Friday, May 4, 2018

Introduction to Journalism in Hindi

पत्रकारिता का इतिहास और विकास (Journalism: Origin & Growth)

लगता है कि विश्व में पत्रकारिता का आरंभ सन 131 ईस्वी पूर्व रोम में हुआ था। उस साल पहला दैनिक समाचार-पत्र निकलने लगा। उस का नाम था – “Acta Diurna” (दिन की घटनाएं)। वास्तव में यह पत्थर की या धातुकी पट्टी होता था जिस पर समाचार अंकित होते थे। ये पट्टियां रोम के मुख्य स्थानों पर रखी जाती थीं और इन में वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति, नागरिकों की सभाओं के निर्णयों और ग्लेडिएटरों की लड़ाइयों के परिणामों के बारे में सूचनाएं मिलती थीं।
मध्यकाल में यूरोप के व्यापारिक केंद्रों में सूचना-पत्र निकलने लगे। उन में कारोबार, क्रय-विक्रय और मुद्रा के मूल्य में उतार-चढ़ाव के समाचार लिखे जाते थे। लेकिन ये सारे सूचना-पत्र हाथ से ही लिखे जाते थे।
15वीं शताब्दी के मध्य में योहन गूटनबर्ग ने छापने की मशीन का आविष्कार किया। असल में उन्होंने धातु के अक्षरों का आविष्कार किया। इस के फलस्वरूप किताबों का ही नहीं, अख़बारों का भी प्रकाशन संभव हो गया।
16वीं शताब्दी के अंत में, यूरोप के शहर स्त्रास्बुर्ग में, योहन कारोलूस नाम का कारोबारी धनवान ग्राहकों के लिये सूचना-पत्र लिखवा कर प्रकाशित करता था। लेकिन हाथ से बहुत सी प्रतियों की नकल करने का काम महंगा भी था और धीमा भी। तब वह छापे की मशीन ख़रीद कर 1605 में समाचार-पत्र छापने लगा। समाचार-पत्र का नाम था रिलेशन। यह विश्व का प्रथम मुद्रित समाचार-पत्र माना जाता है।
भारत में पत्रकारिता का आरंभ
छापे की पहली मशीन भारत में 1674 में पहुंचायी गयी थी। मगर भारत का पहला अख़बार इस के 100 साल बाद, 1776 में प्रकाशित हुआ। इस का प्रकाशक ईस्ट इंडिया कंपनी का भूतपूर्व अधिकारी विलेम बॉल्ट्स था। यह अख़बार स्वभावतः अंग्रेज़ी भाषा में निकलता था तथा कंपनी व सरकार के समाचार फैलाता था।
सब से पहला अख़बार, जिस में विचार स्वतंत्र रूप से व्यक्त किये गये, वह 1780 में जेम्स ओगस्टस हीकी का अख़बार बंगाल गज़ेट था। अख़बार में दो पन्ने थे और इस में ईस्ट इंडिया कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों की व्यक्तिगत जीवन पर लेख छपते थे। जब हीकी ने अपने अख़बार में गवर्नर की पत्नी का आक्षेप किया तो उसे 4 महीने के लिये जेल भेजा गया और 500 रुपये का जुरमाना लगा दिया गया। लेकिन हीकी शासकों की आलोचना करने से पर्हेज़ नहीं किया। और जब उस ने गवर्नर और सर्वोच्च न्यायाधीश की आलोचना की तो उस पर 5000 रुपये का जुरमाना लगाया गया और एक साल के लिये जेल में डाला गया। इस तरह उस का अख़बार भी बंद हो गया।
1790 के बाद भारत में अंग्रेज़ी भाषा की और कुछ अख़बार स्थापित हुए जो अधिक्तर शासन के मुखपत्र थे। पर भारत में प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र थोड़े-थोड़े दिनों तक ही जीवित रह सके।
1819 में भारतीय भाषा में पहला समाचार-पत्र प्रकाशित हुआ था। वह बंगाली भाषा का पत्र – ‘संवाद कौमुदी’ (बुद्धि का चांद) था। उस के प्रकाशक राजा राममोहन राय थे।
1822 में गुजराती भाषा का साप्ताहिक मुंबईना समाचारप्रकाशित होने लगा, जो दस वर्ष बाद दैनिक हो गया और गुजराती के प्रमुख दैनिक के रूप में आज तक विद्यमान है। भारतीय भाषा का यह सब से पुराना समाचार-पत्र है।
1826 में उदंत मार्तंड नाम से हिंदी के प्रथम समाचार-पत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। यह साप्ताहिक पत्र 1827 तक चला और पैसे की कमी के कारण बंद हो गया।
1830 में राममोहन राय ने बड़ा हिंदी साप्ताहिक बंगदूत का प्रकाशन शुरू किया। वैसे यह बहुभाषीय पत्र था, जो अंग्रेज़ी, बंगला, हिंदी और फारसी में निकलता था। यह कोलकाता से निकलता था जो अहिंदी क्षेत्र था। इस से पता चलता है कि राममोहन राय हिंदी को कितना महत्व देते थे।
1833 में भारत में 20 समाचार-पत्र थे, 1850 में 28 हो गए और 1953 में 35 हो गये। इस तरह अख़बारों की संख्या तो बढ़ी, पर नाममात्र को ही बढ़ी। बहुत से पत्र जल्द ही बंद हो गये। उन की जगह नये निकले। प्रायः समाचार-पत्र कई महीनों से ले कर दो-तीन साल तक जीवित रहे।
उस समय भारतीय समाचार-पत्रों की समस्याएं समान थीं। वे नया ज्ञान अपने पाठकों को देना चाहते थे और उसके साथ समाज-सुधार की भावना भी थी। सामाजिक सुधारों को लेकर नये और पुराने विचारवालों में अंतर भी होते थे। इस के कारण नये-नये पत्र निकले। उन के सामने यह समस्या भी थी कि अपने पाठकों को किस भाषा में समाचार और विचार दें। समस्या थी भाषा शुद्ध हो या सब के लिये सुलभ हो? 1846 में राजा शिव प्रसाद ने हिंदी पत्र बनारस अख़बार का प्रकाशन शुरू किया। राजा शिव प्रसाद शुद्ध हिंदी का प्रचार करते थे और अपने पत्र के पृष्ठों पर उन लोगों की कड़ी आलोचना की जो बोल-चाल की हिंदुस्तानी के पक्ष में थे। लेकिन उसी समय के हिंदी लखक भारतेंदु हरिशचंद्र ने ऐसी रचनाएं रचीं जिन की भाषा समृद्ध भी थी और सरल भी। इस तरह उन्होंने आधुनिक हिंदी की नींव रखी है और हिंदी के भविष्य के बारे में हो रहे विवाद को समाप्त कर दिया। 1868 में भरतेंदु हरिशचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका कविवच सुधानिकालना प्रारंभ किया। 1854 में हिंदी का पहला दैनिक समाचार सुधा वर्षण निकला।

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पाया (स्तम्भ) Press as a fourth estate
पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा पाया (स्तम्भ) भी कहा जाता है। पत्रकारिता ने लोकतंत्र में यह महत्त्वपूर्ण स्थान अपने आप नहीं हासिल किया है बल्कि सामाजिक सरोकारों के प्रति पत्रकारिता के दायित्वों के महत्त्व को देखते हुए समाज ने ही दर्जा दिया है। कोई भी लोकतंत्र तभी सशक्त है जब पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों के प्रति अपनी सार्थक भूमिका निभाती रहे। सार्थक पत्रकारिता का उद्देश्य ही यह होना चाहिए कि वह प्रशासन और समाज के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी की भूमिका अपनाये।
सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हित से जुड़कर ही पत्रकारिता सार्थक बनती है। सामाजिक सरोकारों को व्यवस्था की दहलीज तक पहुँचाने और प्रशासन की जनहितकारी नीतियों तथा योजनाआें को समाज के सबसे निचले तबके तक ले जाने के दायित्व का निर्वाह ही सार्थक पत्रकारिता है।
पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो स्वतंत्रता के पूर्व पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति का लक्ष्य था। स्वतंत्रता के लिए चले आंदोलन और स्वाधीनता संग्राम में पत्रकारिता ने अहम और सार्थक भूमिका निभाई। उस दौर में पत्रकारिता ने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने के साथ-साथ पूरे समाज को स्वाधीनता की प्राप्ति के लक्ष्य से जोड़े रखा।
इंटरनेट और सूचना के आधिकार (आर.टी.आई.) ने आज की पत्रकारिता को बहुआयामी और अनंत बना दिया है। आज कोई भी जानकारी पलक झपकते उपलब्ध की और कराई जा सकती है। मीडिया आज काफी सशक्त, स्वतंत्र और प्रभावकारी हो गया है। पत्रकारिता की पहुँच और आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का व्यापक इस्तेमाल आमतौर पर सामाजिक सरोकारों और भलाई से ही जुड़ा है, किंतु कभी कभार इसका दुरपयोग भी होने लगा है।
संचार क्रांति तथा सूचना के आधिकार के अलावा आर्थिक उदारीकरण ने पत्रकारिता के चेहरे को पूरी तरह बदलकर रख दिया है। विज्ञापनों से होनेवाली अथाह कमाई ने पत्रकारिता को काफी हद्द तक व्यावसायिक बना दिया है। मीडिया का लक्ष्य आज आधिक से आधिक कमाई का हो चला है। मीडिया के इसी व्यावसायिक दृष्टिकोन का नतीजा है कि उसका ध्यान सामाजिक सरोकारों से कहीं भटक गया है। मुद्दों पर आधारित पत्रकारिता के बजाय आज इन्फोटेमेंट ही मीडिया की सुर्खियों में रहता है।
इंटरनेट की व्यापकता और उस तक सार्वजनिक पहुँच के कारण उसका दुष्प्रयोग भी होने लगा है। इंटरनेट के उपयोगकर्ता निजी भड़ास निकालने और अतंर्गततथा आपत्तिजनक प्रलाप करने के लिए इस उपयोगी साधन का गलत इस्तेमाल करने लगे हैं। यही कारण है कि यदा-कदा मीडिया के इन बहुपयोगी साधनों पर अंकुश लगाने की बहस भी छिड़ जाती है। गनीमत है कि यह बहस सुझावों और शिकायतों तक ही सीमित रहती है। उस पर अमल की नौबत नहीं आने पाती। लोकतंत्र के हित में यही है कि जहाँ तक हो सके पत्रकारिता हो स्वतंत्र और निर्बाध रहने दिया जाए, और पत्रकारिता का अपना हित इसमें है कि वह आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उपयोग समाज और सामाजिक सरोकारोंके प्रति अपने दायित्वों के ईमानदार निवर्हन के लिए करती रहे।

मुद्रण का इतिहास   (History of Printing (India & world)
सामान्यत: मुद्रण का अर्थ छपाई से है, जो कागज, कपड़ा, प्लास्टिक, टाट इत्यादि पर हो सकता है। डाकघरों में लिफाफों, पोस्टकार्डों व रजिस्टर्ड चिट्ठियों पर लगने वाली मुहर को भी 'मुद्रण' कहते हैं। प्रसिद्ध अंग्रेजी विद्वान चार्ल्स डिक्नस ने मुद्रण की महत्ता को बताते हुए कहा है कि स्वतंत्र व्यक्ति के व्यक्तित्व को बनाए रखने में मुद्रण महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रारंभिक युग में मुद्रण एक कला था, लेकिन आधुनिक युग में पूर्णतया तकनीकी आधारित हो गया है। मुद्रण कला पत्रकारिता के क्षेत्र में पुष्पित, पल्लवित, विकसित तथा तकनीकी के रूप में परिवर्तीत हुई है।
वैदिक सिद्धांत के अनुसार- परमेश्वर की इच्छा से ब्रह्माण्ड की रचना और जीवों की उत्पत्ति हुई। इसके बाद 'ध्वनि' प्रकट हुआ। ध्वनि से 'अक्षर' तथा अक्षरों से च्शब्दज् बनें। शब्दों के योग को 'वाक्य' कहा गया। इसके बाद पिता से पुत्र और गुरू से शिष्य तक विचारों, भावनाओं, मतों व जानकारियों का आदान-प्रदान होने लगा। भारतीय ऋषि-मुनियों ने सुनने की क्रिया को श्रुति और समझने को प्रक्रिया को स्मृति का नाम दिया। ज्ञान के प्रसार का यह तरीका असीमित तथा असंतोषजनक था, जिसके कारण मानव ने अपने पूर्वजों और गुरूजनों के श्रेष्ठ विचारों, मतों व जानकारियों को लिपिबद्ध करने की आवश्यकता महसूस की। इसके लिए लिपि का आविष्कार किया तथा पत्थरों व वृक्षों की छालों पर खोदकर लिखने लगा। इस तकनीकी से भी विचारों को अधिक दिनों तक सुरक्षित रखना संभव नहीं था। इसके बाद लकड़ी को नुकिला छीलकर ताड़पत्रों और भोजपत्रों पर लिखने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। प्राचीन काल के अनेक ग्रंथ भोजपत्रों पर लिखे मिले हैं।
सन् १०५ ई. में चीनी नागरिक टस्-त्साई लून ने कपस एवं सलमल की सहयता से कागज का आविष्कार हुआ। सन् ७१२ ई. में चीन में एक सीमाबद्ध एवं स्पष्ट ब्लाक प्रिंटिंग की शुरूआत हुई। इसके लिए लकड़ी का ब्लाक बनाया गया। चीन में ही सन् ६५० ई. में हीरक सूत्र नामक संसार की पहली मुद्रित पुस्तक प्रकाशित की गयी। सन् १०४१ ई. में चीन के पाई शेंग नामक व्यक्ति ने चीनी मिट्टी की मदद से अक्षरों को तैयार किया। इन अक्षरों को आधुनिक टाइपों का आदि रूप माना जा सकता है। चीन में ही दुनिया का पहला मुद्रण स्थापित हुआ, जिसमें लकड़ी के टाइपों का प्रयोग किया गया था। टाइपों के ऊपर स्याही जैसे पदार्थ को पोतकर कागज के ऊपर दबाकर छपाई का काम किया जाता था।
इस प्रकार, मुद्रण के आविष्कार और विकास का श्रेय चीन को जाता है। यह कला यूरोप में चीन से गई अथवा वहां स्वतंत्र रूप से विकसित हुयी, इसके संदर्भ में कोई अधिकारिक विवरण उपलब्ध नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक कागज बनाने की कला चीन से अरब देशों में तथा वहां से यूरोप में पहुंची होगी। एक अन्य अनुमान के मुताबिक १४वीं-१५वीं सदी के दौरान यूरोप में मुद्रण-कला का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। उस समय यूरोप में बड़े-बड़े चित्रकार होते थे। उनके चित्रों की स्वतंत्र प्रतिक्रिया को तैयार करना कठिन कार्य था। इसे शीघ्रतापूर्वक नहीं किया जा सकता था। अत: लकड़ी अथवा धातु की चादरों पर चित्रों को उकेर कर ठप्पा बनाया जाने लगा, जिस पर स्याही लगाकर पूर्वोक्त रीति से ठप्पे को दो तख्तों के बीच दबाकर उनके चित्रों की प्रतियां तैयार की जाती थी। इस तरह के अक्षरों की छपाई का काम आसान नहीं था। अक्षरों को उकेर कर उनके छप्पे तैयार करना बड़ा ही मुश्किल काम था। उसमें खर्च भी बहुत ज्यादा पड़ता था। फिर भी उसकी छपाई अच्छी नहीं होती थी। इन असुविधाओं ने जर्मनी के लरेंस जेंसजोन को छुट्टे टाइप बनाने की प्रेरणा दी। इन टाइपों का प्रयोग सर्वप्रथम सन् १४०० ई. में यूरोप में हुआ।
जर्मनी के जॉन गुटेनबर्ग ने सन् १४४० ई. में ऐसे टाइपों का आविष्कार किया, जो बदल-बदलकर विभिन्न सामग्री को बहुसंख्या में मुद्रित कर सकता था। इस प्रकार के टाइपों को पुनरावत्र्तक छापे (रिपीटेबिल प्रिण्ट) के वर्ण कहते हैं। इसके फलस्वरूप बहुसंख्यक जनता तक बिना रूकावट के समाचार और मतों को पहुंचाने की सुविधा मिली। इस सुविधा को कायम रखने के लिए बराबर तत्पर रहने का उत्तरदायित्व लेखकों और पत्रकारों पर पड़ा। जॉन गुटेनबर्ग ने ही सन् १४५४-५५ ई. में दुनिया का पहला छापाखाना (प्रिंटिंग-प्रेस) लगाया तथा सन् १४५६ ई. में बाइबिल की ३०० प्रतियों को प्रकाशित कर पेरिस भेजा। इस पुस्तक की मुद्रण तिथि १४ अगस्त १४५६ निर्धारित की गई है। जॉन गुटेनबर्ग के छापाखाने से एक बार में ६०० प्रतियां तैयार की जा सकती थी। परिणामत: ५०-६० वर्षों के अंदर यूरोप में करीब दो करोड़ पुस्तकें प्रिंट हो गयी थी।
इस प्रकार, मुद्रण कला जर्मनी से आरंभ होकर यूरोपीय देशों में फैल गयी। कोलने, आगजवर्ग बेसह, टोम, पेनिस, एन्टवर्ण, पेरिस आदि में मुद्रण के प्रमुख केंद्र बने। सन् १४७५ ई. में सर विलियम केकस्टन के प्रयासों के चलते ब्रिटेन का पहला प्रेस स्थापित हुआ। ब्रिटेन में राजनैतिक और धार्मिक अशांति के कारण छापाखाने की सुविधा सरकार के नियंत्रण में थी। इसे स्वतंत्र रूप से स्थापित करने के लिए सरकार से विधिवत आज्ञा लेना बड़ा ही कठिन कार्य था। पुर्तगाल में इसकी शुरूआत सन् १५४४ ई. में हुई।
मुद्रण के इतिहास की पड़ताल से स्पष्ट है कि छापाखाना का विकास धार्मिक-क्रांति के दौर में हुआ। यह सुविधा मिलने के बाद धार्मिक ग्रंथ बड़े ही आसानी से जन-सामान्य तक पहुंचने लगे। इन धार्मिक ग्रंथों का विभिन्न देशों की भाषाओं में अनुवाद करके प्रकाशित होने लगे। पूर्तगाली धर्म प्रचार के लिए मुद्रण तकनीकी को सन् १५५६ ई. में गोवा लाये और धर्मग्रंथों को प्रकाशित करने लगे। सन् १५६१ ई. में गोवा में प्रकाशित बाइबिल पुस्तक की एक प्रति आज भी न्यूयार्क लाइब्रेरी में सुरक्षित है। इससे उत्साहित होकर भारतीयों ने भी अपने धर्मग्रंथों को प्रकाशित करने का साहस दिखलाया। भीम जी पारेख प्रथम भारतीय थे, जिन्होंने दीव में सन् १६७० ई. में एक उद्योग के रूप में प्रेस शुरू किया।
सन् १६३८ ई. में पादरी जेसे ग्लोभरले ने एक छापाखाना जहाज में लादकर संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया, लेकिन रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गयी। उसके बाद उनके सहयोगी म्याश्यु और रिटेफेन डे ने उक्त छापाखाना (प्रिंटिंग-प्रेस) को स्थापित किया। सन् १७९८ ई. में लोहे के प्रेस का आविष्कार हुआ, जिसमें एक लिवर के द्वारा अधिक संख्या में प्रतियां प्रकाशित करने की सुविधा थी। सन् १८११ ई. के आस-पास गोल घूमने वाले सिलेण्डर चलाने के लिए भाप की शक्ति का इस्तेमाल होने लगा, जिसे आजकल रोटरी प्रेस कहा जाता है। हालांकि इसका पूरी तरह से विकास सन् १८४८ ई. के आस-पास हुआ। १९वीं सदी के अंत तक बिजली संचालित प्रेस का उपयोग होने लगा, जिसके चलते न्यूयार्क टाइम्स के १२ पेजों की ९६ हजार प्रतियों का प्रकाशन एक घंटे में संभव हो सका। सन् १८९० ई. में लिनोटाइप का आविष्कार हुआ, जिसमें टाइपराइटर मशीन की तरह से अक्षरों के सेट करने की सुविधा थी। सन् १८९० ई. तक अमेरिका समेत कई देशों में रंग-बिरंगे ब्लॉक अखबार छपने लगे। सन् १९०० ई. तक बिजली संचालित रोटरी प्रेस, लिनोटाइप की सुविधा और रंग-बिरंगे चित्रों को छापने की सुविधा, फोटोग्राफी को छापने की व्यवस्था होने से सचित्र समाचार पत्र पाठको तक पहुंचने लगे।

लिथो छपाई (Lithography)
लिथो छपाई (Lithography) पत्थर पर चिकनी वस्तु से लेख लिखकर अथवा डिज़ाइन बनाकर, उसके द्वारा छाप उतारने की कला है। लिथोग्रैफी शब्द यूनानी भाषा के लिथो (पत्थर) एवं ग्रैफी (लिखना) शब्दों के मिलने से बना है। पत्थर के स्थान पर यदि जस्ता, ऐलुमिनियम इत्यादि पर उपर्युक्त विधि से लेख लिखकर या डिज़ाइन बनाकर छापा जाए तो उसे भी लिथोग्रैफी कहेंगे।
लिथोछपाई को सतह या समतल लिखावट (Planographic) प्रक्रम (process) भी कहते हैं। इसमें मुद्रणीय और अमुद्रणीय क्षेत्र एक ही तल पर होते हैं, परंतु डिज़ाइन चिकनी स्याही से बने होने के कारण और बाकी सतह नम रखी जाने के कारण, स्याही-रोलर स्याही को स्याही ग्राही डिज़ाइन पर ही निक्षिप्त कर पाता है। अमुद्रणीय क्षेत्र की नमी, या आर्द्रता, स्याही को प्रतिकर्षित करती है। इस प्रकार लिथोछपाई चिकनाई और पानी के विद्वेष सिद्धांत पर आधारित है। इस प्रक्रम का आविष्कार बेवेरिया में एलॉइस जेनेफ़ेल्डर (Alois Senefelder) ने 6 नवम्बर 1771 ई. को किया था। सौ वर्षों से अधिक काल तक प्रयोग और परख होते रहने के बाद आधुनिक फोटो ऑफ़सेट लिथो छपाई के रूप में उसका विकास हुआ।
लिथो छपाई में आरेखन और मुद्रण दोनों की विधियाँ सन्निहित है। समतल लिखावट मुद्रण द्वारा प्रिंटों (prints) को छापने की दो प्रमुख विधियाँ हैं : स्वलिथोछपाई (autolithography) और ऑफ़सेट फ़ोटोलिथोछपाई। स्वलिथोछपाई नक्शानवीस (draftsman), या कलाकार द्वारा प्रस्तर, धातु की प्लेट, या अंतरण कागज (transfer paper) पर अंकित मूल लेखन, या आरेखन से आरंभ होता है। डिज़ाइन में सर्जक के मन की छाप और कलाकार के व्यक्तिगत स्पर्श की छाप होती है। इस शिल्प के व्यापारिक पक्ष के अनेक विभाग हैं और ऐसे शिल्पी कम होते हैं जो अपने विभाग के अलावा दूसरे विभाग की भी जानकारी रखते हों। अत: सहज कलात्मक प्रेरणाएँ व्यर्थ जाती हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि ऑफसेट लिथोछपाई में कलापक्ष का अभाव होता है, परंतु यह मान लेने की बात है कि इसमें कलापक्ष क्रमश: गौण हो रहा है, खास कर उस स्थिति में जबकि फोटोग्राफी स्वलिथोछपाई का स्थान ले रही है। लिथो छपाई का आरंभ पत्थर से छापने के रूप में हुआ और आज भी उसका महत्व कम नहीं हुआ है, परंतु फ़ोटोग्रॉफसेट को, जो छपाई का परोक्ष प्रक्रम है और जिसमें शीघ्रता, सस्तापन और यथार्थता के लिए छपाई के काम में प्रकाशयांत्रिक (photomechanical) विधियों का उपयोग होता है, त्यागा नहीं जा सकता।

