Thursday, April 26, 2018

Opinion on Education system in India

बच्चों का जीवन खतरे में डालती वर्तमान व्यवस्था... 


आज सुबह एक हृदयविदारक दुर्घटना हुई। उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद में एक स्कूल वैन मानवरहित रेलवे क्रासिंग पार करने के चक्कर में सीवान से गोरखपुर की चपेट में आ गई और वैन में सवार १३ मासूमों की मौके पर ही मौत हो गई। करीब चार बच्चे गंभीर रूप से घायल हैं और हास्पिटल में जिन्दगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। बताया जाता है कि वैन चालक ने ईयर फोन लगा रखा था, जिस कारण उसे ट्रेन या वैन में सवार बच्चों की आवाज सुनाई नहीं पड़ी और यह दुर्घटना हो गई।
  सच तो यह है कि इस तरह की दुर्घटना कोई पहली बार नहीं हुई है। हमारी व्यवस्थागत खामियों का नतीजा छोटे-छोटे मासूमों को हर साल भुगतना पड़ता है। शिक्षा के बाजारीकरण और निजीकरण ने इन दुर्घटनाओं में बेतहाशा वृद्घि हुई है। ज्यादातर प्राइवेट स्कूल अपने यहां चाहे शिक्षक हों या कर्मचारी, मुनाफाखोरी के चक्कर में पात्रता मानदण्डों की अनदेखी करते हैं। यही नहीं विद्यालय वाहन भी अक्सर आउटडेटेड होते हैं और उसमें भी बच्चों को भूसे की तरह भरा जाता है। स्कूल वाहनों मे ओवरलोडिंग की रोज धज्जियां उड़ाई जाती है, लेकिन जान बूझकर इस मामले में प्रशासन और अभिभावक दोनों ही चुप्पी साधे रहते हैं। प्राइवेट स्कूलों में यह भी बड़ी कमी देखी गयी है कि वहां बच्चों की क्षमता से काफी कम विद्यालय वाहन होते हैं। इस कारण बहुत ही कम समय में वाहन चालक को विद्यालय में कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। वाहन चालक पर अतिरिक्त बोझ होता है, फिर भी उससे उम्मीद समय से पहुंचाने की जाती है। ऐसे में दुर्घटना होना लाजिमी है। इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
  यूं तो सरकार द्वारा इस संबंध में बहुत से नियम कानून बने हैं, परन्तु इन नियमों की प्राय: अनदेखी ही होती है। अभिभावक के सामने भी बच्चे की शिक्षा और भविष्य की चिन्ता होती है, अत: वह भी विद्यालय संचालकों की मनमानी सहता रहता है। प्रशासनिक लापरवाही तो खूब रहती है। बताया जा रहा है कि कुशीनगर जिस विद्यालय का वाहन दुघटनाग्रस्त हुआ है, उसकी मान्यता ही नहीं थी। इस तरह से शिक्षा के मामले में प्रदेश में लापरवाही बरती जा रही है। जब भी कोई घटना होती है तो तमाम जांचे बैठा दी जाती है, मुआवजे की घोषणा हो जाती है। रस्मी तौर पर प्रशासनिक चौकसी भी थोड़े दिनों के शुरू कर दी जाती है और फिर मामला ठंडा पड़ जाता है।
  उत्तर प्रदेश में शिक्षा के मामले में यह अनदेखी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण हैं। यहां सरकार ही नहीं चाहती कि शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो। इसी कारण यहां की प्राइमरी शिक्षा पूरी तरह से पूंजीपतियों के हाथ की खिलौना बन गई है। इस संबंध में हाईकोट इलाहाबाद ने प्रदेश सरकार को चेताया भी था, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा। प्रदेश सरकार प्राइमरी शिक्षा को सुधारने के बजाये हाईकोर्ट के आदेश के विरूद्घ सुप्रीम कोर्ट में है। वैसे तो देश में मौलिक अधिकारों के रूप में ५ से १४ वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार लागू किया गया है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए हमेशा सरकार मौन साधे रही है। सरकारी स्कूलों की हालत बद से बदतर है। वहां शिक्षा के बजाये मध्यान्ह भोजन की गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। सरकारी स्कूल गुणवत्तायुक्त शिक्षा देने के स्थान पर निम्न स्तर के रेस्टोरेन्ट की भूमिका में नजर आते हैं। सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के शिक्षण पद्घति में जमीन-आसमान का अन्तर आ चुका है। यही कारण है कि वर्तमान समय में अभिभावको के साथ सरकार भी इन्हीं प्राइवेट स्कूलों के हाथ की कठपुतली बन गई है। इसी मजबूरी का फायदा उठाकर प्राइवेट स्कूल मनमानी फीस वसूल करते हैं तथा शिक्षण एवं शिक्षणेत्तर कर्मचारियों के नियुक्ति में पात्रता मानदण्डों की अनदेखी करते हैं। अत: शिक्षा की स्थिति में सुधार किये बिना इस तरह की दुघटनाओं को नहीं रोका जा सकता है।
   इस मामले में दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने एक अनूठा उदाहरण पेश किया है। वहां अब प्राइवेट स्कूलों में दाखिले के बजाये सरकारी स्कूलों में दाखिले के लिए लम्बी लाइन लगने लगी है। केरल और तमिलनाडु के सरकारी स्कूलों का भी यही हाल है। यदि अन्य प्रांतों में सरकारी स्कूलों को सुदृढ़ किया जा सकता है तो यूपी में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। प्राइमरी शिक्षा बच्चों की शैक्षिक बुनियाद होती है, उसे सुदृढ़ करने की जिम्मेदारी से सरकार बच नहीं सकती। कायदे से प्राइमरी शिक्षा सभी बच्चों के लिए एक समान होनी चाहिये, ताकि समाज को कुशल और शिक्षित युवा दिया जा सके। यदि दृढ़ इच्छाशक्ति हो शिक्षा की इस असमानता को दूर किया जा सकता है और समान शिक्षा से सामाजिक न्याय के नैसर्गिक सिद्घान्त को लागू किया जा सकता है। सरकारी स्कूल के शिक्षकों को प्राइवेट के मुकाबले में अधिक वेतन तथा सुविधाएं मिलती हैं, परन्तु उनका शिक्षण कार्य निम्न स्तर का होता है। यदि सरकार दृढ़ संकल्प ले तो सुधार हो सकता है, परन्तु बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे।

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