राजनीति के लिए जरूरी रणनीति बनाने में पार्टी विफल होती रही है। कांग्रेस के साथ तालमेल न करने की लाइन बनाने वाले प्रकाश करात केरल से आते हैं, जहां सीपीएम का मुकाबला कांग्रेस के साथ है। माना कि केरल में कांग्रेस का विरोध पार्टी के लिए आवश्यक है। परंतु सिर्फ एक राज्य की राजनीति को ध्यान में रखकर पार्टी की राष्ट्रीय राजनीतिक लाइन कैसे तय हो सकती है? बताते हैं कि सीताराम येचुरी की लाइन को पार्टी कांग्रेस में तवज्जो इसलिए मिली कि इसे केरल और पश्चिम बंगाल से बाहर के प्रतिनिधियों का समर्थन मिला। येचुरी की लाइन से पार्टी को उत्तर भारत में ताकत बढ़ाने का मौका मिल सकता है। कांग्रेस के साथ सीपीएम के गहरे मतभेद हैं, इसमें कोई शक नहीं। आर्थिक मामलों में दोनों के बीच सहमति की कोई गुंजाइश नहीं है। पार्टी का कहना है कि सार्वजनिक उद्योगों और सेवाओं को निजी कंपनियों को सौंपने, देशी-विदेशी पूंजी को खुली छूट देने और श्रम कानूनों को उद्योगपतियों के मनमाफिक बनाने समेत तमाम आर्थिक नीतियों को लेकर कांग्रेस और बीजेपी में कोई फर्क नहीं है। वामपंथी यह तो मानते हैं कि कांग्रेस कम्युनल ताकतों से लडऩे में सक्षम भले न हो, पर वह सांप्रदायिक नहीं है। इस कारण कांगे्रस को बीजेपी के साथ एक तराजू पर तौलना उचित नहीं माना गया और येचुरी को धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ आगे बढऩे के लिए हरी झण्डी दे दी गई। वैसे दो दशक पूर्व हरकिशन सिंह सुरजीत भी येचुरी की ही तरह के सीपीएम को सफलतापूर्वक देश की सियासत में आगे बढ़ा चुके हैं।
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