ऑफसेट लिथोग्राफी (Offset lithography)
ऑफसेट लिथोग्राफी रोटार फोटो मुद्रण (एक और भी उच्च संकल्प लेकिन एक बहुत अधिक महंगा मुद्रण प्रक्रिया) से कम महंगा है ऑफसेट प्रिंटिंग छापा की तुलना में तेज, क्लीनर प्रतिकृतियां प्रदान करता है। एक जर्मन नामित अलोइस सेनफल्डर 1700 के अंत में एक चिकनी-चेहरे, फ्लैट और झरझरा चट्टान पर Lithographic मुद्रण का प्रदर्शन किया। ध्यान रखें कि तेल और पानी के मिश्रण नहीं है, वह एक चिकना पदार्थ रॉक अवशोषित के साथ परिष्कृत पत्थर पर एक डिजाइन खाका खींचा। जब वह पत्थर की सतह घटा, डिजाइन क्षेत्र पानी पीछे धकेल दिया और जब वह पत्थर की पूरी सतह पर स्याही लुढ़का, स्याही घटा खाली क्षेत्र में अपने डिजाइन करने के लिए अटक गया है, लेकिन नहीं। पत्थर को कागज के एक पत्रक दबाने डिजाइन की एक साफ छवि बनाई। पचास साल बाद, भाप lithographic प्रेस फ्रेंच विकसित और 1950 के दशक तक, lithographic ऑफसेट प्रिंटिंग उच्च मात्रा वेब और कम मात्रा चादर से सिंचित मुद्रण दोनों के लिए पसंद की प्रिंटर की प्रक्रिया बन गया था। ऑफसेट प्रिंटिंग प्लेट्स आधुनिक लिथोग्राफी तेल की Senefelder के मूल उपयोग पानी को पीछे हटाने के साथ फोटोग्राफी को जोड़ती है। बहुत सारे निर्माता प्रिंटर "तस्वीर संवेदनशील" पतली कागज, प्लास्टिक (तस्वीर बहुलक) या पतली धातु के बने प्रिंटिंग प्लेटों ऑफसेट प्रदान करते हैं। फोटोग्राफिक फिल्म की तरह - वे उन्हें तस्वीर बहुलक या एक diazo यौगिक के साथ कोटिंग, प्रिंटर प्रकाश को बेनकाब करने के लिए उन्हें तैयार करके अपने प्लेटों को संवेदनशील। अधिकांश प्रिंटर एक अनाज या दानेदार खत्म कि एल्यूमीनियम के लिए पानी ले जाने के गुण प्रदान करता है के साथ पहले से अवगत एल्यूमीनियम शीट का उपयोग करें। पूर्व प्रेस प्रक्रिया पूर्व प्रेस प्रक्रिया कैमरा-रेडी कॉपी की तैयारी के साथ शुरू होता है। कैमरा-रेडी कॉपी "पेस्ट अप" (भी बुलाया "mechanicals"), प्रिंटर या द्वारा घर में बनाया है या ग्राहक या डिजिटल रूप में डेटा (एक ग्राफिक डिजाइन कार्यक्रम में बनाई गई फ़ाइलों) द्वारा प्रदान की, और फिर से बनाया हो सकते हैं ग्राहक। प्रिंटर mechanicals या डेटा फ़ाइल का फिल्म नकारात्मक (या सकारात्मक) पैदा करता है। प्रिंटर तो फिल्म द्वारा फ़िल्टर प्रकाश के संपर्क में लाने से मुद्रण प्लेट बना देता है। लाइट नकारात्मक है, जहां यह बहुलक है, जो एक परिणाम के रूप में कठोर मारता है, और नकारात्मक के अंधेरे क्षेत्रों पर बाउंस के स्पष्ट क्षेत्रों से होकर गुजरता है, अंतर्निहित बहुलक unhardened छोड़कर। यही कारण है कि unhardened बहुलक प्रसंस्करण के दौरान दूर धोता है, एक स्वचालित प्रक्रिया एक तस्वीर के विकास, जल ग्रहणशील एल्यूमीनियम प्लेट का पर्दाफाश करने के विपरीत नहीं। संसाधन के बाद, मुद्रण प्लेट प्रिंटिंग प्रेस के लिए तैयार है। लाइट एक छवि क्षेत्र से परिलक्षित करती है "ऑफसेट" मुद्रण में ऑफसेट को लागू करने प्रेसमैन एक सिलेंडर पर मुद्रण प्लेट mounts। प्रेस चलाता है के रूप में, एक पानी रोलर के नीचे घुड़सवार थाली पहले रोल, यह wets जो। नम प्लेट तो स्याही रोलर्स जहां छवि क्षेत्र स्याही स्वीकार करता है के तहत ले जाता है। फिर भी घूर्णन, करार थाली अपनी छवि "ऑफसेट" कंबल और सिर पर वापस पानी के लिए प्रक्रिया को दोहराने की छोड़ देता है। "ऑफसेट" कंबल, बारी में, अपनी छवि को कागज करने के लिए, इस प्रक्रिया का ऑफसेट भाग पूरा हस्तांतरित करता है। प्रेस में बनाया गया एक "गर्मी" अनुभाग के माध्यम से या बलों - - के बाद कागज रोलर्स प्रिंटर की सुविधा देता है छोड़ देता है स्याही सूखी। प्रिंटर कटौती, ट्रिम और बांध, यदि आवश्यक हो, पैकेजिंग से पहले और ग्राहक के लिए पूर्ण हुए कार्य को दे रहे थे।

फ्लेक्सो (Flexo)
फ्लेक्सोग्राफी (अक्सर फ्लेक्सो को संक्षेप में) मुद्रण प्रक्रिया का एक रूप है जो एक लचीली राहत प्लेट का उपयोग करता है। यह अनिवार्य रूप से लेटरप्रेस का एक आधुनिक संस्करण है जिसका उपयोग लगभग किसी भी प्रकार के सब्सट्रेट पर प्रिंट करने के लिए किया जा सकता है, जिसमें प्लास्टिक, धातु फिल्में, सेलोफेन और पेपर शामिल हैं। यह विभिन्न प्रकार के खाद्य पैकेजिंग के लिए आवश्यक गैर-छिद्रयुक्त सबस्ट्रेट्स पर छपाई के लिए व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है (यह ठोस रंग के बड़े क्षेत्रों को मुद्रित करने के लिए भी उपयुक्त है)।
1890 में, पहली ऐसी पेटेंट प्रेस प्रेस लिबरपूल, इंग्लैंड में बिबी, बैरन और संस द्वारा बनाई गई थी। पानी आधारित स्याही आसानी से smeared, डिवाइस को "बिबीज फौली" के रूप में जाना जाता है। 1900 के दशक की शुरुआत में, रबड़ मुद्रण प्लेटों और एनीलीन तेल आधारित स्याही का उपयोग करने वाले अन्य यूरोपीय प्रेस विकसित किए गए थे। इस प्रक्रिया को "अनिलिन प्रिंटिंग" कहा जाता है। 1920 के दशक तक, जर्मनी में अधिकांश प्रेस किए गए थे, जहां प्रक्रिया को "गुमिड्रुक" या रबर प्रिंटिंग कहा जाता था। आधुनिक जर्मनी में, वे "gummidruck" प्रक्रिया को कॉल करना जारी रखते हैं।
20 वीं शताब्दी के शुरुआती हिस्से में, तकनीक का उपयोग संयुक्त राज्य अमेरिका में खाद्य पैकेजिंग में बड़े पैमाने पर किया जाता था। हालांकि, 1940 के दशक में, खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने एनालिना रंगों को खाद्य पैकेजिंग के लिए अनुपयुक्त के रूप में वर्गीकृत किया। प्रिंटिंग बिक्री कम हो गई। व्यक्तिगत फर्मों ने प्रक्रिया के लिए नए नामों का उपयोग करने की कोशिश की, जैसे कि "लस्ट्रो प्रिंटिंग" और "ट्रांसग्लो प्रिंटिंग", लेकिन सीमित सफलता से मुलाकात की। खाद्य और औषधि प्रशासन ने 1949 में नई, सुरक्षित स्याही का उपयोग करके एनालिना प्रक्रिया को मंजूरी मिलने के बाद भी, कुछ खाद्य निर्माताओं ने अभी भी एनालिना प्रिंटिंग पर विचार करने से इनकार कर दिया क्योंकि बिक्री में गिरावट आई है। उद्योग की छवि के बारे में चिंतित, पैकेजिंग प्रतिनिधियों ने फैसला किया कि प्रक्रिया का नाम बदलना आवश्यक है।
1951 में, मोस्स्टीप निगम के अध्यक्ष फ्रैंकलिन मॉस ने प्रिंटिंग प्रक्रिया के लिए नए नाम जमा करने के लिए अपने पत्रिका द मोस्स्टीपर के पाठकों के बीच एक सर्वेक्षण किया। 200 से अधिक नाम सबमिट किए गए थे, और पैकेजिंग संस्थान की मुद्रित पैकेजिंग कमेटी की एक उपसमिती ने चयन को तीन संभावनाओं में संकुचित कर दिया: "परमैटोन प्रक्रिया", "रोटोक प्रक्रिया" और "फ्लेक्सोग्राफिक प्रक्रिया"। मोस्टीपर के पाठकों के पोस्टल मतपत्रों ने इन आखिरी बार चुना है, और "फ्लेक्सोग्राफिक प्रक्रिया" चुना गया था।

डिजिटल प्रिंटिंग
डिजिटल प्रिंटिंग डिजिटल-आधारित छवि से प्रिंटिंग के तरीकों को सीधे मीडिया के विभिन्न प्रकारों से संदर्भित करती है। यह आमतौर पर पेशेवर मुद्रण को संदर्भित करता है जहां डेस्कटॉप प्रकाशन और अन्य डिजिटल स्रोतों से छोटी-छोटी नौकरियां बड़े प्रारूप और / या उच्च-मात्रा वाले लेजर या इंकजेट प्रिंटर का उपयोग करके मुद्रित की जाती हैं। डिजिटल प्रिंटिंग में अधिक पारंपरिक ऑफ़सेट प्रिंटिंग विधियों की तुलना में प्रति पृष्ठ एक उच्च लागत है, लेकिन प्रिंटिंग प्लेट बनाने के लिए आवश्यक सभी तकनीकी चरणों की लागत से बचकर यह कीमत आम तौर पर ऑफ़सेट होती है। यह ऑन-डिमांड प्रिंटिंग, शॉर्ट टर्नअराउंड टाइम और प्रत्येक इंप्रेशन के लिए उपयोग की जाने वाली छवि (वेरिएबल डेटा) का एक संशोधन भी प्रदान करता है। श्रम में बचत और डिजिटल प्रेस की बढ़ती क्षमता का मतलब है कि डिजिटल प्रिंटिंग उस बिंदु तक पहुंच रही है जहां यह कम कीमत पर कई हजार चादरों के बड़े प्रिंट रनों का उत्पादन करने की प्रिंटिंग तकनीक की क्षमता को ऑफ़सेट कर सकती है या छेड़छाड़ कर सकती है।
ग्रावरे प्रिंटिंग
Rotogravure (संक्षेप में roto या gravure) intaglio मुद्रण प्रक्रिया का एक प्रकार है, जिसमें छवि छवि वाहक पर उत्कीर्णन शामिल है। गुरुत्वाकर्षण मुद्रण में, छवि को सिलेंडर पर उत्कीर्ण किया जाता है क्योंकि ऑफसेट प्रिंटिंग और फ्लेक्सोग्राफी की तरह, यह एक रोटरी प्रिंटिंग प्रेस का उपयोग करता है। एक बार समाचार पत्र फोटो सुविधाओं के प्रमुख, रोटोग्राव प्रक्रिया अभी भी पत्रिकाओं, पोस्टकार्ड, और नालीदार (कार्डबोर्ड) और अन्य उत्पाद पैकेजिंग के वाणिज्यिक मुद्रण के लिए उपयोग की जाती है।
1 9वीं शताब्दी में, फोटोग्राफी में कई विकास ने फोटो-मैकेनिकल प्रिंटिंग प्लेटों के उत्पादन की अनुमति दी। डब्ल्यूएच फॉक्स टैलबोट ने 1852 में प्रिंटिंग प्लेट में आधा टोन बनाने के लिए फोटोग्राफिक प्रक्रिया में एक कपड़ा के उपयोग का उल्लेख किया। 1860 में एक फ्रांसीसी पेटेंट एक रील-फेड ग्रेवर प्रेस का वर्णन करता है। लंकास्टर में किलिक और फावसेट के बीच एक सहयोग के परिणामस्वरूप 1895 में रेम्ब्रांट इंटैग्लियो प्रिंटिंग कंपनी की स्थापना हुई, जिस कंपनी ने कला प्रिंटों का निर्माण किया। 1906 में उन्होंने पहले बहु-रंग गुरुत्वाकर्षण प्रिंट का विपणन किया।
1912 में म्यूनिख में मेसर्स ब्रुकमैन ने बवेरियन डाक टिकटों के लिए सबूत प्रस्तुत किए जो 1914 में उत्पादन में चले गए। 1912 में अखबारों की खुराक लंदन और बर्लिन (द इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज एंड डेर वेल्स्पीगेल) में बिक्री पर थी।
इरविंग बर्लिन का गीत "ईस्टर परेड" विशेष रूप से लाइनों में इन प्रकार की खुराक को संदर्भित करता है "फोटोग्राफर हमें स्नैप करेंगे, और आप पाएंगे कि आप रोटोग्राव में हैं"। और गीत "हॉली फॉर हॉलीवुड" में "स्थानीय रोटोस से फोटो के साथ सशस्त्र" गीत शामिल है, जिसमें युवा अभिनेत्री का कहना है कि इसे फिल्म उद्योग में बनाने की उम्मीद है।
1932 में जॉर्ज गैलुप "रविवार के समाचार पत्रों के विभिन्न वर्गों में पाठक ब्याज का सर्वेक्षण विज्ञापन माध्यम के रूप में रोटोग्राव के सापेक्ष मूल्य को निर्धारित करने के लिए" पाया गया कि ये विशेष रोटोग्रावर्स कागज के सबसे व्यापक रूप से पढ़े गए अनुभाग थे और विज्ञापन वहां तीन गुना अधिक थे पाठकों द्वारा किसी भी अन्य खंड की तुलना में देखा जा सकता है।
ग्रेवर एक प्रिंटिंग तकनीकों में से एक है जिसे सक्रिय रूप से मुद्रित इलेक्ट्रॉनिक्स के नए क्षेत्र में उपयोग किया जा रहा है।

आवरण मुद्रण (स्क्रीन प्रिंटिंग)
आवरण मुद्रण या आवरण छपाई या 'स्क्रीन प्रिंटिंग' मुद्रण की एक तकनीक है। इस तकनीक में किसी बुने हुई जाली (जैसे कोई कपड़ा) पर इमल्सन लगाकर स्टेंसिल तैयार की जाती है जिसे आवरण या स्क्रीन कहते हैं। जिस तल पर छपाई करनी होती है उसके ऊपर इस आवरण को ररखकर स्याही या रंग पोता जाता है जिससे उस तल पर वांछित चित्र या अक्षर छप जाते हैं। इस विधि से टी-शर्ट, पोस्टर, स्टिकर, विनाइल, लकड़ी तथा अन्य तलों पर छपाई की जाती है।
वस्तुतः आवरण मुद्रण भी स्टेंसिल द्वारा छपाई करता है। अन्तर केवल यह है कि इस तकनीक में स्टेंसिल किसी धातु की चादर पर न बनाकर किसी सछिद्र पतले पदार्थ से बनायी जाती है, जैसे कपड़ा, तार की महीन जाली आदि। दूसरा अन्तर यह है कि इसमें सछिद्र पदार्थ का कोई भाग काटकर हटाया नहीं जाता बल्कि जिस भाग से हम चाहते हैं कि स्याही/रंग पार न जा पाये, उस भाग को उचित पदार्थ से भर या ढक दिया जाता है। जिस भाग से स्याही का प्रवेश नहीं होने देना चाहते हैं, प्रायः उस भाग को भरने के लिए एक इमल्सन का प्रयोग किया जाता है जो पराबंगनी प्रकाश पड़ने पर कड़ा (तथा पानी में अघुलनशील) हो जाता है। शेष भाग पर पोता गया इमल्सन पानी के सम्पर्क में आकर धुल जाता है। इस प्रकार सछिद्र पदार्थ के कुछ भाग में स्याही पार होने के लिए छेद उपस्थित होते हैं जबकि शेष भाग के छेद भर दिए जाते हैं।
इस छपाई को सिल्कस्क्रीन छपाई, सेरीग्राफी (serigraphy) या सेरीग्राफ छपाई भी कहते हैं। चूंकि एक बार में एक ही रंग का प्रयोग किया जा सकता है, अतः बहरंगी छपाई के लिए बहुत से स्क्रीन बनाने पड़ते हैं और उन्हें बारी-बारी से लगाकर अलग-अलग रंग पोते जाते हैं।

हिन्दी पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य (Eras of Hindi Journalism)
हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्टा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और उचित वक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पृष्ठों पर मुखर है।
वर्तमान में हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का झण्डा चंहुदिश लहरा रहा है। ३० मई को 'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' के रूप में मनाया जाता है।
90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए। जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आयी नयी तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया। साथ ही इन दशकों में ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजार में नयी वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई। हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरा है। साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है। इससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है। मीडिया विशेषज्ञ सेवंती निनान ने इसे 'हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार' कहा है। वे लिखती हैं, “प्रिंट मीडिया ने स्थानीय घटनाओं के कवरेज द्वारा जिला स्तर पर हिंदी की मौजूद सार्वजनिक दुनिया का विस्तार किया है और साथ ही अखबारों के स्थानीय संस्करणों के द्वारा अनजाने में इसका पुनर्विष्कार किया है।
1990 में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती थी कि पांच अगुवा अखबारों में हिन्दी का केवल एक समाचार पत्र हुआ करता था। पिछले (सर्वे) ने साबित कर दिया कि हम कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। इस बार (२०१०) सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिंदी के हैं।
एक उत्साहजनक बात और भी है कि आईआरएस सर्वे में जिन 42 शहरों को सबसे तेजी से उभरता माना गया है, उनमें से ज्यादातर हिन्दी हृदय प्रदेश के हैं। मतलब साफ है कि अगर पिछले तीन दशक में दक्षिण के राज्यों ने विकास की जबरदस्त पींगें बढ़ाईं तो आने वाले दशक हम हिन्दी वालों के हैं। ऐसा नहीं है कि अखबार के अध्ययन के मामले में ही यह प्रदेश अगुवा साबित हो रहे हैं। आईटी इंडस्ट्री का एक आंकड़ा बताता है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में नेट पर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।
मतलब साफ है। हिन्दी की आकांक्षाओं का यह विस्तार पत्रकारों की ओर भी देख रहा है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखने चाहिए। पिछले आईएएस, आईआईटी और तमाम शिक्षा परिषदों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि हिन्दी भाषियों में सबसे निचली सीढ़ियों पर बैठे लोग भी जबरदस्त उछाल के लिए तैयार हैं। हिन्दी के पत्रकारों को उनसे एक कदम आगे चलना होगा ताकि उस जगह को फिर से हासिल सकें, जिसे पिछले चार दशकों में हमने लगातार खोया।

पत्रकारिता और समाज सुधार (Journalism & Social reforms)
1 9वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों से खुद को प्रकट करने के लिए शुरू हुई सामाजिक और धार्मिक सुधार की तत्काल आवश्यकता पश्चिमी संस्कृति और शिक्षा के संपर्क में हुई।
भारतीय समाज की कमजोरी और क्षय शिक्षित भारतीयों के लिए स्पष्ट था जिन्होंने अपने हटाने के लिए व्यवस्थित रूप से काम करना शुरू किया।
वे अब हिंदू समाज की परंपराओं, मान्यताओं और प्रथाओं को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि सदियों से उन्हें देखा गया था।
पश्चिमी विचारों के प्रभाव ने नई जागृति को जन्म दिया। भारतीय सामाजिक परिदृश्य में जो परिवर्तन हुआ वह लोकप्रिय रूप से पुनर्जागरण के रूप में जाना जाता है।
राजा राममोहन राय:
इस सांस्कृतिक जागृति का केंद्रीय आंकड़ा राजा राममोहन रॉय था। "भारतीय पुनर्जागरण के पिता" के रूप में जाना जाता है, राममोहन रॉय एक महान देशभक्त, विद्वान और मानववादी थे। उन्हें देश के लिए गहरे प्यार से प्रेरित किया गया और उन्होंने अपने पूरे जीवन में भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, बौद्धिक और राजनीतिक पुनरुत्थान के लिए काम किया।
समाज सुधार:
1814 में, राममोहन रॉय कलकत्ता में बस गए और सामाजिक और धार्मिक सुधार के कारण अपना जीवन समर्पित कर दिया। एक सामाजिक सुधारक के रूप में, राममोहन राय ने सती, बहुविवाह, बाल विवाह, मादा शिशुओं और जाति भेदभाव जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लगातार लड़े। उन्होंने सती के अमानवीय रिवाज के खिलाफ एक आंदोलन का आयोजन किया और विलियम बेंटिंक को इस अभ्यास पर प्रतिबंध लगाने वाले कानून को पारित करने में मदद की। (1829)। यह एक पुरानी सामाजिक बुराई के खिलाफ पहला सफल सामाजिक आंदोलन था।
सती का चित्रण
राममोहन राय आधुनिक पश्चिमी शिक्षा के शुरुआती प्रचारकों में से एक थे। उन्होंने देश में आधुनिक विचारों के प्रसार के लिए इसे एक प्रमुख साधन के रूप में देखा। वह कलकत्ता में हिंदू कॉलेज की नींव से जुड़े थे (जिसे बाद में प्रेसीडेंसी कॉलेज के नाम से जाना जाने लगा)। उन्होंने कलकत्ता में एक अंग्रेजी स्कूल की अपनी लागत पर भी बनाए रखा। इसके अलावा, उन्होंने एक वेदांत कॉलेज की स्थापना की जहां दोनों भारतीय शिक्षा और पश्चिमी सामाजिक और भौतिक विज्ञान पाठ्यक्रम पेश किए गए।
बाल विवाह
उन्होंने अंग्रेजी में सार्वजनिक शिक्षा की व्यापक व्यवस्था को अपनाने के लिए सरकार को याचिकाएं भेजीं। उन्होंने नए विचारों को फैलाने के लिए स्थानीय भाषाओं के महत्व को भी पहचाना। उन्होंने एक बंगाली व्याकरण संकलित किया और बंगाली गद्य की एक आसान और आधुनिक शैली विकसित की।
राममोहन रॉय भारतीय पत्रकारिता के अग्रणी थे। उन्होंने स्वयं को विभिन्न मौजूदा मुद्दों पर जनता को शिक्षित करने के लिए बंगाली, फारसी, हिंदी और अंग्रेजी में पत्रिकाओं को प्रकाशित किया। उनके द्वारा लाया गया सबसे महत्वपूर्ण जर्नल संवाद कौमुदी था।
रममोहन रॉय अंतर्राष्ट्रीयता में दृढ़ आस्तिक थे। उन्होंने कहा कि एक राष्ट्र की पीड़ा और खुशी को बाकी दुनिया को प्रभावित करना चाहिए। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में गहरी दिलचस्पी ली और हमेशा स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद के कारण का समर्थन किया। उन्होंने 1823 में सार्वजनिक रात्रिभोज की मेजबानी करके स्पेन में क्रांति की सफलता का जश्न मनाया।
राममोहन रॉय ने सामाजिक बुराइयों के खिलाफ लगातार संघर्ष किया। उन्होंने तर्क दिया कि वेदों और उपनिषदों के प्राचीन हिंदू ग्रंथों ने एकेश्वरवाद के सिद्धांत को बरकरार रखा है। अपने बिंदु को साबित करने के लिए, उन्होंने वेदों और पांच उपनिषदों को बंगाली में अनुवादित किया।
184 9 में उन्होंने फारसी में उपहार को एकेश्वरवाद लिखा था। राममोहन रॉय वेदांत (उपनिषद) के दर्शन में एक भरोसेमंद आस्तिक थे और मिशनरियों के हमले से हिंदू धर्म और हिंदू दर्शन का जोरदार बचाव करते थे। वह केवल उम्र की आवश्यकताओं के अनुरूप हिंदू धर्म को एक नए कलाकार में ढालना चाहता था।
182 9 में राममोहन रॉय ने एक नए धार्मिक समाज की स्थापना की जिसे अत्मिया सभा के नाम से जाना जाता था जिसे बाद में ब्रह्मो समाज के नाम से जाना जाने लगा। यह धार्मिक समाज तर्कवाद के जुड़वां खंभे और वेदों के दर्शन पर आधारित था। ब्रह्मो समाज ने मानव गरिमा पर जोर दिया, मूर्तिपूजा की आलोचना की और सती जैसे सामाजिक बुराइयों की निंदा की।
राममोहन रॉय ने भारत में राष्ट्रीय चेतना के उदय की पहली चमक का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने जाति व्यवस्था की कठोरता का विरोध किया क्योंकि इसने देश की एकता को नष्ट कर दिया। कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने सही टिप्पणी की है: "रममोहन अपने समय में पुरुषों की पूरी दुनिया में, आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह से समझने के लिए एकमात्र व्यक्ति थे।"

भारत में भाषाई परिदृश्य (The language scenario in India)
भारत की मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ विभिन्नता में एकता है। भारत में विभिन्नता का स्वरूप न केवल भौगोलिक है, बल्कि भाषायी तथा सांस्कृतिक भी है। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1652 मातृभाषायें प्रचलन में हैं, जबकि संविधान द्वारा 22 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 344 के अंतर्गत पहले केवल 15 भाषाओं को राजभाषा की मान्यता दी गयी थी, लेकिन 21वें संविधान संशोधन के द्वारा सिन्धी को तथा 71वाँ संविधान संशोधन द्वारा नेपाली, कोंकणी तथा मणिपुरी को भी राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया। बाद में 92वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के द्वारा संविधान की आठवीं अनुसूची में चार नई भाषाओं बोडो, डोगरी, मैथिली तथा संथाली को राजभाषा में शामिल कर लिया गया। इस प्रकार अब संविधान में 22 भाषाओं को राजभाषा का दर्जा प्रदान किया गया है। भारत में इन 22 भाषाओं को बोलने वाले लोगों की कुल संख्या लगभग 90% है। इन 22 भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी भी सहायक राजभाषा है और यह मिज़ोरम, नागालैण्ड तथा मेघालय की राजभाषा भी है। कुल मिलाकर भारत में 58 भाषाओं में स्कूलों में पढ़ायी की जाती है। संविधान की आठवीं अनुसूची में उन भाषाओं का उल्लेख किया गया है, जिन्हें राजभाषा की संज्ञा दी गई है।
प्रमुख भारतीय भषाएँ
1.       असमिया असमिया लिपि मूलत: ब्राह्मी लिपि का ही एक विकसित रूप है। असम राज्य की राजभाषाहै.
2.       बांग्ला   बांग्ला ("বাংলা") लिपि मूलत: ब्राह्मी लिपि और असमिया लिपि का विकसित रूप है।   यह बांग्लादेश और भारत के पश्चिम बंगाल, असम तथा त्रिपुरा राज्यों में बोली जाती है।
3.       गुजराती गुजराती ("ગુજરાતી") नागरी लिपि का नया प्रवाही स्वरूप नवीन गुजराती को इंगित करता है। गुजरात राज्य की राजभाषा है।
4.       हिन्दी ब्राह्मी लिपि, देवनागरी लिपि, नागरी और फ़ारसी लिपि,   उत्तरी भारत, मॉरिशस व अन्य देश में बोली जाती है.
5.       कन्नड़  कन्नड़ ("ಕನ್ನಡ") कन्नड़ लिपि का विकास अशोक की ब्राह्मी लिपि के दक्षिणी प्रकारों से हुआ है। कर्नाटक राज्य की राजभाषा है।
6.       कश्मीरी ऐतिहासिक रूप से कश्मीरी भाषा को चार लिपियों में लिखा जाता है, शारदा, देवनागरी, फ़ारसी-अरबी और रोमन।       कश्मीर की भाषा है।
7.       कोंकणी  कोंकणी अनेक लिपियों में लिखी जाती रही है; जैसे - देवनागरी, कन्न्ड, मलयालम और रोमन। कोंकणी गोवा, महाराष्ट्र के दक्षिणी भाग, कर्नाटक के उत्तरी भाग, केरल के कुछ क्षेत्रों में बोली जाती है।
8.       मलयालम ("മലയാളം") में शलाका लिपि       मलयालम भाषा मुख्यतः दक्षिण-पश्चिमी तटीय राज्य केरल में बोली जाती है, यह केरल और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप की राजभाषा है; लेकिन सीमावर्ती कर्नाटक और तमिलनाडु के द्विभाषी समुदाय के लोग भी यह भाषा बोलते हैं।
9.       मणिपुरी इस भाषा की अपनी लिपि है, जिसे स्थानीय लोग मेइतेई माएक कहते हैं। मुख्यतः पूर्वोत्तर भारत के लिए मणिपुर राज्य में बोली जाने वाली भाषा है। यह असम, मिज़ोरम, त्रिपुरा, बांग्लादेश और म्यांमार में भी बोली जाती है।
10.   मराठी   "मराठी" भाषा को लिखने के लिए देवनागरी और इसके प्रवाही स्वरूप मोदी, दोनों लिपियों का उपयोग होता है।       महाराष्ट्र की राजभाषा है। इसे बोलने का मानक स्वरूप पुणे (भूतपूर्व पूना) शहर की बोली है। यह भाषा गोवा, कर्नाटक, गुजरात में बोली जाती है। केन्द्रशासित प्रदेशों में यह दमन और दीव , और दादरा तथा नगर हवेली में भी बोली जाती है।
11.   नेपाली  "नेपाली" यह भाषा नेपाल के अतिरिक्त भारत के सिक्किम, पश्चिम बंगाल, उत्तर-पूर्वी राज्यों आसाम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय तथा उत्तराखण्ड के अनेक लोगों की मातृभाषा है।
12.   उड़िया   उड़िया ("ଓରିୟା")  उड़ीसा राज्य की राजभाषा  310 लाख पंजाबी पंजाबी ("ਪੰਜਾਬੀ") पंजाबी भाषा भारत तथा पाकिस्तान में बोली जाती है।
13.   संस्कृत  "संस्कृत"       सिंधी  सिंधी भाषा मुख्यत: दो लिपियों में लिखी जाती है, अरबी-सिंधी लिपि   भारत, पाकिस्तान में बोली जाती है।
14.   तमिल  तमिल ("தமிழ்") ऐतिहासिक रूप से तमिल लेखन प्रणाली का विकास ब्राह्मी लिपि से वट्टे-लुटटु (मुड़े हुए अक्षर) और कोले-लुट्टु (लम्बाकार अक्षर) के स्थानीय रूपांतरणों के साथ हुआ।      तमिलनाडु की राजभाषा   है.
15.   उर्दू     उर्दू ("اردو") के लिए फ़ारसी-अरबी लिपि प्रयुक्त होती है. भारत, पाकिस्तान में बोली जाती है।
16.   तेलुगु   तेलुगु ("తెలుగు") आन्ध्र प्रदेश की सरकारी भाषा है.
17.   बोडो बोडो भाषा को भारत के उत्तरपूर्व, नेपाल और बांग्लादेश में रहने वाले बोडो लोग बोलते हैं।
18.   डोगरी   इसकी अपनी लिपि है, जिसे डोगरा अख्खर या डोगरे कहते हैं। जम्मू-कश्मीर राज्य की दूसरी मुख्य भाषा है.
19.   मैथिली  पहले इसे मिथिलाक्षर तथा कैथी लिपि में लिखा जाता था जो बांग्ला और असमिया लिपियों से मिलती थी पर कालान्तर में देवनागरी लिपि का प्रयोग होने लगा । मैथिली भाषा उत्तरी बिहार और नेपाल के तराई के ईलाक़ों में बोली जाने वाली भाषा है।      
20.   संथाली  झारखण्ड, असम, बिहार, उड़ीसा, त्रिपुरा, और पश्चिम बंगाल में बोली जाती है।

भारत में प्रकाशित होने वाले बड़े भाषाई समाचार पत्र (Major Indian language newspaper)
भारत ने सर्वाधिक हिंदी भाषा के समाचार पत्र सर्कुलेट होते हैं उसके बाद इंग्लिश और उर्दू समाचारपत्रों का स्थान है। भारत में प्रकाशित होने वाले कुछ प्रमुख बड़े भाषाई समाचार पत्रो का विवरण निम्नलिखित है....
असमीया भाषा के समाचार पत्र
आजिर दैनिक बातरि, आमार असम, दैनिक अग्रदूत, दैनिक जनमभूमि, दैनिक जनसाधारण, दैनिक असम, असमीया, प्रतिदिन, असमीया खबर, नियमीया बार्ता, एदिनर संबाद, गण अधिकार, निउज थार्टि, सादिन (साप्ताहिक), असम बानी (साप्ताहिक), अग्रदूत (अर्ध साप्ताहिक),
बांग्ला भाषा के समाचार पत्र
आजकाल, आनंद बाजार पत्रिका, वर्तमान, दैनिक जुगशंख, दैनिक सामयिक प्रसंग, दैनिक सोनार कछार, सेंचुरी संबाद, गणशक्ति, संवाद प्रतिदिन, संवाद, इकदिन, उत्तरबंग संबाद, प्रतिदिन, अंग्रेजी भाषा,
नियमित समाचारपत्र
गुजराती भाषा के समाचार पत्र
अकिला दैनिक, बांबे समाचार, दिव्य भास्कर, गुजरात समाचार, जय हिंद, संभव समाचार पत्र, संदेश, देश प्रदेश नी आजकल, नोबात, फुलचाब, कच्छमित्र
हिंदी भाषा के समाचार पत्र
नवभारत टाइम्स, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, नई दुनिया, पंजाब केसरी, राहत टाइम्स, डेली न्यूज़, दैनिक दबंग दुनिया, राष्ट्रीय स्वरुप, आज, पायनियर, स्वतंत्र चेतना, जन माध्यम , वायस ऑफ़ लखनऊ, स्वतंत्र भारत, संजीवनी टुडे, अमर भारती, अक्षर साक्षी (मासिक), जनकाल संदेश, वॉइस ऑफ ट्रेंड, दलित मंच, सत्यम् न्यूज़ (साप्ताहिक/दैनिक), प्रभात नमन, मिशन जयहिन्द, हेराल्ड यंग लीडर, मेट्रो हेराल्ड,  दैनिक पूर्वोदय, दो बजे दोपहर, हरिभूमि, हिंदी मिलाप, मुंबई दैनिक संध्या, कैरियर प्वाइंट साप्ताहिक, नई दुनिया, पूर्वांचल प्रहरी, प्रभात खबर, प्रात:काल, बच्चों की दुनिया (पाक्षिक), संकल्प सन्देश, राजस्थान पत्रिका, झारखण्ड जागरण, रांची एक्सप्रेस, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सेंटीनेल, विदर्भ चंदिका, व्यापार, राज एक्सप्रेस, यूनाइटेड भारत, संकल्प सन्देश साप्ताहिक, चंबल सुर्खी, संख्या पहल, अनुगामिनी, पत्रिका, गांडीव, उजाला दैनिक, सन्मार्ग, रोज़ की खबर, जनमुख, जनता सहकार, स्टार समाचार, दीपशील भारत, शाइन इण्डिया टाइम्स!, जनसंदेश टाइम्स,
कन्नड़ भाषा के समाचार पत्र
कन्नड़ प्रभा, जनतावाणी, जनता माध्यम, हसनवाणी, प्रजावाणी, क्रांति कन्नड़ डेली, संजीवनी, संयुक्त कर्नाटक, तरंग, उदयवाणी, उषाकिरण, विजय कर्नाटक, वार्ता भारती,
कश्मीरी भाषा के समाचार पत्र
कोशुर अखबार, सोन मीरास
मलयालम भाषा के समाचार पत्र
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मणिपुरी भाषा के समाचार पत्र
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समाचार-पत्रों की भूमिका (Role of Indian language newspapers in shaping outlook and cultural identities)  समाचार-पत्र जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है | समाचार-पत्रों की निष्पक्षता एंव निर्भीकता के साथ-साथ इसकी प्रामाणिकता के कारण इनकी विश्वसनीयता में तेजी से वृद्धि हुई है | यही कारण है कि संतुलित तरीके से समाचारों का प्रस्तुतीकरण कर रहे समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या निरंतर बढ़ती ही जा रही है|
सोलहवीं शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के साथ ही समाचार-पत्र की शुरुआत हुई थी, किन्तु इसका वास्तविक विकास अठारहवीं शताब्दी में हो सका | उन्नीसवीं शताब्दी आते-आते इनके महत्व में तेजी से वृद्धि होने लगी, जिससे आगे के वर्षों में यह एक लोकप्रिय एंव शक्तिशाली माध्यम बनकर उभरा | समाचार-पत्र कई प्रकार के होते हैं- त्रैमासिक, मासिक, पाक्षिक, सप्ताहिक एवं दैनिक | कुछ नगरों में समाचार-पत्रों के प्रातःकालीन व सायंकालीन संस्करण भी प्रस्तुत किए जाते हैं | इस समय विश्व के अन्य देशों के साथ-साथ भारत में भी दैनिक समाचार-पत्रों की संख्या अन्य प्रकार के पत्रों से अधिक है | भारत में भी समाचार-पत्रों की शुरुआत 18वीं शताब्दी में ही हुई थी |
भारत का पहला ज्ञात समाचार-पत्र अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित बंगाल गजटथा | इसका प्रकाशन 1780 ई. में जेम्स आगस्टस हिंकी ने शुरू किया था | कुछ वर्षों बाद अंग्रेजों ने इसके प्रकाशन पर प्रतिबंध लगा दिया | हिन्दी का पहला समाचार-पत्र उदन्त मार्त्तण्डथा | इस समय भारत में कई भाषाओं के लगभग तीस हजार से अधिक समाचार-पत्र प्रकाशित होते हैं | भारत में अंग्रेजी भाषा के प्रमुख दैनिक समाचार-पत्र द टाइम्स ऑफ इंडिया’, ‘द हिन्दू’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’, इत्यादि हैं | हिन्दी के दैनिक समाचार-पत्रों में दैनिक जागरण’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘हिंदुस्तान’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘नई दुनिया’, ‘जनसत्ताइत्यादि प्रमुख हैं |
जहां तक समाचार-पत्रों के कार्यों की बात है, तो यह लोकमत का निर्माण, सूचनाओं का प्रसार, भ्रष्टाचार एंव घोटालों का पर्दाफाश तथा समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने के लिए जाना जाता है | समाचार-पत्रों में हर वर्ग के लोगों को ध्यान में रखते हुए समाचार, फीचर एवं अन्य जानकारियां प्रकाशित की जाती हैं | लोग अपनी रूचि एंव आवश्यकता के अनुरूप समाचार, फीचर या अन्य विविध जानकारियों को पढ़ सकते हैं | टेलीविजन के न्यूज़ चैनलों के विज्ञापन से जहां झल्लाहट होती है, वहीं समाचार-पत्र के विज्ञापन पाठक के लिए मददगार साबित होते हैं | रोजगार की तलाश करने वाले लोगों एंव पेशेवर लोगों की तलाश कर रही कम्पनियों दोनों के लिए समाचार-पत्रों का विशेष महत्व है | तकनीकी प्रगति के साथ ही सूचना प्रसार में आई तेजी के बावजूद इंटरनेट एंव टेलीविजन इसका विकल्प नहीं हो सकते | समाचार-पत्रों से देश की हर गतिविधि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही मनोरंजन के लिए भी इसमें फैशन, सिनेमा इत्यादि समाचारों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाता है | समाचार-पत्र सरकार एंव जनता के बीच सेतु का कार्य करते हैं | आम जनता समाचार-पत्रों में अपने पत्र प्रकाशित कर अपनी समस्याओं से सबको अवगत करा सकती है | इस तरह आधुनिक समाज में समाचार-पत्र लोकतंत्र के प्रहरी का रूप ले चुके हैं |
समाचार-पत्रों की शक्ति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कई बार लोकमत का निर्माण करने में ये महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं | लोकमत के निर्माण के बाद जनक्रांति ही नहीं बल्कि अन्य अनेक प्रकार का परिवर्तन संभव है | यहां तक कि कभी-कभी सरकार को गिराने में भी ये सफल रहते हैं | बिहार में लालू प्रसाद यादव द्वारा किया गया चारा-घोटाला, आंध्र प्रदेश में तेलगी द्वारा किया गया डाक टिकट घोटाला, ए. राजा का 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कलमाडी का राष्ट्रमंडल खेल घोटाला इत्यादि अनेक प्रकार के घोटाले के पर्दाफाश में समाचार-पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रहती है |
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में समाचार-पत्रों में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की | 20वीं शताब्दी में भारतीय समाज में स्वतंत्रता की अलख जगाने एंव इसके लिए प्रेरित करने में तत्कालीन समाचार-पत्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी | महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, लाला लाजपत राय, अरविंद घोष, मदन मोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अमर स्वतंत्रता सेनानी भी पत्रकारिता से प्रत्यक्षत: जुड़े हुए थे | इन सबके अतिरिक्त प्रेमचंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र जैसे साहित्यकारों ने पत्रकारिता के माध्यम से समाचार-पत्रों को स्वतंत्रता संघर्ष का प्रमुख एवं शक्तिशाली हथियार बनाया |
इधर कुछ वर्षों से धन देकर समाचार प्रकाशित करवाने एवं व्यवसायिक लाभ के अनुसार पेड न्यूजसमाचारों का चलन बढ़ा है | इसके कारण समाचार-पत्रों की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठने शुरू हो गए हैं | इसका कारण यह है कि भारत के अधिकतर समाचार-पत्रों का स्वामित्व किसी-न-किसी उद्योगपति घराने के पास है | जनहित एंव देशहित से अधिक इन्हें अपने उद्यमों के हित की चिंता रहती है | इसलिए ये अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं | सरकार एंव विज्ञापनदाताओं का प्रभाव भी समाचार-पत्रों पर स्पष्ट देखा जा सकता है | प्रायः समाचार-पत्र अपने मुख्य विज्ञापनदाताओं के विरुद्ध कुछ भी छापने से बचते हैं | इस प्रकार की पत्रकारिता किसी भी देश के लिए घातक है | पत्रकारिता व्यवसाय से अधिक सेवा है | व्यावसायिक प्रतिबद्धता पत्रकारिता के मूल्यों को नष्ट करती है|
किसी भी देश में जनता का मार्गदर्शन करने के लिए निष्पक्ष एंव निर्भीक समाचार-पत्रों का होना आवश्यक है | समाचार-पत्र देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों की सही तस्वीर प्रस्तुत करते हैं | चुनाव एंव अन्य परिस्थितियों में सामाजिक एंव नैतिक मूल्यों से जन-साधारण को अवगत कराने की जिम्मेदारी भी समाचार-पत्रों को वहन करनी पड़ती है | इसलिए समाचार-पत्रों के आभाव में स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती|

समाज सुधार आंदोलन बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश , तमिलनाडु (Renaissance in Bengal, Social reform in Maharashtra and Tamilnadu & Uttar Pradesh)
19वीं सदी को भारत में धार्मिक एवं सामाजिक पुनर्जागरण की सदी माना गया है। इस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी की पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से आधुनिक तत्कालीन युवा मन चिन्तनशील हो उठा, तरुण व वृद्ध सभी इस विषय पर सोचने के लिए मजबूर हुए। यद्यपि कम्पनी ने भारत के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के प्रति संयम की नीति का पालन किया, लेकिन ऐसा उसने अपने राजनीतिक हित के लिए किया। पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित लोगों ने हिन्दू सामाजिक रचना, धर्म, रीति-रिवाज व परम्पराओं को तर्क की कसौटी पर कसना आरम्भ कर दिया। इससे सामाजिक व धार्मिक आन्दोलन का जन्म हुआ। अंग्रेज़ हुकूमत में सदियों की रूढ़ियों से जर्जर एवं अंधविश्वास से ग्रस्त औद्योगिकी नगर कलकत्ता, मुम्बई, कानपुर, लाहौर एवं मद्रास में साम्यवाद का प्रभाव कुछ अधिक रहा। भारतीय समाज को पुनर्जीवन प्रदान करने का प्रयत्न प्रबुद्ध भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक सुधारकों, सुधारवादी ब्रिटिश गवर्नर-जनरलों एवं पाश्चात्य शिक्षा के प्रसार ने किया।
नवजागरण की शुरुआत
भारत में ब्रिटिश सत्ता के पैर जमने के बाद यहाँ का जनमानस पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृति के सम्पर्क में आया, परिणामस्वरूप नवजागरण की शुरुआत हुई। भारतीय समाज की आंतरिक कमज़ोरियों का पक्ष उजागर हुआ। अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारत के धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किया। अंग्रेज़ी शिक्षा व संस्कृति का प्रभाव सर्वप्रथम भारतीय मध्यम वर्ग पर पड़ा। तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं वाह्म आडम्बरों को समाप्त करने में पाश्चत्य शिक्षा ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस शिक्षा के प्रभाव में आकर ही भारतीयों ने विदेशी सभ्यता और साहित्य के बारे में ढेर सारी जानकारियाँ एकत्र कीं तथा अपनी सभ्यता से उनकी तुलना कर सच्चाई को जाना। प्रारम्भ में अर्थात् 1813 ई. तक कम्पनी प्रशासन ने भारत के सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया, क्योंकि वे सदैव इस बात से सशंकित रहते थे कि, इन मामलों में हस्तक्षेप करने से रूढ़िवादी भारतीय लोग कम्पनी की सत्ता के लिए ख़तरा उत्पन्न कर सकते हैं। परन्तु 1813 ई. के बाद ब्रिटिश शासन ने अपने औद्योगिक हितों एवं व्यापारिक लाभ के लिए सीमित हस्तक्षेप प्रारम्भ कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप कालान्तर में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलनों को जन्म हुआ। 'हीगल' के मतानुसार-"पुनर्जागरण के बिना कोई भी धर्म सम्भव नहीं।"
ब्रह्मसमाज
ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया। देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना। राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए।
आदि ब्रह्मसमाज
आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना ब्रह्मसमाज के विभाजन के उपरान्त आचार्य केशवचन्द्र सेन द्वारा की गई थी। आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुई थी। ब्रह्मसमाज का 1865 ई. में विखण्डन हो चुका था। केशवचन्द्र सेन को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने आचार्य के पद से हटा दिया। फलतः केशवचन्द्र सेन ने 'भारतीय ब्रह्म समाज' की स्थापना की, और इस प्रकार पूर्व का ब्रह्मसमाज 'आदि ब्रह्मसमाज' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
प्रार्थना समाज
प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई (महाराष्ट्र) में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर आदि द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे। प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन प्रदान करना था।
आर्य समाज
10 अप्रैल सन् 1875 ई. में बम्बई में दयानंद सरस्वती ने 'आर्य समाज' की स्थापना की। इसका उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, भारत को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में गुजरात के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में मूलशंकरके नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम 'स्वामी दयानन्द सरस्वती' रखा।
रामकृष्ण मिशन
'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 ई. में की थी। उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और सन्न्यासियों को संगठित करना था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दु:खी एवं पीड़ित मानव जाति की नि:स्वार्थ सेवा कर सकें। 1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने शिकांगो में हुई धर्म संसद में भाग लेकर पाश्चात्य जगत को भारतीय संस्कृति एवं दर्शन से अवगत कराया। धर्म संसद में स्वामी जी ने अपने भाषण में भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कही। विवेकानन्द ने पूरे संसार के लिए एक ऐसी संस्कृति की कल्पना की, जो पश्चिमी देशों के भौतिकवाद एवं पूर्वी देशों के अध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कर सके तथा सम्पूर्ण विश्व को खुशियाँ प्रदान कर सके।
थियोसोफ़िकल सोसाइटी
'थियोसोफ़िकल सोसाइटी' की स्थापना वर्ष 1875 ई. में न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमरीका) में तथा इसके बाद 1886 ई. में अडयार (चेन्नई, भारत) में की गई थी। इसके संस्थापक 'मैडम हेलना पेट्रोवना व्लावात्सकी' एवं 'कर्नल हेनरी स्टील ऑल्काट' थे। थियोसोफ़िकल सोसाइटी का मुख्य उद्देश्य धर्म को आधार बनाकर समाज सेवा करना, धार्मिक एवं भाईचारे की भावना को फैलाना, प्राचीन धर्म, दर्शन एवं विज्ञान के अध्ययन में सहयोग करना आदि था। भारत में इसकी व्यापक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने का श्रेय एनी बेसेंट को दिया जाता है।
यंग बंगाल आन्दोलन
यंग बंगाल आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1828 ई. में बंगाल में की गई थी। इसके संस्थापक 'हेनरी विविनय डेरोजियो' (1809-1831 ई.) थे। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य प्रेस की स्वतन्त्रता, ज़मींदारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से रैय्यत की संरक्षा, सरकारी नौकरियों में ऊँचे वेतनमान के अन्तर्गत भारतीय लोगों को नौकरी दिलवाना था। एंग्लों-इंडियन डेरोजियो हिन्दू कॉलेजमें अध्यापक थे। वे फ़्राँस की महान् क्रांति से बहुत प्रभावित थे।
अलीगढ़ आन्दोलन
'अलीगढ़ आन्दोलन' की शुरुआत अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) से हुई थी। इस आन्दोलन के संस्थापक सर सैय्यद अहमद ख़ाँ थे। सर सैय्यद अहमद ख़ाँ के अतिरिक्त इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता थे- नजीर अहमद, चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, मौलाना शिबली नोमानी आदि। दिल्ली में पैदा हुए सैय्यद अहमद ने 1839 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली। कम्पनी की न्यायिक सेवा में कार्य करते हुए 1857 ई. के विद्रोह में उन्होंने कम्पनी का साथ दिया। 1870 ई. के बाद प्रकाशित 'डब्ल्यू. हण्टर' की पुस्तक 'इण्डियन मुसलमान' में सरकार को यह सलाह दी गई थी कि वे मुसलमानों से समझौता कर तथा उन्हें कुछ रियायतें देकर अपनी ओर मिलाये।
वहाबी आन्दोलन
वहाबी आन्दोलन 1830 ई. से प्रारम्भ होकर 1860 ई. चलता रहा था। इतने लम्बे समय तक चलने वाले 'वहाबी आन्दोलन' के प्रवर्तक रायबरेली के 'सैय्यद अहमद' थे। यह विद्रोह मूल रूप से मुस्लिम सुधारवादी आन्दोलन था, जो उत्तर पश्चिम, पूर्वी भारत तथा मध्य भारत में सक्रिय था। सैय्यद अहमद इस्लाम धर्म में हुए सभी परिवर्तनों तथा सुधारों के विरुद्ध थे। उनकी इच्छा हजरत मोहम्मद के समय के इस्लाम धर्म को पुन:स्थापित करने की थी।
अहमदिया आन्दोलन
अहमदिया आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1889 ई. में की गई थी। इसकी स्थापना गुरदासपुर (पंजाब) के 'कादिया' नामक स्थान पर की गई। इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में इस्लाम धर्म के सच्चे स्वरूप को बहाल करना एवं मुस्लिमों में आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। अहमदिया आन्दोलन की स्थापना 'मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद' (1838-1908 ई.) द्वारा 19वीं शताब्दी के अंत में की गई थी।
देवबन्द स्कूल
देवबन्द स्कूल की स्थापना मुहम्मद क़ासिम ननौत्वी (1832-1880 ई.) एवं रशीद अहमद गंगोही (1828-1905 ई.) द्वारा की गई थी। इस स्कूल की शुरुआत 1866-1867 ई. में देवबन्द, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) से की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए धार्मिक नेता तैयार करना, विद्यालय के पाठ्यक्रमों में अंग्रेज़ी शिक्षा एवं पश्चिमी संस्कृति को प्रतिबन्धित करना, मुस्लिम सम्प्रदाय का नैतिक एवं धार्मिक पुनरुद्धार करना तथा अंग्रेज़ सरकार के साथ असहयोग करना था।

आजादी से पूर्व भारतीय पत्रकारिता की भूमिका (Role of Indian Newspapers: Pre independence)
मीडिया का एक वर्ग भारतीयता, आजादी और राष्ट्रवाद के विरुद्ध था जैसा कि आज मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रवादी भावनाओं की खुली मुखालफत कर रहा है। कहना गलत नहीं होगा की पत्रकारिता का वह जहरीला बीज आजादी के 68 साल बाद आज निकृष्ट पत्रकारिता के रुप में वट वृक्ष बन चुका है जिसकी टहनियां भारत माता की आंचल को खरोंच रही है। मीडिया का यह वर्ग आज राष्ट्रविरोधी तत्वों को अभिव्यक्ति की आजादी और नकली प्रगतिशीलता का कवच पहनाकर नायक बनाने पर आमादा है। बीते दिनों जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में छात्रों के एक वर्ग द्वारा भारत विरोधी नारे लगाए गए और भारत के कई टुकड़े करने की हिमायत की गयी। दुर्भाग्य से मीडिया का यह वर्ग इन राष्ट्रद्रोही छात्रों की जुबान बनता नजर आया। पत्रकारिता का यह वर्ग अपने को राष्ट्रवादी या लोकतांत्रिक होने की चाहे जितनी दुहाई दे लेकिन सच यही है कि उसने अपने नकारात्मक विचारों और तेवरों से राष्ट्र की एकता, अखंडता और संप्रभुता को खंडित किया। पत्रकारिता के तथाकथित इन अलंबरदारों को गौर करना होगा कि आजादी के दौरान पत्रकारिता के अग्रदूतों ने मूल्य आधारित राष्ट्रवादी पत्रकारिता की नींव इसलिए डाली कि आजादी के लक्ष्य को हासिल करने के साथ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ देश के नागरिकों विशेषकर युवाओं में राष्ट्रीय भावना का संचार करेगा। पत्रकारिता के अग्रदूतों का लक्ष्य अपनी लेखनी और विचारों के जरिए भारतीय संस्कृति, मूल्य, प्रतिमान और सारगर्भित विचारों की विरासत को सहेजना और एक सामर्थ्यवान भारत का निर्माण करना था। क्या आज की तथाकथित सेकुलर मीडिया जो अपनी निष्पक्षता की कोरा दावा करती है कि उस कसौटी पर खरा है? क्या उसकी खबरें और वैचारिक सरोकार राष्ट्रीय भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या वह देश के जनमानस में राष्ट्रीय भावना का संचार कर रही है? सच तो यह है कि आज की मीडिया का एक बड़ा वर्ग इंडस्ट्री की तरह काम कर रहा है जिसकी खबर और सरोकार राष्ट्रवादी नहीं बल्कि षडयंत्रकारी है जिसका मकसद भारतीयता और राष्ट्रीयता को चोट पहुंचाना है। उसे न तो राष्ट्रहित की चिंता है और न ही भावी पीढ़ी को संवारने की जिसके मार्फत भारत का भविष्य तय होना है। कॉरपोरेट कम्युनिकेशन की सुनामी में समा चुकी इस पत्रकारिता के पैरोकारों में न तो सच लिखने का माद्दा है और न ही राष्ट्र के प्रति कोई जवाबदेही और जिम्मेदारी। उनका सिर्फ एक मकसद देश को भ्रमित करना है। उचित होता कि मौजुदा पत्रकारिता के ये सिरमौर लाला लाजपत राय, महामना मदनमोहन मालवीय, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी, बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल सरीखे आजादी के दीवानों की पत्रकारिता को अपना आदर्श मूल्य व विचार बनाते। बाल गंगाधर तिलक ने जब मराठी भाषा में केसरीऔर अंग्रेजी भाषा में मराठानामक पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ किया तो उन्होंने राष्ट्रीय व सामाजिक सरोकारों को आगे रखा। उनके आंखों में भारत की आजादी और समतामूलक समाज का सपना था, जो उनके पत्रों में स्पष्ट परिलक्षित और प्रतिबिंबित होता था। उन दिनों कोल्हापुर रियासत के शासन में बड़ा अंधेर मचा था। इस अंधेरगर्दी के खिलाफ केसरीने जोरदार आवाज बुलंद की लेकिन गोरी सरकार को यह रास नहीं आया। सो उसने बाल गंगाधर तिलक और उनके सहयोगियों पर मुकदमा चलाकर जेल में डाल दिया। लेकिन तिलक अपने पत्रों के जरिए भारतीय जनमानस में चेतना भरने में कामयाब रहे। यही नहीं वे इन समाचारपत्रों के जरिए ब्रिटिश शासन तथा उदार राष्ट्रवादियों की, जो पश्चिमी तर्ज पर सामाजिक सुधारों तथा संवैधानिक तरीके से राजनीतिक सुधारों का पक्ष लेते थे, की भी कटु आलोचना के लिए विख्यात हो गए। लाल-बाल-बाल की तिकड़ी के तीसरे नायक व क्रांतिकारी विचारों के जनक विपिन चंद्र पाल ने अपनी धारदार पत्रकारिता के जरिए स्वतंत्रता आंदोलन में जोश भर दिया। उन्होंने अपने गरम विचारों से स्वदेशी आंदोलन में प्राण फूंका और अपने पत्रों के माध्यम से ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज तथा औद्योगिक तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल इत्यादि हथियारों से ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी। उन्होंने 1880 में परिदर्शक’, 1882 में बंगाल पब्लिक ओपिनियन’, 1887 में लाहौर ट्रिब्यून’, 1892 में द न्यू इंडिया’, 1901 में द इनडिपेंडेंट इंडिया’, 1906-07 में वंदेमातरम्, 1908-11 में स्वराज’, 1913 में हिंदू रिव्यू’, 1919-20 द डैमोक्रैटऔर 1924-25 में बंगालीके जरिए आजादी की लड़ाई को धार दिया और भविष्य की पत्रकारिता के मूल्यों को परिभाषित किया। महान देशभक्त पंडित मदन मोहन मालवीय ने देश की चेतना को प्रबुद्ध करने के लिए कई पत्रों का संपादन किया। कालाकांकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर उन्होंने उनके हिंदी व अंग्रेजी समाचार पत्र हिन्दुस्तान का संपादन कर देश की जनता को जाग्रत किया। उन्होंने 1907 में साप्ताहिक अभ्युदयऔर ब्रिटिश सरकार समर्थक पत्र पॉयनियरके समकक्ष 1909 में दैनिक लीडरअखबार निकालकर जनमत निर्माण का महान कार्य संपन्न किया। फिर 1924 में दिल्ली आकर हिन्दुस्तान टाइम्सको सुव्यवस्थित किया तथा सनातन धर्म को गति देने हेतु लाहौर से विश्वबन्ध जैसे अग्रणी पत्र को प्रकाशित करवाया। देश में नवजागृति और नवीन चेतना का संचार करने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी महामना के पत्र अभ्युदयसे जुड़ गए और 1913 में प्रतापनामक समाचार पत्र का प्रकाशन कर ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलानी शुरु कर दी। प्रतापके प्रथम संस्करण में ही उन्होंने हुंकार भरा कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक-आर्थिक क्रांति व उत्थान, जातीय गौरव और साहित्यिक विरासत के लिए, अपने हक अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। प्रतापमें प्रकाशित नानक सिंह की सौदा ए वतनकविता से नाराज होकर अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाकर प्रतापका प्रकाशन बंद करवा दिया। लेकिन हार न मानने वाले इस शूरवीर ने प्रतापका पुनः प्रकाशन किया और सरकार की दमनपूर्ण नीति की सख्त मुखालफत की। गौर करें तो स्वतंत्रता आंदोलन की जंग से पूर्व ही 1857 की क्रांति की घटना ने राष्ट्रीय जागरण के युग की शुरुआत कर दी और 19वीं शताब्दी के प्रथम अर्धभाग में अंग्रेजी तथा देशी भाषाओं में समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने नवचेतना का संचार करना शुरू कर दिया। राष्ट्रवादी संपादकों, पत्रकारों एवं लेखकों ने अपने संपादकीय, लेखों और खबरों के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिलानी शुरू कर दी। उनका लक्ष्य ब्रिटिश पंजे से भारत को मुक्ति दिलाना ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता बाद एक लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज का निर्माण करना भी था। 18वीं शताब्दी में जब भारतीय समाज बहु-विवाह, बाल-विवाह, जाति प्रथा और पर्दा-प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों से अभिशप्त था उस दरम्यान भी पत्रकारिता के अग्रदूतों ने समाज को संस्कारित करने का काम किया। इन अग्रदूतों में से एक राजाराम मोहन राय ने संवाद कौमुदीऔर मिरातुल अखबारके जरिए भारतीय जनमानस को जाग्रत किया। नवजागरणके परिणाम स्वरुप देश में अनेक समाचार पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिनमें 1861 में टाइम्स ऑफ इंडिया’, 1865 में पॉयनियर’, 1868 में अमृत बाजार पत्रिका’, 1875 में स्टेट्समैनऔर 1880 में ट्रिब्यूनइत्यादि समाचार पत्र प्रमुख है। इन समाचार पत्रों में कुछ ब्रिटिश हुकूमत के पाल्य थे और उनकी स्वामीभक्ति ब्रिटिश साम्राज्य के चरणों में थी। ठीक उसी तरह जैसा कि आज के कुछ समाचार पत्रों की विचारधारा पूर्णतः राष्ट्रवादिता के विरुद्ध है। समाचार पत्रों की भूमिका तब और प्रासंगिक हो जाती है जब राष्ट्र संक्रमण के दौर से गुजरता है। लेकिन जब समाचार पत्र ही राष्ट्रवाद पर कुठाराघात कर देशद्रोहियों की पैरोकारी करेंगे और सत्य के उद्घाटन की जगह प्रायोजित झुठ को स्थापित करेंगे तो फिर पत्रकारिता का उद्देश्य और मूल्य खण्डित होगा ही। उचित होगा कि पत्रकारिता की आड़ में राष्ट्रविरोधी तत्वों को प्रश्रय देने वाले मीडिया समूह अपने राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को समझते हुए हर घटनाओं का सार्थक मूल्यांकन करें और देश व समाज को गुमराह करने के बजाए उन्हें सत्य से परिचित कराएं। राष्ट्रविरोधी कृत्यों के राष्ट्रद्रोहियों को अभिव्यक्ति और आजादी का कवच कुंडल पहनाकर उन्हें नायक बनाने की प्रवृत्ति राष्ट्र के साथ धोखाधड़ी और समाज के साथ छल है।

आजादी के बाद मीडिया की भूमिका (Role of Indian Newspapers: Post independence)
आधुनिक युग में प्रेस को विभिन्न प्रकार के कार्यो को सम्पन्न करने का दायित्व सौंपा गया है । प्रेस का सबसे प्रमुख कार्य विश्व में घटित हो रही प्रत्येक प्रकार की घटनाओं से हमें अवगत कराना है ।
समाचारपत्र राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक तथा धार्मिक और अन्य विभिन्न विषयों पर अपने दृष्टिकोण तथा विचारों को अभिव्यक्त करते हैं । इस प्रकार ये लोकमत की सर्जना, संरचना तथा लोकमत को निर्देशित करते है ।
जनता के अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं के हनन के किसी भी प्रकार के प्रयत्न के विरूद्ध अपनी शक्तिशाली आवाज बुलन्द करके समाचार-पत्र सर्वसाधारण के लिए सर्वदा सजग, सचेत संरक्षक की भूमिका अदा करते हैं । ये जनता की माँगों तथा आकांक्षाओं को उजागर करते हैं । लोगों की शिकायतों, कठिनाइयों को प्रकाश में लाते हैं ।
समाचारपत्र अच्छे तथा पवित्र कारणों तथा उनके उपायों को सुझाते हैं । समाचारपत्र एक शिक्षक की भूमिका भी अदा करते हैं। अपने पाठकों को विश्व में प्रचलित विचारधाराओं तथा ज्ञान की विभिन्न शाखाओं से अवगत करा कर ज्ञान बढ़ाते हैं।
आजादी के बाद भारतीय पत्रकारिता ने जिस प्रकार की उड़ान भरी उसकी कल्पना नही की जा सकती थी, वैसे अंगे्रजी शासन के दौरान जिन्होने पत्रकारिता की शुरूआत की थी, देश के सबसे बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वह भी लेकिन अंग्रेजो के बाद आजाद भारत में ऐसे पत्रकारों को संविधान में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी घोषित नही किया गया। यह पत्रकारों के साथ अन्याय व पक्षपात ही कहा जा सकता है। आजादी के पूर्व की पत्रकारिता सार्वजनिक सूचना, संदेश, प्रिंट मीडिया का जन्म भी विदेशो में होने का देख मिलता है, लेकिन हमारी भारतीय संस्कृति के इतिहास में पत्रकारिता का जन्म करोड़ो साल पूर्व से चला आ रहा है जिसका प्रमाण देव ऋषि महर्षि नारद जी को श्रेय जाता है, उसके बाद, रामभक्त श्री हनुमान जी को जाता है । इस प्रकार से भारतीय पत्रकारिता के प्रमाण का इतिहास बहुत पुराना है,। देश के अंदर मुनादी कराकर, षिलालेखों के माध्यम से, प्रचार सामग्री के माध्यम के बाद समाचार पत्रों के माध्यम से शासन-प्रशासन की खबर जनता तक, जनता की खबर सरकार तक देना ही पत्रकारिता हुआ करती थी । भौतिकवादी युग में अपराधिक समाचार, नेताओं, अधिकारियों के भृष्टाचार, उनके काले कारनामें ही बर्तमान में पत्रकारिता की मुख्य सुर्खिया रह गई है ।

भारतीय इतिहास में पत्रकारिता जन संचार के स्त्रोत कहे जाते है, पत्रकारिता को हम संदेश, सूचना के रूप में स्वीकार करते है, पत्रकारिता के माध्यम विकाष के गति के साथ संसाधन उपलध्य होने के कारण हस्तलिखित समाचार संदेश सूचना लोगों तक पहुॅचाई जाती रही, धीरे धीरे समाचार आदान-प्रदान के साधन मिलने के बाद पत्र चिठ्ठी हुआ करती थी, उसके बाद प्रेस मषीन की खोज होने के बाद पिं्रट मीडिया का अविष्कार हुआ जिसमें लधु एवं छोटे छोटे समाचार पत्र प्रकाषित किए जाते रहे । लगभग सो साल पूर्व भारत देश में अनेक समाचार पत्रों का प्रकाशन शुरू हुआ जिसमेें समाचार पत्रों का पंजीयन आवष्यक किया गया । प्रेस अधिनियम व पत्रकारिता के नियम व कानून बनाऐ गये । गुलाम भारत को आजादी दिलाने में समाचार पत्रों की अहम भूमिका रही । जनता की आवाज बनकर पत्र, पत्रिकाऐं, समाचार पत्र, रेडियों, को माध्यम बनाया गया । सरकार विरोधी खबरों को छोड़कर खबरों का आजादी में आदान प्रदान हुआ । देश के नेताओं, महापुरूषों की पहचान भी समाचार पत्रों, संदेषो के कारण बनी ।

भारत देश आजाद होने के बाद प्रेस को भी आजादी दी गई तथा आम व्यक्ति को संविधान के तहत उनके मौलिक अधिकारों के साथ अपनी बात कहने जन जन तक पहुॅचाने के लिए प्रेस की आजादी में छूट दी गई, प्रेस की आजादी के साथ समाचार पत्रों के पंजीयन में छूट मिलने के कारण देश के अंदर सैकड़ों समाचार पत्रों को क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन हुआ तथा आकाषवाणी रेडियों के माध्यम से देश की जनता को जाग्रत किया गया । भारतीय संस्कृति एंव संस्कारों को जन जन तक पहुॅचाने केलिए सांस्कृतिक आयोजनों का प्रकाशन, प्रसारण किया गया । समाचार पत्रों का आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनाने केलिए उन्हे विज्ञापन नीति में सुविधाऐं दी गई। सन् 1962 में भारत पाक, भारत चीन युद्ध के बाद समाचारों की अहमियत बढ़ी तथा सन् 1971 में भारत पाक युद्ध के साथ पत्रकारिता अपने चरम तक पहुॅच गई थी । सन् 1980 में प्रिंट मीडिया के साथ साथ इलेक्ट्रानिक मीडिया का महत्व लोगों में आने लगा जिससे कैमरा, बीडियों ग्राफी, रिर्काडिंग, एलबंम बनाने की बिधि के अनुसार पत्रकारिता में सहयोग लिया जाने लगा । देश में होने बाले आंतकवादी की शुरूआत सन् 1982 से हुई जिसका परिणाम भारत रत्न प्रधानमंत्री श्रीमूती इन्द्रिरागाॅधी की हत्या से आतंकवाद का तुफान भारत देश में आया । इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडियाॅ ने अपना कदम रखा । पूर्व प्रधानमंत्री स्व0राजीव गाॅधी ने इलेक्ट्रानिक मीडिया को भारत में बढ़ावा दिया जिस कारण देश के अंदर पल पल की आॅखों देखी खबरें आम जन तक पहुॅचने लगी । वर्ष 2000 के बाद कम्प्यूटर एवं सोषल मीडियाॅ अविष्कार हुआ जिस कारण सालों का काम घंटों में होने लगा । देश में लाखों समाचार पत्रों के प्रकाशन के साथ साथ टीव्ही चैनल, सोषल मीडिया, बेब साईट, बेब पोर्टल अनेकानेक आविष्कार हुए।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ साथ माबाईल एवं उसमें मिलने बाली सुविधाओं के कारण दुनिया मुठ्ठी में आ गई। आज हम आप एक एक पल की खबरें प्राप्त करते है भेजते है। इस प्रकार के आविष्कार से जहां मानव की आवष्यकताओं को राहत मिली वहीं समय व आर्थिक व्यय कम हुआ लेकिन इनके दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे है ।

भारतीय पत्रकारिता की आजादी को बनाऐ रखने के लिए संविधान में जो कानूनी धाराऐं हैं, उनका ज्ञान आम पत्रकार को नही होता है, भारतीय पत्रकारिता के लिए प्रेस परिषद का गठन किया जाता है, उसमें देश के अंदर के निर्वाचित एवं मनोनीत सदस्य होते है, भारतीय प्रेस परिषद किसी भी संपादक, पत्रकार, चैनल को सीमा के अंदर दंडित करने के अधिकार तो दिये है लेकिन सजा के अधिकार नही दिए है , पत्रकारिता से पीडि़त परेषान को न्याय प्रदान कराने की समय सीमा नही रखी गई है , इस प्रकार एक तरह से पत्रकारिता की आजादी का दुरूपयोग हो रहा है। समाचार पत्रों के प्रकाशन, इलेक्ट्रानिक चैनले के प्रसारण के जो नियम व कानून है उनका पालन कराने बाले ही स्वयं कानून की धज्जिया उड़ाते पाये जाते है तो फिर न्याय मिलने की आषा नही रहती है इसलिए आम व्यक्ति सा पीडि़त पत्रकारिता से जुड़े लोगों से उलझना उचित नही समझते है। यदि पत्रकारिता के नियम व कानून के तहत समाचार प्रकाशन, प्रसारण की सीमाऐं होने के बाद लाघने पर तत्काल समाचार पत्र का प्रकाशन एवं चैनल का प्रसारण बंद करने वाली कमेटी बनाई जावे तो आजाद भारत में प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाला प्रेस पत्रकार देश के लिए अपने कर्तव्य का दायित्व का निर्वाहन कर सकता है अन्यथा पत्रकारिता विज्ञापन एवं व्यवसायिक संस्थाऐं बनती चली जा रही है जिसका लाभ सीधे तौर पर संपादक, प्रकाषक, मुदंक एवं संचालक को मिलता है, पत्रकारिता से जुड़े कर्मचारी ,संवाददाता, प्रतिनिधि ब्यूरो चीफ अपने परिवार के संचालन एवं भरण पोषण के लिए अपनी नैतिक जिम्मेदारी का त्याग कर कहीं न कहीं से गलत रास्ते तय करेगा तथा उस पर कालावाजादी, भृष्टाचार, व्लैक मेल जैसे आरोप लगते रहेगे। आजादी के बाद पत्रकारिता एक मिशन एंव जनता की आवाज हुआ करती थी तथा एक सीमा के सैनिक की तरह देश के अंदर अपने कर्तव्यों का पालन किया करते थें, आज पत्रकारिता प्रतिष्ठा, सम्मान, का रास्ता तय कर रही है, साथ ही अपराधों को दवाने, कानून की रक्षा करने की बजाद नेताओं, जनप्रतिनिधिओं, अपराधिओं की चाटुकारिता का हथियार बन चकी है । जिस प्रकार राजनेतिक नेता की योग्यता, अनुभव नही होता, उसी प्रकार से समाचार पत्र बैचने बाले ऐजेन्ट, हाकर भी पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर प्रजातंत्र के चैथें स्तंभ बनकर उसे हमेषा गिराने केलिए गरजते रहते है । आज पत्रकारिता जोखिम भरी काॅटों का रास्ता बन गया। इस पर चलने के लिए न तो भारत सरकार कोई सुरक्षा दे पा रही है न ही प्रदेश सरकारें पत्रकारों के परिवारों के भरण पोषण एंव सुरक्षा के लिए उपाय कर रही है इसलिए पत्रकारिता कागजों एवं प्रसारण तक सीमित हो रही है । देश व प्रदेश में पत्रकारों के हितों के लिए कार्य करने बाले संगठनों में भी आगे -पीछे से ईमानदारी के दरवाजे बंद होने के कारण संगठन एवं उनसे जुड़े पदाधिकारी किसी न किसी राजनैतिक दलों के साथ जुड़े है या वह अपनी आमदानी के लिए गलत रास्ता तय कर अपने अपने संगठनों का संचालित करने में पीछे नही है।

समाचार एजेंसियों का उद्भव और विकास
दुनिया के एक कोने की खबर दूसरे कोने तक पहुंचाने का काम आसान नहीं । हर पत्र-पत्रिका के लिए भी यह सम्भव नहीं कि वो हर छोटी-बड़ी जगह पर अपने संवाददाता तैनात कर सकें । इस मुश्किल को आसान बनाती हैं, समाचार समितियाँ यानी न्यूज एजेंसी। युनेस्को ने न्यूज एजेंसी को इस प्रकार परिभाषित किया है, ‘समाचार समिति एक उद्यम है जिसका प्रमुख उद्देश्य समाचार, एवं समसामयिक जानकारी एकत्र करना और तथ्यों को प्रस्तुत करना है तथा उन्हें समाचार, प्रकाशन संस्थाओं केा या अन्य उपभोक्ताओं को इस दृष्टिकोण से वितरित करना है कि उन्हें व्यावसायिक एवं नियमानुकूल स्थितियों में मूल्य चुका कर सम्पूर्ण और निष्पक्ष समाचार मिल सकें।
समाचार समितियाँ एक ही समाचार को अपने सभी उपभोक्ताओं तक एक साथ पहुंचा देती है। इनकी मदद लिए बिना पत्र पत्रिकाओं के लिए भी अपने प्रकाशन नियमित रख पाना सम्भव नहीं है। संचार टैक्नोलाजी में लगातार होते परिवर्तनों के साथ-साथ इन्होनें भी अपने तौर तरीकों में बदलाव किया है। आज समाचार एजेंसियाँ सिर्फ खबरें ही नहीं देती बल्कि फीचर और विशेष लेख, तस्वीरें आदि भी उपलब्द्व कराती हैं। हालांकि समाचार समितियों की भूमिका सीमित है लेकिन इनके समाचार जनमत को प्रभावित करते रहते हैं क्योंकि उनका प्रकाशन एक से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में साथ-साथ होता है।
समाचार एजेंसियों की शुरूआत ब्रिटेन में हुर्इ मानी जा सकती है। 1686 में एडवर्ड लायड ने लन्दन की टावर स्ट्रीट में एक काफी हाऊस खोला था। यहां पर अलग-अलग इलाकों के व्यापारी आते थे । इनसे मिली जानकारियों को लन्दन के अखबारों तक पहुंचा कर लायड को प्रति सप्ताह 21 शिलिंग की आय हो जाती थी । इस तरह यह पहली समाचार वितरण संस्था अस्तित्व में आर्इ । बाद में यूरोप और अमेरिका के 28 बंदरगाहों में इसके प्रतिनिधि हो गए थे जो अपने-अपने बंदरगाह में आने वाले जहाजियों और व्यापारियों से खबरें प्राप्त करते थे । लायड की तरह ही अमेरिका के बोस्टन के एक कॉफी हाऊस के मालिक सैमुनल टापलिफ ने भी अमेरिकी अखबारों के लिए विदेशी समाचार जुटाने का काम 1801 में शुरू कर दिया था । बाद में टापलिफ युरोप आया और उसने वहाँ भी अपना काम जारी रखा। बाद में उसके काम की परिणिति हारबर एसोसिएशनके रूप मे हुर्इ । हारबर एसोसिएशनका गठन 1849 में कर्इ समाचार पत्रों ने आपसी सहयोग के आधार पर जल्दी खबरें प्राप्त करने के लिए किया था । इसी दौर में पुर्तगाल निवासी चाल्र्स हावा ने हावा एजेंसीऔर जूलियस रायटर ने भी अपने नाम से एक समाचार समिति की स्थापना की ।
गौरतलब है कि समाचार एजेंसियों की दुनिया के विस्तार में समुद्री परिवहन और व्यापारियों ने बड़ा योगदान किया था लेकिन इन साधनों से खबरों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने में बड़ा समय लगता था । मसलन नैपोलियन बोनापार्ट का निधन 5 मर्इ 1821 को सेंट हेलना द्वीप में हुआ था। लेकिन पेरिस तक यह खबर 6 जुलार्इ 1821 को पहंचु पार्इ थी और उन दिनों 2 महीने की देरी कोर्इ देरी नहीं मानी जाती थी । रायटर ने सबसे पहले समुद्री केवलों के जरिए नर्इ संचार व्यवस्था का इस्तेमाल करना शुरू किया और इस तरह खबरें भेजने में लगने वाले समय को काफी कम कर दिया । आज इंटरनेंट ने तो दुनिया की दूरियाँ ही खत्म कर दीं हैं। आज विश्व की अनेक भाषाओं में 25 से अधिक बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय समाचार समितियाँ पूरी दुनिया को एक सूत्र मे बांधे रखने के लिए दिनरात काम में जुटी हुर्इ हैं।
विश्व की प्रमुख समाचार एजेंसियाँ
आज जब दुनिया सिकुड़ती जा रही है और लगातार छोटी बनती जा रही है तब दुनिया के एक भाग में होने वाली हलचल के प्रति दुनिया के दूसरे कोने में रहने वाले लोगों की उत्सुकता बढ़ती चली गर्इ है। ऐसे में समाचार एजेसियों की भूमिका भी बहुत बढ़ती जा रही है । अन्र्राष्ट्रीय समाचार एजेसियों के लिए जहां बेहतर संसाधन जरूरी हैं वहीं इनकी विश्वसनीयता भी खास मायने रखती है। वैसे तो विश्वभर में 1200 से ज्यादा संवाद समितियां काम कर रही हैं। उनमें से भी 25 से ज्यादा अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती हैं लेकिन इनमें से 5 एजेसियाँ ऐसी हैं जिन्हें विश्व की प्रमुख समाचार समितियाँ कहा जा सकता हैं ।
(1)- एसोसिएटेड प्रेस (AP)
(2)- यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल (UPI)
(3)- रॉयटर्स (Reuters)
(4)- एजेंसी फ्रांस प्रेस (AFP)
(5)- तास (TASS)
(1)- एसोसिएटेड प्रेस (AP): टेलीग्राफ के आविष्कार के साथ ही न्यूज एजेंसियों के काम में तेजी आर्इ थी। एसोसिएटेड प्रेस ने पहले पहल इस तकनीक को अपनाया । शीघ्र ही आर्थिक एवं वित्तीय अन्तर्राष्ट्रीय समाचार सेवा (HPDJ) और डोउजोन (DJ) के साथ तालमेल कर एपी महत्वपूर्ण समाचार समिति बन गर्इ।
सन् 1900 में एसोसिएटेड प्रेस का पुनर्गठन हुआ। तब तक यह प्रमुख रूप से अमेरिकी पत्रों को ही सेवा उपलब्ध कराती थी। 1934 में एपी ने विदेश सेवा आरम्भ की। आज विश्व भर में एपी के 15000 से अधिक नियमित ग्राहक हैं और इसका अपना बड़ा संवाद तंत्र भी है।

(2)- यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल (UPI) : एपी की तरह ही यूपीआर्इ भी अमेरिकी न्यूज एजेंसी है। इसकी स्थापना 1907 में एडवर्ड विल्स स्क्रिप्स ने की थी। प्रारम्भ में यह छोटे समाचार पत्रों के लिए सायंकालीन सेवा थी। हालाँकि 1918 में प्रथम विश्वयुद्व खत्म होने का गलत समाचार देने के कारण इसकी काफी बदनामी हुर्इ मगर फिर इसने अपनी साख वापस प्राप्त कर ली । आज यूपीआर्इ के ग्राहक यूरोप, दक्षिण अमेरिका, एशिया और आस्टे्रलिया तक फैले हैं ।
(3)- रायटर्स (Reuters) : अपने संस्थापक पॉल जूलियस रायटर के नाम से जुड़ी इस समाचार एजेंसी ने 1850 में कबूतरों के जरिए (Pigeon Service) खबरें जल्दी भेजने का सफल प्रयोग किया था । रायटर ने ही सबसे पहले टेलीग्राफ (तार) का इस्तेमाल लम्बी दूरी तक खबरें भेजने के लिए किया और ब्रिटेन से भारत व अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों तक अपना विस्तार कर लिया ।

आज रायटर अखबारी खबरों के साथ-साथ फोटो फीचर व टीवी समाचारों के क्षेत्र में भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ा नाम है। 20000 से अधिक नियमित पत्रकारों के साथ इसका समाचार तंत्र विश्व भर में फैला हुआ है।
(4)-एजेंसी फ्रांस प्रेस (Agence Frence Presse) : 1835 में स्थापित एएफपी ने प्रथम विश्व युद्व के बाद विस्तार पाना शुरू किया । हावा एजेंसी (Agence Hawas) के समाप्त होने के बाद एएफपी ने पूरी तरह उसकी जगह ले ली। इसका प्रधान कार्यालय पेरिस में हैं और यह एक स्वशासी संस्था है। हावाका उत्तराधिकारी बनने का एएफपी को बहुत लाभ हुआ ।
आज एएफपी विश्व की सबसे बड़ी समाचार समितियों में एक है। 10 हजार से अधिक समाचार पत्र और 70 से अधिक संवाद समितियाँ इसकी ग्राहक हैं। 125 से अधिक देशों तक इसकी सेवा का विस्तार है। फे्रच, अंगे्रंजी, स्पेनिश, पोर्चुगीज, जर्मन और अरबी भाषाओं में यह हर रोज लगभग 35 लाख शब्दों का समाचार वितरण करती है।
(5)- तास (Telegrafnoic Agentsvo Sovetskavo Soyura) : इस अन्तर्राष्ट्रीय समाचार समिति की स्थापना 1917 में पेट्रोग्राड टेलीग्राफ के नाम से हुर्इ थी । प्रारम्भ से ही इस पर समाजवादी विचारधारा का प्रभाव था । 80 के दशक में सोवियत संघ के विघटन के साथ ही तास में भी संगठनात्मक बदलाव आया और आर्इटीएआर (The Information Telegraph Agency of Russia) नामक एक नयी समाचार समिति का गठन हुआ । वर्तमान में इसे इतार तास (ITARRTASS) नाम से जाना जाता है। वर्तमान में देशी व विदेशी मिलकर इसके 20000 से अधिक ग्राहक हैं।
तीसरी दुनिया के महत्व और जरूरतों को समझते हुए गुट निरपेक्ष देशों ने भी एक अन्र्तराष्ट्रीय समाचार समिति बनार्इ है। जिसे NAHAP यानी (Non Aligned News Agencies Pool) की स्थापना की है। 1976 में स्थापित इस समाचार समिति का उद्देश्य समाचारों में पश्चिमी देशों के प्रभुत्व को रोकना है। संसार की अन्य प्रमुख अनतर्राष्ट्रीय समाचार एजेंसियों में चीन की सिनहुआ (Xinhaua), एफ्रो एशियन न्यूज समिति (एएएनएस), जापान की क्योडो (Kyodo) आदि प्रमुख हैं जो विश्व के कर्इ देशों में सेवाएं प्रदान करती हैं।

भारत की प्रमुख समाचार एजेंसियां
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक भारत में पायनियर, स्टेट्समैन, इंग्लिशमैन तथा इण्डियन डेली न्यूज नामक 4 प्रमुख अंगे्रजी पत्र प्रकाशित होते थे। पायनियर इन चारों में विशिष्ट तथा अधिक लोकप्रिय था । अत: स्टे्टसमैन, इंग्लिशमैन व इंडियन डेली न्यूज ने मिल कर 1905 में एसोसिएटेड पे्रस ऑफ इण्डिया (एपीआर्इ) की स्थापना की । 1915 में रायटर ने इसका अधिग्रहण कर लिया तो राष्ट्रवादी विचारधारा के कुछ लोगों ने मिलकर 1927 में फ्री पे्रस एजेंसी ऑफ इण्डियाका गठन किया । यह समिति भी 1935 में बन्द हो गर्इ । सितम्बर 1933 में कोलकत्ता में यूनाइटेड पे्रस ऑफ इण्डिया की स्थापना हुर्इ । यूपीआर्इ ने ही सर्वप्रथम महात्मा गांधी की हत्या का समाचार दिया था लेकिन आर्थिक संकट के कारण यह भी 1958 मे बन्द हो गर्इ ।

1. प्रेस ट्रस्ट ऑफ इण्डिया (पीटीआर्इ) (PTI)
पीटीआर्इ भारत ही नहीं एशिया की सबसे बड़ी अंगे्रजी समाचार समितियों में एक है। पीटीआर्इ का पंजीकरण अगस्त 1947 मे ंहो गया था मगर इसने काम 1 फरवरी 1949 से शुरू किया और तीन वर्ष तक रॉयटर के साथ अनुबन्ध में रहने के बाद 1951 में इसने स्वतंत्र रूप से काम करना शुरू कर दिया । आज पीटीआर्इ दुनिया की सभी प्रमुख संवाद समितियों से तालमेल कर चुकी है। विश्व के हर प्रमुख देश में इसके पूर्णकालिक संवाददाता है, आज यह इंटरनेट व स्कैन सेवा की चलाती है। इसका मुख्यालय मुम्बर्इ में है।

2. यूनाइटेड न्यूज ऑफ इण्डिया (यूएनआर्इ) (UNI)
इसका मुख्यालय नर्इ दिल्ली में है। पीटीआर्इ के बाद यह देश की दूसरी सबसे बड़ी अगे्रजी संवाद समिति है। इसका गठन प्रथम पे्रस आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया था । पीटीआर्इ के एकाधिकार के चलते समाचारों की निष्पक्षता पर सवाल न उठे, इसलिए प्रतिस्पर्घा बनाए रखने के लिए 1961 में इसका गठन हुआ । आज यह विश्व की 15 बड़ी संवाद समितियों से जुड़ी है। फोटो सेवा, वाणिज्य सेवा, सन्दर्भ सेवा जैसी विशिष्ट सेवाएं भी यूएनआर्इ द्वारा प्रदान की जाती हैं।

3. यूनीवार्ता :( VARTA)
यूएनआर्इ की इस हिन्दी सेवा का आरम्भ 1 मर्इ 1982 को हुआ। आम बोलचाल में वार्ता के नाम से जानी जाने वाली इस समाचार समिति का उद्देश्य हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के लिए एक वैकल्पिक सेवा प्रदान करना था। यह मूलत: छोटे समाचार पत्रों को कम खर्च में हिन्दी मे देश-विदेश के समाचार उपलब्ध कराती है।

4. भाषा (BHASHA)
पीटीआर्इ ने 18 अप्रैल 1986 को भाषाके रूप में हिन्दी को एक और उच्च स्तर की समाचार सेवा उपलब्ध करार्इ। भाषाने देश के 15 हजार से अधिक नगरों और कस्बो ंके सही नामों की प्रमाणिक सूची तैयार की है और अब यह मात्र एक अनुवादक एजेंसी न होकर मूल समाचार एजेंसी बन गयी है।

5. एशियन न्यूज़ एजेंसी (ए.एन.आई.) ANI
मूलरूप में प्रवासी भारतीयों के लिए समाचार उपलब्ध कराने वाली इस समाचार समिति ने अब देश में भी अपना विस्तार करना शुरू कर दिया है। देश के सभी राज्यों की राजधानियों के साथ अन्य प्रमुख नगरों में इसके दफ्तर हैं। यह समाचारों के साथ-साथ कला, संस्कृति, रहन-सहन, साहित्य, जनजीवन आदि पर छोटे-छोटे फीचर भी उपलब्ध कराती है। इनके अतिरिक्त अन्य कर्इ छोटी-छोटी समाचार एजेसियां भी देश के अलग-अलग भागों से अपने-अपने क्षेत्र के समाचार उपलब्ध कराती हैं। हिन्दुस्तान समाचार, समाचार भारती आदि कुछ बड़ी न्यूज एजेसियां जमाने की बदलती रफ्तार के साथ तालमेल न बिठा पाने के कारण बन्द भी हो चुकी हैं।

पत्रकारिता के प्रकार (Types of Journalism)
 संसार में पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना नहीं है लेकिन इक्किसवीं शताब्दी में यह एक ऐसा सशक्त विषय के रूप में उभरा है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। आज इसका क्षेत्र बहुत व्यापक हो चुका है और विविधता भी लिए हुए है। शायद ही कोर्इ क्षेत्र बचा हो जिसमें पत्रकारिता की उपादेयता को सिद्ध न किया जा सके। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आधुनिक युग में जितने भी क्षेत्र हैं सबके सब पत्रकारिता के भी क्षेत्र हैं, चाहे वह राजनीति हो या न्यायालय या कार्यालय, विज्ञान हो या प्रौद्योगिकी हो या शिक्षा, साहित्य हो या संस्ति या खेल हो या अपराध, विकास हो या कृषि या गांव, महिला हो या बाल या समाज, पर्यावरण हो या अंतरिक्ष या खोज। इन सभी क्षेत्रों में पत्रकारिता की महत्ता एवं उपादेयता को सहज ही महसूस किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि लोकतंत्र में इसे चौथा स्तंभ कहा जाता है। ऐसे में इसकी पहुंच हर क्षेत्र में हो जाता है। इस बहु आयामी पत्रकारिता के कितने प्रकार हैं उस पर विस्तृत रूप से चर्चा की जा रही है।
खोजी पत्रकारिता
खोजी पत्रकारिता वह है जिसमें आमतौर पर सार्वजनिक महत्व के मामले जैसे भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और गड़बड़ियांे की गहरार्इ से छानबीन कर सामने लाने की कोशिश की जाती है। स्टिंग ऑपरेशन खोजी पत्रकारिता का ही एक नया रूप है। खोजपरक पत्रकारिता भारत में अभी भी अपने शैशवकाल में है। इस तरह की पत्रकारिता में ऐसे तथ्य जुटाकर सामने लाए जाते हैं, जिन्हें आमतौर पर सार्वजनिक नहीं किया जाता। लेकिन एक वर्ग यह मानता है कि खोजपरक पत्रकारिता कुछ है ही नहीं क्योंिक कोर्इ भी समाचार खोजी ष्टि के बिना लिखा ही नहीं जा सकता है। लोकतंत्र में जब जरूरत से ज्यादा गोपनीयता बरती जाने लगे और भ्रष्टाचार चरम पर हो तो खोजी पत्रकारिता ही उसे सामने लाने का एकमात्र विकल्प होती है। खोजी पत्रकारिता से जुड़ी पुरानी घटनाओं पर नजर ड़ालें तो मार्इ लार्ड कांड, वाटरगेट कांड़, एंडर्सन का पेंटागन पेपर्स जैसे अंतराष्ट्रीय कांड तथा सीमेटं घोटाला कांड़, बोफर्स कांड, ताबूत घोटाला कांड जैसे राष्ट्रीय घोटाले खोजी पत्रकारिता के चर्चित उदाहरण हैं। संचार क्रांति, इंटरनेट या सूचना अधिकार जैसे प्रभावशाली अस्त्र अस्तित्व में आने के बाद तो घोटाले उजागर होने का जैसे दौर शुरू हो गया। इसका नतीजा है कि पिछले दिनांे 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श घोटाला आदि उल्लेखनीय हैं। समाज की भलार्इ के लिए खोजी पत्रकारिता अवश्य एक अंग है लेकिन इसे भी अपनी मर्यादा के घेरे में रहना चाहिए।
वाचडाग पत्रकारिता
लोकतंत्र में पत्रकारिता को चौथा स्तंभ माना गया है। इस लिहाज से इसका मुख्य कार्य सरकार के कामकाज पर निगाह रखना है और कहीं भी कोर्इ गड़बड़ी हो तो उसका पर्दाफाश करना है। इसे परंपरागत रूप से वाचडाग पत्रकारिता कहा जा सकता है। दूसरी आरे सरकारी सूत्रों पर आधारित पत्रकारिता है। इसके तहत मीडिया केवल वही समाचार देता है जो सरकार चाहती है और अपने आलोचनापरक पक्ष का परित्याग कर देता है। इन दाे बिंदुओ  के बीच तालमेल के जरिए ही मीडिया और इसके तहत काम करनेवाले विभिन्न समाचार संगठनों की पत्रकारिता का निर्धारण होता है।
एडवोकेसी पत्रकारिता
एडवोकेसी यानि पैरवी करना। किसी खास मुद्दे या विचारधारा के पक्ष में जनमत बनाने के लिए लगातार अभियान चलानेवाली पत्रकारिता को एडवोकेसी पत्रकारिता कहा जाता है। मीडिया व्यवस्था का ही एक अंग है। और व्यवस्था के साथ तालमेल बिठाकर चलनेवाले मीडिया को मुख्यधारा मीडिया कहा जाता है। दूसरी ओर कुछ ऐसे वैकल्पिक सोच रखनेवाला मीडिया होते हैं जो किसी विचारधारा या किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए निकाले जाते हैं। इस तरह की पत्रकारिता को एडवोकेसी (पैरवी) पत्रकारिता कहा जाता है। जैसे राष्ट्रीय विचारधारा, धार्मिक विचारधारा से जुड़े पत्र पत्रिकाएँ।
पीत पत्रकारिता
पाठकों को लुभाने के लिए झूठी अफवाहों, आरोपों प्रत्यारोपों प्रमे संबंधों आदि से संबंधित सनसनीखेज समाचारों से संबंधित पत्रकारिता को पीत पत्रकारिता कहा जाता है। इसमें सही समाचारों की उपेक्षा करके सनीसनी फैलानेवाले समाचार या ध्यान खींचनेवाला शीर्षकों का बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। इसे समाचार पत्रों की बिक्री बढ़ाने, इलेक्ट्रिनिक मीडिया की टीआरपी बढ़ाने का घटिया तरीका माना जाता है। इसमें किसी समाचार खासकर एसेे सार्वजनिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति द्वारा किया गया कुछ आपत्तिजनक कार्य, घोटाले आदि को बढ़ाचढ़ाकर सनसनी बनाया जाता है। इसके अलावा पत्रकार द्वारा अव्यवसायिक तरीके अपनाए जाते हैं।
पेज थ्री पत्रकारिता
पजे थ्री पत्रकारिता उसे कहते हैं जिसमें फैशन, अमीरों की पार्टियों महिलाओं और जानेमाने लोगों के निजी जीवन के बारे में बताया जाता है।
खेल पत्रकारिता
खेल से जुड़ी पत्रकारिता को खेल पत्रकारिता कहा जाता है। खेल आधुनिक हों या प्राचीन खेलों में हानेेवाले अद्भूत कारनामों को जग जाहिर करने तथा उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में खेल पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज परूी दुनिया में खेल यदि लोकप्रियता के शिखर पर है तो उसका काफी कुछ श्रेय खेल पत्रकारिता को भी जाता है। खेल केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि अच्छे स्वास्थ्य, शारीरिक दमखम और बौद्धिक क्षमता का भी प्रतीक है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में अति प्राचीनकाल से खलेों का प्रचलन रहा है। आज आधुनिक काल में पुराने खेलों के अलावा इनसे मिलते जुलते खेलों तथा अन्य आधुनिक स्पर्धात्मक खलेों ने परूी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम कर रखा है। आज स्थिति यह है कि समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं के अलावा किसी भी इलेक्ट्रनिक मीडिया का स्वरूप भी तब तक परिपूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसमें खेल का भरपूर कवरेज नहीं हो। दूसरी बात यह है कि आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया में आबादी का एक बड़ा हिस्सा युवा वर्ग का है जिसकी पहली पसंद विभिन्न खले स्पर्धाएं हैं। शायद यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं में अगर सबसे अधिक कोर्इ पन्न पढ़े जाते हैं तो वह खेल से संबेधित होते हैं।
महिला पत्रकारिता
महिला परुुा समानता के इस दौर में महिलाएं अब घर की दहलीज लांघ कर बाहर आ चुकी है। प्राय: हर क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति और भागिदारी नजर आ रही है। ऐसे में पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं की भागिदारी भी देखी जाने लगी है। दूसरी बात यह है कि शिक्षा ने महिलाओं को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाया है। अब महिलाएं भी अपने करियर के प्रति सचेत हैं। महिला जागरण के साथ साथ महिलाओं के प्रति अत्याचार और अपराध के मामले भी बढ़े हैं। महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे कानून बने हैं। महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा दिलाने में महिला पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। आज महिला पत्रकारिता की अलग से जरूरत ही इसलिए है कि उसमें महिलाओं से जुड़े हर पहलू पर गौर किया जाए और महिलाओं के सवार्ंगीण विकास में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सके।

बाल पत्रकारिता
एक समय था जब बच्चों को परीकथाओं, लोककथाओं पौराणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक कथाओं के माध्यम से बहलाने फुसलाने के साथ साथ उनका ज्ञानवर्धन किया जाता था। इन कथाओं का बच्चों के चारित्रिक विकास पर भी गहरा प्रभाव होता था। लेकिन आज संचार क्रांति के इस युग में बच्चों के लिए सूचनातंत्र काफी विस्तृत और अनंत हो गया है। कंप्यूटर और इंटरनेट तक पहुंच ने उनके बाल मन स्वभाव के अनुसार जिज्ञासा को असीमित बना दिया है। ऐसे में इस बात की आशंका और गुंजाइश बनी रहती है कि बच्चों तक वे सूचनाएं भी पहुंच सकती है जिससे उनके बालमन के भटकाव या विती भी संभव है। एसे ी स्थिति में बाल पत्रकारिता की सार्थक सोच बच्चों को सही दिशा की आरे अग्रसर कर सकती है। क्योंिक बाल मन स्वभावतरू जिज्ञासु आरै सरल हाते ा है। जीवन की यह वह अवस्था है जिसमें बच्चा अपने माता पिता, शिक्षक और चारों तरफ के परिवेश से ही सीखता है। बच्चे पर किसी भी घटना या सूचना की अमिट छाप पड़ती है। बच्चे के आसपास का परिवेश उसके व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एसेे में उसे सही दिशा दिखाना का काम पत्रकारिता ही कर सकता है। इसलिए बाल पत्रकारिता की महसूस की जाती है।
आर्थिक पत्रकारिता
आर्थिक पत्रकारिता में व्यक्तियों संस्थानांे राज्यों या देशों के बीच हानेेवाले आर्थिक या व्यापारिक संबंध के गुण-दोषों की समीक्षा और विवेचन की जाती है। जिस प्रकार आमतौर पर पत्रकारिता का उद्देश्य किसी भी व्यवस्था के गुण दोषों को व्यापक आधार पर प्रचारित प्रसारित करना है ठीक उसी तरह आर्थिक पत्रकारिता अर्थ व्यवस्था के हर पहलू पर सूक्ष्म नजर रखते हुए उसका विश्लष्ेाण कर समाज पर पड़नेवाले उसके प्रभावों का प्रचार प्रसार करना होना चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि आर्थिक पत्रकारिता को आर्थिक व्यवस्था और उपभेक्ता के बीच सेतू की भूमिका निभानी पड़ती है।
ग्रामीण एवं कृषि पत्रकारिता
भारत जैसे कृषि प्रधान देश में हमारी अथर् व्यवस्था काफी कुछ कृषि और कृषि उत्पादों पर निर्भर है। भारत में आज भी लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में बसती है। देश के बजट प्रावधानांे का बड़ा हिस्सा कृषि एवं ग्रामीण विकास पर खर्च होता है। ग्रामीण विकास के बिना देश का विकास अधूरा है। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह कृषि एवं कृषि आधारित योजनाओं तथा ग्रामीण भारत में चल रहे विकास कार्यक्रम का सटीक आकलन कर तस्वीर पेश करे।
विशेषज्ञ पत्रकारिता
पत्रकारिता केवल घटनाओं की सूचना देना नहीं है। पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह घटनाओं की तह तक जाकर उसका अर्थ स्पष्ट करे और आम पाठक को बताए कि उस समाचार का क्या महत्व है। इसलिए पत्रकार को भी विशेषज्ञ बनने की जरूरत पड़ती है। पत्रकारिता में विषय के आधार पर सात प्रमुख क्षेत्र हैं। इसमें संसदीय पत्रकारिता, न्यायालय पत्रकारिता, अर्थिक पत्रकारिता, खेल पत्रकारिता, विज्ञान और विकास पत्रकारिता, अपराध पत्रकारिता तथा फेशन आरै फिल्म पत्रकारिता शामिल हैं। इन क्षेत्रों के समाचार उन विषयों में विशष्ेाज्ञता हासिल किए बिना देना कठिन हातेा है। एसेे में इन विषयों के जानकार ही विषय की समस्या, विषय के गुण दाष्ेा आदि पर सटिक जानकारी हासिल कर सकता है।
रेडियो पत्रकारिता
मुद्रण के आविष्कार के बाद संदशेा और विचारों को शक्तिशाली आरै प्रभावी ढंग से अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना मनुष्य का लक्ष्य बन गया। इसी से रेडियो का जन्म हुआ। रेडियो के आविष्यकार के जरिए आवाज एक ही समय में असख्ं य लोगों तक उनके घरों को पहुंचने लगा। इस प्रकार श्रव्य माध्यम के रूप में जनसंचार को रेडियो ने नये आयाम दिए। आगे चलकर रेडियो को सिनेमा और टेलीविजन और इंटरनेट से कडी चुनौतियां मिली लेकिन रेडियो अपनी विशिष्टता के कारण आगे बढ़ता गया और आज इसका स्थान सुरक्षित है। रेडियो की विशेषता यह है कि यह सार्वजनिक भी है और व्यक्तिगत भी। रेडियो में लचीलापन है क्योंकि इसे किसी भी स्थान पर किसी भी अवस्था में सुना जा सकता है। दूसरा रोडियो समाचार और सूचना तत्परता से प्रसारित करता है। मौसम संबंधी चेतावनी और प्रातिक विपत्तियों के समय रेडियो का यह गुण शक्तिशाली बन पाता है। आज भारत के कोने-कोने में देश की 97 प्रतिशत जनसंख्या रेडियो सुन पा रही है।
व्याख्यात्मक पत्रकारिता
पत्रकारिता केवल घटनाओं की सूचना देना नहीं है। पत्रकार से अपेक्षा की जाती है कि वह घटनाओं की तह तक जाकर उसका अर्थ स्पष्ट करे और आम पाठक को बताए कि उस समाचार का क्या महत्व है। पत्रकार इस महत्व को बताने के लिए विभिन्न प्रकार से उसकी व्याख्या करता है। इसके पीछे क्या कारण है। इसके पीछे कौन था और किसका हाथ है। इसका परिणाम क्या होगा। इसके प्रभाव से क्या होगा आदि की व्याख्या की जाती है। साप्ताहिक पत्रिकाओं संपादकीय लेखों में इस तरह किसी घटना की जांच पड़ताल कर व्याख्यात्मक समाचार पेश किए जाते हैं। टीवी चैनलों में तो आजकल यह ट्रेडं बन गया है कि किसी भी छोटी सी छोटी घटनाओं के लिए भी विशेषज्ञ पेनल बिठाकर उसकी सकारात्मक एवं नकारात्मक व्याख्या की जाने लगी है।
विकास पत्रकारिता
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य है लोगों के लिए शासन लोगों के द्वारा शासन। इस लोकतंत्र में तीन मुख्य स्तंभ है। इसमें संसदीय व्यवस्था, शासन व्यवस्था एवं कानून व्यववस्था। इन तीनों की निगरानी रखता है चौथा स्तंभ - पत्रकारिता। लोकतंत्र का मूल उद्देश्य है लोगों के लिए। शासन द्वारा लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए सही ढंग से काम किया जा रहा है या नहीं इसका लेखा जोखा पेश करने की जिम्मेदारी मीडिया पर है। इसका खासकर भारत जैसे विकासशील देशों के लिए आरै भी अहम भूमिका है। देश में शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, कृषि एवं किसान, सिंचार्इ, परिवहन, भूखमरी, जनसंख्या बढ़ने प्रातिक आपदा जैसी समस्याएं हैं। इन समस्याओं से निपटने सरकार द्वारा क्या क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
संसदीय पत्रकारिता
लोकतंत्र में संसदीय व्यवस्था की प्रमुख भूमिका है। संसदीय व्यवस्था के तहत संसद में जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि पहुंचते हैं। बहुमत हासिल करनेवाला शासन करता है ताे दूसरा विपक्ष में बैठता है। दानेों की अपनी अपनी अहम भूमिका होती है। इनके द्वारा किए जा रहे कार्य पर नजर रखना पत्रकारिता की अहम जिम्मेदारी है क्योंकि लोकतंत्र में यही एक कड़ी है जो जनता एवं नेता के बीच काम करता है। जनता किसी का चुनाव इसलिए करते हैं तो वह लोगों की सुख सुविधा तथा जीवनस्तर सुधारने में कार्य करे। लेकिन चुना हुआ प्रतिनिधि या सरकार अगर अपने मार्ग पर नहीं चलते हैं तो उसको चेताने का कार्य पत्रकारिता करती है। इनकी गतिविधि, इनके कार्य की निगरानी करने का कार्य पत्रकारिता करती है।
टेलीविजन पत्रकारिता
समाचार पत्र एवं पत्रिका के बाद श्रव्य माध्यम का विकास हुआ। और इसके बाद श्रव्य श्य माध्यम का विकास हुआ। दूर संचार क्रांति में सेटेलार्इट, इंटरनेट के विकास के साथ ही इस माध्यम का इतनी तेजी से विकास हुआ कि आज इसके बिना चलना मुश्किल सा हाे गया है। इसे मुख्यत: तीन वर्गों में रखा जा सकता है जिसमें सूचना, मनोरंजन और शिक्षा। सूचना में समाचार, सामयिक विषय आरै जनसचार उद्घोषणाएं आते हैं। मनोरजंन के क्षेत्र में फिल्मों से संबंधित कार्यक्रम, नाटक, धारावाहिक, नृत्य, संगीत तथा मनोरजं न के विविध कार्यक्रम शामिल हैं। इन कार्यक्रमों का प्रमखु उद्देश्य लोगों का मनोरंजन करना है। शिक्षा क्षेत्र में टेलीविजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। पाठय सामग्री पर आधारित और सामान्य ज्ञान पर आधारित दा े वर्गों में शैक्षिक कार्यक्रमों को बांटा जा सकता है। आज उपगह्र के विकास के साथ ही समाचार चैनलों के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है। इसके चलते छोटी सी छोटी घटनाओं का भी लाइव कवरेज होने लगा है।
विधि पत्रकारिता
लोकतंत्र के चार स्तंभ में विधि व्यवस्था की भूमिका महत्वपूर्ण है। नए कानून, उनके अनुपालन और उसके प्रभाव से लोगों को परिचित कराना बहुत ही जरूरी है। कानून व्यवस्था बनाए रखना, अपराधी को सजा देना से लेकर शासन व्यवस्था में अपराध राके ने, लोगों को न्याय प्रदान करना इसका मुख्य कार्य है। इसके लिए निचली अदालत से लेकर उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय तक व्यवस्था है। इसमें रोजाना कुछ न कुछ महत्वपूर्ण फैसले सुनाए जाते हैं। कर्इ बड़ी बड़ी घटनाओं के निर्णय, उसकी सुनवार्इ की प्रक्रिया चलती रहती है। इसबारे में लोग जानेन की इच्छुक रहते हैं, क्योंकि कुछ मुकदमें ऐसे होते हैं जिनका प्रभाव समाज, संप्रदाय, प्रदेश एवं देश पर पड़ता है। दूसरी बात यह है कि दबाव के चलते कानून व्यवस्था अपराधी को छोड़कर निर्दोष को सजा तो नहीं दे रही है इसकी निगरानी भी विधि पत्रकारिता करती है।
फोटो पत्रकारिता
फोटो पत्रकारिता ने छपार्इ तकनीक के विकास के साथ ही समाचार पत्रों में अहम स्थान बना लिया है। कहा जाता है कि जो बात हजार शब्दांे में लिखकर नहीं की जा सकती है वह एक तस्वीर कह देती है। फोओ टिप्पणियों का असर व्यापक और सीधा होता है। दूसरी बात ऐसी घटना जिसमें सबूत की जरूरत हातेी है वसैे समाचारों के साथ फाटेो के साथ समाचार पशेा करने से उसका विश्वसनीयता बढ़ जाती है।
विज्ञान पत्रकारिता
इक्कीसवीं शताब्दी को विज्ञान का युग कहा गया है। वर्तमान में विज्ञान ने काफी तरक्की कर ली है। इसकी हर जगह पहुचं हो चली है। विज्ञान में हमारी जीवन शैली को बदलकर रख दिया है। वैज्ञानिकों द्वारा रोजाना नर्इ नर्इ खोज की जा रही है। इसमें कुछ तो जनकल्याणकारी हैं तो कुछ विध्वंसकारी भी है। जैसे परमाणु की खोज से कर्इ बदलाव ला दिया है लेकिन इसका विध्वंसकारी पक्ष भी है। इसे परमाणु बम बनाकर उपयोग करने से विध्वंस हागेा। इस तरह विज्ञान पत्रकारिता दोनों पक्षों का विश्लेषण कर उसे पेश करने का कार्य करता है। जहां विज्ञान के उपयोग से कैसे जीवन शैली में सुधार आ सकता है तो उसका गलत उपयोग से संसार ध्वंस हो सकता है।
विज्ञान पत्रकारों को विस्तृत तकनीकी आरै कभी कभी शब्दजाल को दिलचस्प रिपोर्ट में बदलकर समाचार पाठक दर्शक की समझ के आधार पर प्रस्तुत करना होता है। वैज्ञानिक पत्रकारों को यह निश्चिय करना होगा कि किस वैज्ञानिक घटनाक्रम में विस्तृत सूचना की योग्यता है। साथ ही वैज्ञानिक समुदाय के भीतर होनवेाले विवादांे को बिना पक्षपात के आरै तथ्यों के साथ पेश करना चाहिए।
शैक्षिक पत्रकारिता
शिक्षा के बिना कुछ भी कल्पना करना संभव नहीं है। पत्रकारिता सभी नर्इ सूचना को लोगों तक पहुंचाकर ज्ञान में वृद्धि करती है। जब से शिक्षा को औपचारिक बनाया गया है तब से पत्रकारिता का महत्व और बढ़ गया है। जब तक हमें नर्इ सूचना नहीं मिलगेी हमें तब तक अज्ञानता घेर कर रखी रहेगी। उस अज्ञानता को दूर करने का सबसे बड़ा माध्यम है पत्रकारिता। चाहे वह रेडियो हाे या टेलीविजन या समाचार पत्र या पत्रिकाएं सभी में नर्इ सूचना हमें प्राप्त हातेी है जिससे हमें नर्इ शिक्षा मिलती है। एक बात आरै कि शिक्षित व्यक्ति एक माध्यम में संतुष्ट नहीं होता है। वह अन्य माध्यम को भी देखना चाहता है। यह जिज्ञासा ही पत्रकारिता को बढ़ावा देता है तो पत्रकारिता उसकी जिज्ञासा के अनुरूप शिक्षा एवं ज्ञान प्रदान कर उसकी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करता है। इसे पहुंचाना ही शैक्षिक पत्रकारिता का कार्य है।
सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रकारिता
मनुष्य में कला, संस्ति एवं साहित्य की भूमिका निर्विवादित है। मनुष्य में छिपी प्रतिभा, कला चाहे वह किसी भी रूप में हो उसे देखने से मन को तृप्ति मिलती है। इसलिए मनुष्य हमेशा नर्इ नर्इ कला, प्रतिभा की खोज में लगा रहता है। इस कला प्रतिभा को उजागर करने का एक सशक्त माध्यम है पत्रकारिता। कला प्रतिभाओं के बारे में जानकारी रखना, उसके बारे में लोगों को पहुंचाने का काम पत्रकारिता करता है। इस सांस्कृतिक साहित्यिक पत्रकारिता के कारण आज कर्इ विलुप्त प्राचीन कला जैसे लोकनृत्य, लोक संगीत, स्थापत्य कला को खोज निकाला गया है और फिर से जीवित हो उठे हैं। दूसरी ओर भारत जैसे विशाल और बहु सांस्कृति वाले देश में सांस्कृतिक साहित्यिक पत्रकारिता के कारण देश की एक अलग पहचान बन गर्इ है। कुछ आंचलिक लोक नृत्य, लोक संगीत एक अंचल से निकलकर देश, दुनिया तक पहचान बना लिया है। समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं प्रारंभ से ही नियमित रूप से सांस्कृतिक साहित्यिक कलम को जगह दी है।
अपराध पत्रकारिता
राजनीतिक समाचार के बाद अपराध समाचार ही महत्वपूर्ण होते हैं। बहुत से पाठकों व दशर्कों को अपराध समाचार जानने की भूख होती है। इसी भूख को शांत करने के लिए ही समाचारपत्रों व चौनलों में अपराध डायरी, सनसनी, वारदात, क्राइम फाइल जैसे समाचार कार्यक्रम प्रकाशित एवं प्रसारित किए जा रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार किसी समाचार पत्र में लगभग पैंतीस प्रतिशत समाचार अपराध से जुड़े हातेे हैं। इसी से अपराध पत्रकारिता को बल मिला है। दूसरी बात यह कि अपराधिक घटनाओं का सीधा संबंध व्यक्ति, समाज, संप्रदाय, धर्म और देश से हातेा है। अपराधिक घटनाओं का प्रभाव व्यापक हातेा है। यही कारण है कि समाचार संगठन बड़े पाठक दर्शक वर्ग का ख्याल रखते हुए इस पर विशेष फोकस करते हैं।
राजनैतिक पत्रकारिता
समाचार पत्रों में सबसे अधिक पढ़े जानेवाले आरै चैनलों पर सर्वाधिक देखे सुने जानेवाले समाचार राजनीति से जुड़े होते हैं। राजनीति की उठा पटक, लटके झटके, आरोप प्रत्यारोप, रोचक रोमांचक, झूठ-सच, आना जाना आदि से जुड़े समाचार सुर्खियों में होते हैं। राजनीति से जुड़े समाचारों का परूा का पूरा बाजार विकसित हो चुका है। राजनीतिक समाचारों के बाजार में समाचार पत्र और समाचार चौनल अपने उपभेक्ताओं को रिझाने के लिए नित नये प्रयोग करते नजर आ रहे हैं। चुनाव के मौसम में तो प्रयोगों की झडी लग जाती है और हर कोर्इ एक दूसरे को पछाड़कर आगे निकल जाने की होड़ में शामिल हो जाता है। राजनीतिक समाचारों की प्रस्तुति में पहले से अधिक बेबाकी आयी है। लोकतंत्र की दुहार्इ के साथ जीवन के लगभग हर क्षेत्र में राजनीति की दखल बढ़ा है और इस कारण राजनीतिक समाचारों की भी संख्या बढ़ी है। एसेे में इन समाचारों को नजरअंदाज कर जाना संभव नहीं है। राजनीतिक समाचारों की आकर्षक प्रस्तुति लोकप्रिया हासिल करने का बहुत बड़ा साधन बन चुकी है।

पत्रकारिता शिक्षा (Journalism Education)

जनसंचार और पत्रकारिता में शिक्षा अब सिर्फ परंपरागत नौकरियों तक सीमित नहीं रह गई है। जनसंचार के क्षेत्र में भी हर रोज नई राहें खुल रही हैं। कार्पोरेट रिलेशन मैनेजर, विभिन्न संस्थानों के मीडिया प्रबंधक, जनसंपर्क एजेंसियों के प्रबंधक, तमाम बड़े राजनीतिक दलों के मीडिया सलाहकार, साइबर मीडिया विशेषज्ञ, साइबर मीडिया प्रबंधक समेत दर्जनों क्षेत्रों में करियर की प्रबल संभावनाएं हैं।
एक दौर था जब पत्रकारिता और जनसंचार शिक्षा के बाद करियर केवल अखबार, टीवी व रेडियो की परंपरागत नौकरी तक ही सीमित था। वक्त के साथ न सिर्फ जनसंचार माध्यमों का विकास हुआ, बल्कि तमाम नए माध्यम भी इसमें जुड़ते गए। प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में अब तेजी से विकास हो रहा है। पुराने और स्थापित समाचार पत्रों के साथ ही स्थानीय स्तर पर भी कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है। टेलीविजन भी अब सिर्फ कुछ समाचार और मनोरंजन चैनलों तक सीमित नहीं रह गया है। सैकड़ों देशी-विदेशी चैनल्स प्रसारित हो रहे हैं। इसी तरह रेडियो भी केवल सरकारी रेडियो चैनलों तक सीमित नहीं रहा। तमाम बड़ी कंपनियों के एफएम चैनल लोगों तक हर पल की जानकारी पहुंचा रहे हैं।
ये तो केवल पारंपरिक माध्यमों की बात हुई। इनके अलावा अब साइबर संसार भी इस क्षेत्र में अहम भूमिका निभा रहा है। तमाम स्थापित मीडिया समूह डिजिटल मीडिया की ओर बढ़ रहे हैं। इनमें न्यूज पोर्टल व वेबसाइट के लिए कंटेंट लेखन से लेकर फोटो मुहैया कराने, मोबाइल एप्स के लिए लेखन तक शामिल हैं। इनके अलावा सोशल मीडिया के लिए लेखन, ब्लॉग लेखन समेत जनसंचार और पत्रकारिता के क्षेत्र में कॅरियर की बात करें तो सैकड़ों राहें क्षमतावान युवाओं का इंतजार कर रही हैं।
इन क्षेत्रों में हैं मौके
-समाचार पत्रों व पत्रिकाओं में रिपोर्टर, डेस्क और फीचर लेखक के रूप में।
-न्यूज चैनलों में रिपोर्टर, एंकर, प्रोडक्शन और तकनीकी विभागों में विशेषज्ञ।
-साइबर मीडिया विशेषज्ञों और प्रोमोटर्स के रूप में तमाम संस्थानों में मौके।
-टीवी धारावाहिकों और फिल्मों के लिए कहानी लेखन, डायलॉग व स्क्रिप्ट लेखन।
-समाचार पत्रों, रेडियो, टीवी और सिनेमा के लिए विज्ञापन फिल्मों का लेखन।
-कार्पोरेट हाउस में पब्लिक रिलेशन अफसर और विज्ञापन व मीडिया प्रबंधक।
-राजनीतिक दलों के प्रवक्ता, मीडिया सलाहकार और जनसंपर्क अधिकारी।
-इवेंट मैनेजमेंट और पब्लिक रिलेशन एजेंसियों में एक्जीक्यूटिव और प्रबंधक।
-सिने स्टार्स, खिलाड़ियों और बड़े राजनेताओं के मीडिया सलाहकार।
-फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी और संपादन के क्षेत्र में विभिन्न स्तर पर तमाम पद।
-फ्री लांसर लेखन, संपादन और फोटोग्राफी के क्षेत्र में अपार संभावनाएं।
-जनसंचार में स्वरोजगार के क्षेत्र में भी तमाम अवसर मौजूद हैं।
प्रमुख कोर्स
डिप्लोमा
-पीजी डिप्लोमा: पत्रकारिता एवं जनसंचार
स्नातक
-बीए पत्रकारिता एवं जनसंचार
-भाषा विज्ञान में स्नातक
-विदेशी भाषाओं में स्नातक
-बीएससी एनिमेशन
-टीवी प्रोडक्शन में स्नातक
स्नातकोत्तर
-एमए पत्रकारिता एवं जनसंचार
-भाषा विज्ञान में परास्नातक
-विदेशी भाषाओं में परास्नातक
-एमजेएमसी पांच वर्षीय एकीकृत उपाधि
-पीएचडी

पत्रकारिता एक व्यवसाय के रूप में (Journalism as a Profession)
वह 30 मई का ही दिन था, जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ था। इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 192 वर्ष हो गए हैं। इस बीच में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है।
उदंत मार्तण्ड का का प्रकाशन मई, 1826 ई. में कोलकाता यानि कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। पंडित जुगलकिशोर सुकुल ने इसकी शुरुआत की। उस समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो अनेक पत्र निकलते थे, लेकिन हिन्दी भाषा में कोई समाचार पत्र नहीं निकलता था। पुस्तक के आकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा। उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से ‍छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ ही रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं।
हिंदी पत्रकारिता ने जिस मुकाम को हासिल किया था, वह बात अब नहीं है। इसकी तीन वजह हो सकती हैं, पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि हिंदी पत्रकारिता में राजेन्द्र माथुर (रज्जू बाबू) और प्रभाष जोशी दो ऐसे संपादक रहे हैं, जिन्होंने अपनी कलम से न केवल अपने अपने अखबारों को शीर्ष पर पहुंचाया, बल्कि अंग्रेजी के नामचीन अखबारों को भी कड़ी टक्कर दी।आज वे हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में हिन्दी पत्रकारिता ने खूब नाम कमाया था । दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती हैं।
एक सच यह भी है कि सालों से हिन्दी पत्रकारिता देश की आजादी से लेकर साधारण इंसान के अधि‍कारों की लड़ाई तक के लिए उसकी अपनी मातृभाषा की कलम से लड़ती आ रही है। वक्त बदलता रहा और पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य भी बदलते रहे, लेकिन नहीं बदली तो पाठकों की इसमें रुचि। 
हिन्दी पत्रकारिता ने समाज के अपने अक्स को ही तो खुद में उतारा और उभारा है आज तक। एक स्थान पर बैठे-बैठे ही संसार की सैर भी पत्रकारिता ने ही दुनिया को करवाई और देश-विदेश की उफनती नब्ज से लेकर दहकते मुद्दों और तमाम तरह की नवीनतम जानकारियों को जुटाकर अपने पाठकों के सामने पेश भी किया।
एक कलम और उसके पहरेदारों ने पत्रकारिता के अब तक के इस सफर में सबसे खास भूमिका निभाई...। आज के दौर में मीडिया, इंटरनेट के जरिए जो वैश्वीकरण हो रहा है नि‍श्चित रूप से पत्रकारिता को नया जीवन प्रदान कर रहा है। लेकिन अब उस कलम की जगह टाइपराइटर और की-बोर्ड ने ले ली है..।
अखबारों की जगह कम्प्यूटर और मोबाइल स्क्रीन ने ले ली है, भले ही कुछ न बदला हो... भले ही सब कुछ आगे बढ़ रहा हो... लेकिन इस दौड़ में अगर कुछ पीछे छूट गया है तो वह है... दम तोड़ती कलम...  जिसने कभी इसी पत्रकारिता को जन्म दिया था... लेखन को जन्म दिया था... मॉडर्न वैश्वीकरण के इस हाईटेक युग में वह कलम आज प्रौढ़ हो गई है और दम तोड़ रही है।हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर ‍निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है।

पत्रकार के दायित्व एवं भूमिका (Role and responsibilities of Journalist)
जिज्ञासा, मानव चरित्र की सबसे महत्वपूर्ण विशिष्टता है । आम व्यक्ति के लिए समाचारपत्र पढ़ना एक आवश्यकता बन गई है, इसके माध्यम से वह अपने विचारों को पुष्ट और परिष्कृत करता है ।
शिक्षा के प्रसार के कारण समाचारपत्रों की प्रसार-मात्रा भी बढ़ती जा रही है । परिणामस्वरूप समाचार जगत में नित नए समाचारपत्र, दैनिक, सप्ताहिक पत्र-पत्रिकाओं की वृद्धि होती जा रही है । प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में प्रेस चौथी शक्ति के रूप में प्रसिद्ध है । इन चारों शक्ति-स्तम्भों पर ही शासन टिका है ।
संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका प्रजातंत्र की अन्य शक्तियां है । प्रजातंत्र जनता के लिए जनता द्वारा निर्मित शासन व्यवस्था है । इसमें शासन और सरकार का आधार जनता होती है । शासन के कार्यो पर जनता के सहयोग के सिद्धांत पर प्रजातंत्र आधारित होता है । इस प्रकार प्रजातंत्रीय शासन के चारों शक्ति-स्तम्भ न केवल परस्पर संबद्ध होते हैं, बल्कि प्रजातंत्र की मुख्य शक्ति जनता के प्रति समान रूप से जिम्मेदार भी होते हैं ।

यह प्रजातंत्र की सफलता में प्रेस की सशक्त भूमिका की ओर इंगित करता है । समाचारपत्र का सबसे प्रमुख कार्य विश्व में घटित हो रही प्रत्येक घटना से हमें अवगत कराना है । समाचारपत्र राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक और अन्य धार्मिक और अन्य विभिन्न विषयों पर अपने दृष्टिकोण तथा विचारों को अभिव्यक्त करते है । इसमें कोई आश्चर्य नही है कि लोकमत काफी हद तक समाचारपत्र की गुणवत्ता और उसे चलाने वाले पत्रकारों की कुशलता और एकता पर निर्भर करता है ।
जनमत को तैयार करने के अतिरिक्त प्रेस, सरकार और जनता के बीच की कड़ी के रूप मैं कार्य करता है । सरकार अन्तत: जनता के सामने जवाबदेह होती है । देश में हो रहे दिन-प्रति-दिन के विकास कार्यो, दीर्घ और लघु योजनाओं की जानकारी जनता को देना सरकार का कर्तव्य ही नहीं उसके सत्ता में रहने के लिए आवश्यक भी है । सरकार की सफलता आम जनता के साथ उसके संबंध और संबंधों के कायम रखने के लिए नीतियों कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर आधारित होती है ।
जनता को इन लागू और विचाराधीन योजनाओं, परियोजनाओं कार्यक्रमों, नीतियों की सूचना मिलनी चाहिए । दूसरी ओर, सरकार की विभिन्न नीतियों, कार्यक्रमों आदि पर जनता की प्रतिक्रिया से संबंद्ध विभाग को सूचित करना प्रेस का दायित्व है । कभी-कभी सरकार को जनता की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लेने पड़ते हैं । इससे राजनैतिक गतिरोध की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
इस प्रकार की विकट स्थिति पर पत्रकार को बढ़ा-चढ़ाकार खबरें नहीं छापनी चाहिए । सुननाको को सन्तुलित और निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करना पत्रकार का प्रमुख दायित्व है । इस प्रकार की गैर-जिम्मेदारी पूर्ण पत्रकारिता से देश में राजनीतिक अस्थिरता का खतरा उत्पन्न हो जाता है । प्रेस ही जनता और सरकार के मध्य सम्पर्क-सूत्र होता है । इसके अतिरिक्त वह स्वतंत्र रूप से भी जनता तक सरकार की गतिविधियों की सूचनाएं पहुँचाने का कार्य निभाता है।
कभी-कभी सरकार के अनुचित कार्यो के विरूद्ध जनता को जागृत करने का कर्तव्य भी निभाता है । यह समय-समय पर केन्द्र एवं राज्य सरकारों द्वारा लिए गए गलत निर्णयों के प्रति जनता को आगाह करता है और निर्णय को सुधारने या वापस लेने के लिए दबाव बनाता है ।
प्रेस लोगों के समीक्षात्मक शक्ति को विकसित करता है । अमरीका में राष्ट्रपति निक्सन पर महाभियोग लगाने में प्रेस की मुख्य भूमिका थी । प्रेस समाज के विभिन्न वर्गो के लोगों के बीच सम्पर्क स्थापित करता है । इसके माध्यम से साम्प्रदायिक तनाव को कम किया जा सकता है और औद्योगिक विवादों का समाधान ढूंढा जा सकता है। प्रेस के माध्यम से दो वर्गो का विश्लेषण और विवाद की आंतरिक जड़ों तक पहुंच कर उसका हल खोजा जा सकता है । इस प्रकार बहुआयामी समस्याओं के समाधान में भी सहायक सिद्ध हो सकती हैं ।
इन बातों पर विचार करने से यह सिद्ध होता है कि प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिए पत्रकार का दायित्व अत्यंत महत्वपूर्ण है । लेकिन तस्वीर का दूसरा रूख भी है । लोकतंत्र में पत्रकार की भूमिका बहुत आम होती है, लेकिन कुछ पत्रकार निजी स्वार्थवश अथवा दबाव के कारण अपने दायित्वों को ठीक ढंग से पूरा नहीं कर पाते हैं ।
भ्रष्ट पत्रकारों द्वारा सूचना को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने, किसी खबर के विशिष्ट अंश को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करने या महत्वपूर्ण सूचना को दबा देने से जनता में उत्तेजना फैल जाती है । प्रेस तथ्य को कल्पना और कहानी से जोड़ कर अपने कुछ पाठकों की मनोवृत्ति की पुष्टि करता है । इससे पत्रकारिता के स्तर में गिरावट आ रही है।
जिस देश में सभी अपने स्वार्थो के वशीभूत हैं, और भ्रष्टाचार की संस्कृति पनप रही है, वहाँ पत्रकार भी इन दानवों से भला कैसे बच सकते हैं? पत्रकार छोटे-मोटे झगड़ों को साम्प्रदायिक रंग में रंगकर विभिन्न वर्गो में उत्तेजना फैलाने से लेकर प्रमुख व्यक्तियों और राजनीतिज्ञों को ब्लैकमेल करने जैसे कार्यो को आसानी से कर सकते हैं ।
प्रजातंत्र में पत्रकार के ये असीमित अधिकार एक अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं । क्या प्रेस की शक्ति पर प्रतिबंध आवश्यक है? दूसरे शब्दों में प्रेस द्वारा पीत पत्रकारिताको प्रसार के रोकने का अधिकार सरकार को होना चाहिए । इन संबंध में दूसरा प्रश्न यह उठता है कि यदि स्वयं सरकार ही अनैतिक भ्रष्ट लोगों के हाथ में आ जाए और प्रेस उनका समर्थन करे, तो जनकल्याण का क्या हाल होगा? सरकार के कठोर नियंत्रण में प्रेस सरकार का एक अचूक शस्त्र बन जाती है ।
जिससे स्वस्थ विचारों के प्रकाशन में बाधा आएगी । पत्रकारों पर केवल प्रेस परिषद् का ही नियंत्रण होना चाहिए । इससे ही स्वस्थ पत्रकारिता का विकास होगा, जो प्रजातंत्र की अनिवार्य आवश्यकता है ।

पत्रकारिता में करियर (Scope of Journalism)
भारत में विकास तथा गवर्नेंस का क्षेत्र हाल ही में एक नया उदाहरण बना है, जिसका मुख्य आधार नई नीतिगत व्यवस्था, परिवर्तित व्यवसाय परिवेश और सार्वभौमिकरण है। इन समसामयिक स्थितियों के कारण पत्रकारिता की प्रासंगिकता व्यापक रूप से बढ़ गई है। पत्रकारिता के बढ़ रहे महत्व को देखते हुए, कई मीडिया संस्थाएं शैक्षिक संस्थाएं और इलेक्ट्रॉनिक चैनल स्थापित किए गए हैं। मीडिया समाज तथा शासन का वास्तविक दर्पण बन गया है और जन-साधारण की समस्याओं उनकी मांगो को उठाने तथा उन्हें न्याय दिलाने का एक प्रभावी साधन (प्लेट फार्म) बन गया है।
बदलते परिवेश में प्रायः प्रत्येक करियर की संभावनाओं में आमूल परिवर्तन कर दिया है। पत्रकारिता में करियर एक प्रतिष्ठित व्यवसाय है और कुछ मामलों में एक उच्च वेतन देने वाला व्यवसाय है, जो युवाओं की बडी़ संख्या को आकर्षित कर रहा है। किसी भी राष्ट्र के विकास में पत्रकारिता एक अहम भूमिका निभाती है। पत्रकारिता ही वह साधन है, जिसके माध्यम से हमें समाज की दैनिक घटनाओं के बारे में सूचना प्राप्त होती है। वास्तव में पत्रकारिता का उद्देश्य जनता को सूचना देना, समझाना, शिक्षा देना और उन्हें प्रबुद्ध करना है।
पत्रकारों के लिए अवसर अनंत है। किंतु साथ ही साथ किसी भी पत्रकार का कार्य अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि नया विश्व, इस कहावत को चरितार्थ कर रहा है कि ‘‘कलम (और कैमरा) तलवार से कहीं अधिक प्रभावशाली है।’’ अब घटनाओं की मात्र साधारण रिपोर्ट देना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि रिपोर्टिंग में अधिक विशेषज्ञता और व्यावसायिकता होना आवश्यक है। यही कारण है कि पत्रकार समाचारपत्रों एवं आवधिक पत्र-पत्रिकाओं के लिए राजनीति शास्त्र, वित्त एवं अर्थशास्त्र, जाचं, संस्कृति एवं खेल जैसे विविध क्षेत्रों में विशेषज्ञता प्राप्त करते हैं।
एक करियर के रूप में तीन ऐसे मुख्य क्षेत्र हैं जिनमें पत्रकारिता के इच्छुक व्यक्ति रोजगार ढूंढ़ सकते हैं:
•             अनुसंधान एवं अध्यापन
•             प्रिंट पत्रकारिता
•             इलेक्ट्रॉनिक (श्रव्य/दृश्य) पत्रकारिता
अनुसंधान एवं अध्यापन: यद्यपि उच्च शिक्षा, पत्रकारों के लिए रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, किंतु अनुसंधान भी पत्रकारिता में एक सामान्य करियर विकल्प है। पत्रकारिता में पी.एच.डी. प्राप्त व्यक्ति कॉलेजों विश्वविद्यालयों और अनुसंधान संस्थाओं में रोजगार तलाशते हैं। कई अध्यापन पदों पर विशेष रूप से विश्वविद्यालयों और संस्थानों में अनुसंधान कार्यकलाप अपेक्षित होते हैं। शैक्षिक छापाखानों का यह आधार है ‘‘प्रकाशित करो या नष्ट हो जाओ। अधिकांश छापाखानों की तरह इसका भी एक सत्य और विरूपण है। यद्यपि यह निश्चित तौर पर सत्य है कि पुस्तकों अथवा लेखों को प्रकाशित करना कार्य - सुरक्षा तथा पदोन्नति का मुख्य मार्ग है और अधिकांश विश्वविद्यालयों में वेतन वृद्धि होती है, यह अपेक्षा ऐसी स्थापनाओं में अधिक लागू होती है जहां मूल छात्रवृत्ति को महत्व तथा समर्थन दिया जाता है। तथापि कई संस्थाएं उन्नति के एक प्रारंभिक मार्ग के रूप में अनुसंधान अथवा अध्यापन पर अधिक बल देती है। कुछ संस्थाएं एक पर दूसरे को महत्व देती हैं तो कई संस्थाओं का प्रयास अनुसंधान तथा अध्यापन के बीच अधिकतम संतुलन बनाए रखना रहा है।
इसके परिणामस्वरूप यद्यपि कुछ व्यवसायों में पत्रकारिता में कोई डिग्री विशेष रूप से अपेक्षित होती है, तथापि, ऐसा शैक्षिक प्रशिक्षण विविध प्रकार के व्यवसायों में जाने की एक महत्वपूर्ण योग्यता हो सकती है। पत्रकारिता में कला-स्नातक या मास्टर ऑफ आर्टस अथवा अनुसंधान (पीएच.डी.) डिग्रियों के लिए, गैर-लाभ भोगी क्षेत्र में, कोई विश्वविद्यालय, कोई संस्थान कोई व्यावसायिक या मीडिया फर्म रोजगार का क्षेत्र हो सकती है। कुछ ऐसे डिग्रीधारी स्व-रोजगार वाले होते हैं और अपनी निजी अनुसंधान अथवा परामर्श-फर्मों के प्रमुख होते हैं। तथापि, इस तथ्य पर बल दिया जाना चाहिए कि उनकी पद्धतियों तथा परिप्रेक्ष्यों को उपयोगिता देते हुए पत्रकारों ने उनके विकास में सहायता की है और वे ऐसे कई क्षेत्रों तथा करियर के पदों पर फैले हो जहां अनुसंधान का न केवल उपयोग किया जाता हो, बल्कि अनुसंधान कार्यों से भी कहीं आगे जाते हों।
प्रिंट पत्रकारिता: प्रिंट पत्रकारिता समाचार पत्रों पत्रिकाओं तथा दैनिक पत्रों के लिए समाचारों को एकत्र करने एवं उनके सम्पादन से संबद्ध हैं। समाचार पत्र एवं पत्रिकाएं, वे बड़ी हों या छोटी, हमेशा विश्वभर में समाचारों तथा सूचना का मुख्य स्रोत रही हैं और लाखों व्यक्ति उन्हें प्रतिदिन पढ़ते हैं। कई वर्षों से प्रिंट पत्रकारिता बडे़ परिवर्तन की साक्षी रही है। आज समाचार-पत्र एवं पत्रिकाएं विविध विशेषज्ञतापूर्ण वर्गों जैसे राजनीतिक घटनाओं व्यवसाय समाचारों, सिनेमा, खेल, स्वास्थ्य तथा कई अन्य विषयों पर समाचार प्रकाशित करते हैं, जिनके लिए व्यावसायिक रूप से योग्य पत्रकारों की मांग होती है। प्रिंट पत्रकारिता में कोई भी व्यक्ति सम्पादक, संवाददाता, रिपोर्टर, आदि के रूप में कार्य कर सकता है।
इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता: इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता का विशेष रूप से प्रसारण के माध्यम से जन-समुदाय पर पर्याप्त प्रभाव है। दूरदर्शन, रेडियो, श्रव्य, दृश्य (ऑडियो, वीडियो) और वेब जैसे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने दूर -दराज के स्थानों में समाचार, मनोरंजन एवं सूचनाएं पहुंचाने का कार्य किया है। वेब में, कुशल व्यक्तियों को वेब समाचार पत्रों (जो केवल वेब की पूर्ति करते हैं और इनमें प्रिंट संस्करण नहीं होते और लोक प्रिय समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं को जिनके अपने वेब संस्करण होते हैं, साइट रखनी होती है। इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता में कोई भी व्यक्ति रिपोर्टर, लेखक, सम्पादक, अनुसंधानकर्ता, संवाददाता और एंकर बन सकता है।
व्यक्तिगत गुण/कौशल:
पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सफल करियर के रूप में किसी भी व्यक्ति को जिज्ञासु दृढ़ इच्छा शक्ति वाला, सूचना को वास्तविक, संक्षिप्त तथा प्रभावी रूप में प्रस्तुत करने की अभिरुचि रखने वाला, किसी के विचारों को सुव्यवस्थित करने तथा उन्हें भाषा तथा लिखित-दोनों रूपों में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करने में कुशल होना चाहिए। दबाव में कार्य करने के दौरान भी नम्र एवं शांत चित्त बने रहना एक अतिरिक्त योग्यता होती है। जीवन के सभी क्षेत्रों से व्यक्तियों का साक्षात्कार लेते समय पत्रकार को व्यावहारिक, आत्मविश्वासपूर्ण तथा सुनियोजित रहना चाहिए। उसे प्रासंगिक तथ्यों को अप्रासंगिक तथ्यों से अलग करने में सक्षम होना चाहिए। अनुसंधान तथा सूचना की व्याख्या करने के लिए विश्लेषण कुशलता होनी चाहिए।
शिक्षा:
यद्यपि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम एवं अनुसंधान चलाने वाले कई विश्वविद्यालय तथा संस्थान हैं, उनमें कुछ निम्नलिखित हैं:-

•             लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
•             बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी
•             जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
•             भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली
•             मुद्रा संचार संस्थान
•             सिम्बियोसिस पत्रकारिता एवं संचार संस्थान
•             इंदिरा गांधी राष्ट्रीय खुला विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, आदि
अवसर
पत्रकारिता में कोई पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद, कोई भी व्यक्ति किसी मीडिया अनुसंधान संस्थान या किसी सरकारी संगठन में एक अनुसंधान वैज्ञानिक बन सकता है। अनुसंधान कार्य के दौरान भी कोई व्यक्ति अन्य अनुदानों तथा सुविधाओं के अतिरिक्त, मासिक वृत्तिका प्राप्त कर सकता है। कोई भी व्यक्ति किसी समाचारपत्र में या इलेक्ट्रॉनिक चैनल में एक पत्रकार के रूप में कार्यग्रहण कर सकता है और अच्छा वेतन अर्जित कर सकता है।

आचार संहिता (Code of ethics in Print media, Electronic Media (Radio & TV)
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978 की धारा 13 2 ख्र द्वारा परिषद् को समाचार कर्मियों की संहायता तथा मार्गदर्शन हेतु उच्च व्ययवसायिक स्तरों के अनुरूप समाचारपत्रों; समाचारं एजेंसियों और पत्रकारों के लिये आचार संहिता बनाने का व्यादेश दिया गया है। ऐसी संहिता बनाना एक सक्रिय कार्य है जिसे समय और घटनाओं के साथ कदम से कदम मिलाना होगा।
निमार्ण संकेत करता है कि प्रेस परिषद् द्वारा मामलों के आधार पर अपने निर्णयों के जरिये संहिता तैयार की जाये। परिषद् द्वारा जनरूचि और पत्रकारिता नीति के उल्लंघन शीर्­ाक के अंतर्गत भारतीय विधि संस्थान के साथ मिलकर पहले वर्­ा 1984 में अपने निर्णयों / मार्गनिर्देशों के जरिये व्यापक सिद्धातों का संग्रह तैयार किया गया था। सिद्धांतों का यह संकलन परिषद् के निर्णयों अथवा अधिनिर्णयों अथवा इसके अथवा इसके द्वारा अथवा इसके अध्यक्ष द्वारा जारी मार्गनिर्देशों से चुना गया है। वर्­ा 1986 में, सरकार और इसके प्राधिकारियों के विरूद्ध शिकायतों अथवा मामलों, जोकि दूरगाती और महत्वपूर्ण प्रकृति के थे और जिसमें सरकार सहित किसी प्राधिकारी के आचरण का सम्मान करते हुए टिप्पणियाँ शामिल थीं, में निर्णयों और सिद्धांतों से सम्बद्ध प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लंघन शीर्­षक के अंतर्गत संकलन का दूसरा भाग प्रकाशित किया गया।

वर्­ष 1986 से संहिता निर्माण की त्वरित प्रकिया सहित शिकायतों की संस्थापना और प्रेस परिषद् द्वारा उनके निपटान में लगातार वृद्धि होती रही है। 1992 में परिषद् ने पत्रकारिता नीति निर्देशिका प्रस्तुत की जिसमें परिषद् द्वारा जारी मार्गनिर्देशों और निर्णयों से छाँटकर लिये गये पत्रकारिता नीति सिद्धांत हैं। चूँकि तब से परिषद् द्वारा प्रेस के अधिकारों और दायित्वों से सम्बद्ध कई अत्यधिक महत्वपूर्ण निर्णय दिये गये हैं, मार्गनिर्देशिका का 162 पृ­ठों का विस्तृत और व्यापक दूसरा संस्करण जारी किया जा चुका है। इसमें निजता के अधिकार की संकल्पना भी दी गई है और इस संबंध में तथा मागदिर्शन हेतु उच्च व्यावसायिक स्तरो के अनुरूप समाचार पत्रोंकिये जाने वाले मार्गनिर्देश भी विनिर्दि­ट किये गये है। प्रेस, सार्वजनिक कर्मचारियों और लोकप्रिय व्यक्तियों के मार्गदर्शन हेतु इसके कुछ पहलुओं में मानहानि कानून का भी सहयोग लिया गया है। परिषद् ने नगरपालिका समिति के सार्वजनिक पदाधिकारियों की कथित मानहानि के संबंध में महत्वपूर्ण अधिनिर्णय दिया कि प्रेस अथवा मीडिया के विरूद्ध नुकसान हेतु कार्यवाही का उपचार, सरकारी पदाधिकारियों को उनकी सरकारी ड्यूटी के निर्वाह से सम्बद्ध उनके कार्यों और आचरण के संबंध में साधारणतया उपलब्ध नहीं है, चाहे प्रकाशन ऐसे तथ्यों और वक्तव्यों पर आधारित हो जोकि सत्य न हो, जब तक कि पदाधिकारी यह स्थापित न करे कि प्रकाशन, सत्य का आदर और परवाह न करते हुए, किया गया था। ऐसे मामले में बचाव पक्ष् मीडिया अथवा प्रेस का सदस्य के लिये यह सिद्ध करना पर्याप्त होगा कि उन्होंने तथ्यों के समुचित सम्यापन के पश्चात कार्य किया, उनके लिये यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सत्य है। परंतु जहाँ यह सिद्ध होता है कि प्रकाशन दुर्भावना अथवा व्यक्त वैर से प्रवृत्त और झूठा है, वहाँ बचाव पक्ष के लिये कोई बचाव नहीं होगा और नुकसान हेतु उत्तरदायी होगा। हालाँकि एक सार्वजनिक पदाधिकारी कोउन मामलों में जोकि उनकी ड्यूटी के निर्वाह से सम्बंद्ध न हों, वही सुरक्षा मिलती है जैसाकि किसी अन्य नागरिक को मिलती है। हालाँकि न्यायापालिका, संसद और राज्य विधानमंडल इस नियम का अपवाद हैं क्योंकि पूर्ववर्ती इसकी अवमानमा हेतु दंड के अधिकार से सुरक्षित है और उत्तरवर्ती संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के अंतर्गत विशे­ााधिकारों से सुरक्षित है। परिषद् ने आगे दिया है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 अथवा कोई समान अधिनियमन अथवा उपबंध जिसे कानूनी शक्ति प्राप्त हो, प्रेस अथवा मीडिया पर नियंत्रण नहीं रख सकते। यह भी दिया गया है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जोकि प्रेस/मीडिया पर पूर्व नियंत्रण रखने अथवा वर्जित रखने का राज्य अथवा इसके अधिकारियों को अधिकार देता हो।
सार्वजनिक पदाधिकारी के निजता के दावे के संबंध में, परिषद् ने निर्दि­ट किया है कि यदि सार्वजनिक पदाधिकारी की निजता और उनके निजी आचरण, आदतों व्यक्तिगत कार्यों और चरित्र की विशेषताओं, जिनका टकराव अथवा संबंध उनकी शासकीय ड्यूटी के समुचित निर्वाह से हो, के बारे में जानने के जानता के अधिकार के मध्य टकराव हो, तो पूर्ववर्ती को उत्तरवर्ती के सामने झुकना चाहिए। हालाँकि, व्यक्तिगत निजता के मामलों में, जोकि उनकी शासकीय ड्यटी के निर्वाह से सम्बद्ध नहीं है, सार्वजनिक पदाधिकारी को वही सुरक्षा मिलती है जोकि किसी अन्य नागरिक को मिलती है।
यह मार्गनिर्देशिका कुल मिलाकर विधि संबंधी, नैतिक और सदाचार संबंधी समस्याओं जोकि प्रतिदिन समाचारपत्रों के मालिकों, पत्रकारों संपादकों का विरोध करती है, के माध्यम से सुरक्षा और जिम्मेवारी का मार्ग सुझाती है। मार्गनिर्देशिका अकाट्य सिद्धांतों का संकलन नहीं है बल्कि इसमें व्यापक सामान्य सिद्धांत हैं, जोकि प्रत्येक मामले की परिस्थिति को देखते हुए समुचित विवेक और अनुकूलन के साथ लागू किये जाते है, तो वे व्यावसायिक ईमानदारी के मार्ग सहित पत्रकारों को उनके व्यवसाय के संचालन को आत्म-संयमित करने में उनकी सहायता करेंगे। किसी भी तरह ये थकाउ नहीं है न ही इनका अभिप्राय सख्ती है जोकि प्रेस के स्वच्छंद कार्य में बाधा डाले।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए अचार संहिता
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पेशेवर पत्रकारों को यह स्वीकार करना चाहिए और समझना चाहिए कि वे जनता के विश्वास के पहरुए यानी पहरेदार हैं और इसीलिए उन्हें सत्य की खोज करने और उसे संपूर्ण रूप में पूरी आजादी के साथ और निष्पक्षता के साथ लोगों के सामने पेश करना चाहिए. पेशेवर पत्रकारों को अपने द्वारा किए गए कामों के संबंध में पूरी तरह जवाबदेह भी होना चाहिए.
इस संहिता का उद्देश्य ऐसे व्यापक प्रचलनों को दस्तावेज की शक्ल देना है, जिन्हें न्यूज़ ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) के सभी सदस्य प्रचलन और प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं. इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों को जन सेवा और एकरूपता के उच्चतम संभव मानकों को अपनाने और उन पर चलने में मदद मिलेगी.
समाचार चैनल यह मानते हैं कि पत्रकारिता के उच्च मानकों के साथ जुड़े रहने के मामलों में उनके ऊपर खास किस्म की जिम्मेदारी है क्योंकि जनमत को सबसे ज्यादा प्रभावित करने की ताकत भी उनके ही पास है. मोटे तौर पर समाचार चैनलों को जिन सिद्धांतों पर चलना चाहिए, उनका उल्लेख यहां पर किया गया है.
लोकतंत्र में ख़बरों के प्रसारण का बुनियादी उद्देश्य, लोगों को शिक्षित करना और उन्हें यह बताना कि देश में क्या हो रहा है ताकि देश की जनता महत्वपूर्ण घटनाओं को भली भांति समझ सके और उनके बारे में अपने मुताबिक निष्कर्ष निकाल सके.

मीडिया के समक्ष वर्तमान चुनौतियां (Challenges from other media: Radio, TV, Web & Film etc)
लोकतंत्र का सजग प्रहरी प्रेस की आजादी है। देश को आजादी दिलाने में प्रिंट  मीडिया की अहम भूमिका रही। लेकिन प्रिंट मीडिया का प्रभाव 1984 तक प्रभावशाली रहा इसी बीच इलेक्ट्रानिक उपकरणों का भारत में प्रवेश हो जाने के कारण प्रिंट मीडिया के समक्ष अनेक चुनौतिया शुरू हो गई।  प्रिंट मीडिया में जो कठिनाईया छापा मशिनों के समय थी वह कम जरूर हुई हैं लेकिन प्रिंट मीडिया के लिए इलैक्ट्रानिकल मीडिया, सोशल मीडिया कम्प्यूटर, इंटरनेट, मोबाईल, फेशबुक, टियुटर, व्हाटसअप, आदि को भी विकाशगति में जुड़ जाने के कारण प्रिंट मीडिया प्रेस (छापा मषीनों) का स्तर कम हो गया । प्रिंट मीडिया में जहां एक अखबार की छपाई के लिए दस व्यक्तियों की आवश्यकता होती थी आज वह दो व्यक्तियों से अखबार की छपाई व बंडल बाधने का कार्य हो गया जिससे बैरोजगारी बड़ी तथा रोजगार के अवसर कम हुये। प्रिंट मीडिया का जो व्यापार था वह वर्तमान समय में बहुत की कम रह गया। आम व्यक्ति अपना व्यापार का प्रचार प्रसार, उसकी क्वालटी की जानकारी कम दामों में कम समय में इलेक्ट्रानिकल चैनल, टीवी, फेसबुक, व्हाट्सअप आदि के माध्यम से अपनी बात रख एवं कर लेते है जिससे प्रिंट मीडिया का हानि उठानी पड़ रही है ।
प्रिंट मीडिया में वर्तमान चुनौतिया इस प्रकार से बढ़ती चली जा रही है कि प्रिंट मीडिया से प्रकाशित समाचार पत्रों को प्रतियोगिता की दौड़ में समाचार पत्र, पत्रिकायें, में भौतिकवादी युग की छाया के साथ कार्य करना आवश्यक हो गया है। वर्तमान समय में प्रिंट मीडिया के लिए जो प्रिंटर या छापा मशिनें बाजार में आ रही है उनकी लागत पुजी दस लाख से दो से तीन करोड़ तक पहुच रही है । ऐसे समय में प्रिंट मीडिया से जुड़े संपादक, प्रकाशक मुद्रॅक के सामने आर्थिक संकट आना ही है। इस कारण उद्योग पति या पुजीपतियों के हाथ में प्रिंट मीडिया का कारोबार सिमट कर रह गया है।  प्रिंट मीडिया से प्रकाशित समाचार पत्रों के लिए सुबह से रात्रि 9 बजे तक की घटनाओं एंव समाचारों के लिए अपने सूत्र विश्वनीयता के साथ खोजना होते है चॅूकि वर्तमान समय में इलेक्ट्रानिक मीडिया इंटरनेट, सोशल मीडिया, व्हाटसअप जैसे सूचना संदेश में पल पल की खबरें आम जन तक पहुच जाती है उसके बाद भी प्रिंट मीडिया को अपनी विश्वनीयता बनाये रखने के लिए समाचारों की तह तक जाने के लिए किसी भी समाचार के पाच सूत्र कब, क्यों, कैसे, कौन व कहां प्रश्नवाचक शब्दों को समाहित करने के बाद ही समाचार का प्रकाशन किया जाता है कम शब्दों में सम्पूर्ण सार प्रदान करने के लिए कठिन मेहनत करना होती है । समाचार पत्र प्रकाशन के साथ ही पाठ तक समाचार पत्र भेजने के लिए ऐजेन्ट या अपने प्रतिनिधिओं, संवाददाताओं के बीच तालमेल बनाकर सुबह की किरणें निकलने के पूर्व पाठक के हाथ में समाचार पत्र भेजने की व्यवस्था पत्र संपादक या प्रसार व्यवस्थापक को व्यवस्थित करना होती है। समाचार पत्र की अग्रिम राशि ऐजेन्ट से लेने के बाद ग्राहक से एक माह या दो माह की राशि वसूली करेन में अनेक कठिनाईया होती है।
समाचार पत्र में प्रकाशित समाचारों में इस बात का भी पूर्ण ध्यान रखना होता है कि जो समाचार प्रकाशित किया गया है उसकी पूर्ण सत्यता हो । संपादक/ पत्रकार को किसी भी छवि खराब करने का अधिकार नही दिया गया है । क्योकि भारतीय प्रेस परिषद के नियम व कानून के साथ समाचार पत्र में किसी भी समाचार की सत्यता न होने पर अपराध की श्रेणी में आकर प्रकाशक, संपादक मुद्रॅक एवं वितरक को दण्ड का भागीदार भी बनाया जा सकता है । भारतीय दंड संहित की धारा 499, 500, 501, 502 के पत्रकार संपादक को सजा का प्रावधान रखा गया है । यदि कोई भी पत्रकार/संपादक/ब्यूरो चीफ ब्लैकमेल की कोशिश कर जबरन विज्ञापन या राशि मांग करता है तो उसके विरूद्ध अवैध वसूली अपराध धारा 384 ता0हि0 का प्रकरण दर्ज हो सकेगा ।
वर्ष 1993 से  विश्व प्रेस दिवस मानाया जाने लगा है।  भारत की आजादी के बाद 1948 में संविधान के अनुच्छेद  19 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा में प्रेस की आजादी की अभिव्यक्ति दी गई है। मेरी नजर में देश को आजाद कराने बाले पत्रकारों के पास आर्थिक धन का आभाव हुआ करता था तथा साधनहीन हुआ करते थें तथा पत्रकार की पहचान पूर्ण रूप से देश एवं समाजसेवा होती थी। वे पैदल चलते थे तथा यदि कोई पत्रकार समर्थ है, तो उसके पास साईकिल हुआ करती थी समाचार भेजने का एक मात्र साधन डाक विभाग हुआ करता था, इसलिए क्षेत्रीय खबरे सप्ताह या हर महीने पढ़ने का मिला करती थी। लेकिन सही सत्य व विष्वास पात्र समाचार हुआ करते थे। कर्मयोगी एवं समाज सुधारक व्यक्ति ही पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना जीवन न्यौछावर किया करते है।

प्रथम प्रेस आयोग (1952-54): (First press commission)

सूचना और प्रसारण भारत में प्रेस की स्थिति में पूछताछ के मंत्रालय द्वारा 23 सितम्बर 1952 पर न्यायाधीश जेएस Rajadhyakhsa की अध्यक्षता में पहले प्रेस आयोग का गठन किया गया था. 11 सदस्य काम कर रहे समूह के अन्य सदस्यों में से कुछ थे डॉ. सी.पी. रामास्वामी अय्यर, आचार्य नरेन्द्र देव, डा. जाकिर हुसैन, और डॉ. VKV राव. यह कारक है, जो प्रभाव और भारत में पत्रकारिता के उच्च मानकों की स्थापना और रखरखाव में देखने के लिए कहा गया था.आयोग ने देश में समाचार पत्र उद्योग के प्रबंधन, नियंत्रण और स्वामित्व, वित्तीय संरचना के रूप में के रूप में अच्छी तरह से अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं में पूछा. आयोग, एक सावधान और विस्तृत अध्ययन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि दोनों और विशेष रूप से उच्च स्तर पर कर्मचारियों की राजधानी के स्वदेशीकरण किया जाना चाहिए और यह उच्च वांछनीय है कि दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में स्वामीय हितों भारतीय हाथों में मुख्य रूप से बनियान चाहिए था.प्रेस आयोग की सिफारिशों और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत नोट पर विचार करने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 13 सितंबर, 1955 है, जो भारत में प्रेस के संबंध में बुनियादी नीति दस्तावेज बन गया है पर एक प्रस्ताव पारित किया. संकल्प के रूप में इस प्रकार है: -"मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण नोट 4 मई, 1955 को मंत्रालय माना जाता है, और मानना ​​था कि अब तक के रूप में अन्य देशों के नागरिकों द्वारा अखबारों और पत्रिकाओं के स्वामित्व में चिंतित था, समस्या के रूप में वहाँ एक बहुत ही गंभीर नहीं था केवल कुछ ऐसे समाचार पत्रों और पत्रिकाओं थे. कैबिनेट, इसलिए महसूस किया है, कि कोई भी कार्रवाई करने के लिए इन अखबारों और पत्रिकाओं के संबंध में लिया जा सकता है, लेकिन कोई विदेशी स्वामित्व वाली अखबार या पत्रिका, भविष्य में भारत में प्रकाशित किया जाना चाहिए की अनुमति दी जाए कि जरूरत है. कैबिनेट, पर सहमत हुए, लेकिन है कि आयोग है कि विदेशी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं, जो समाचार और समसामयिक मामलों के साथ मुख्य रूप से निपटा बाहर भारतीय संस्करण लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए, के अन्य सिफारिश सिद्धांत रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए.
***पिछले 46 वर्षों के दौरान के बाद से ऊपर संकल्प प्रभाव में आया, कोई विदेशी अखबार या पत्रिका के लिए भारत से प्रकाशित होने की अनुमति दी गई है और न ही घरेलू प्रिंट मीडिया के क्षेत्र में किसी भी विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है.हालांकि, वैश्वीकरण के नए संदर्भ में विदेशी भागीदारी और प्रिंट मीडिया में निवेश के लिए मांग समाचार पत्र उद्योग के एक खंड के द्वारा उठाया गया है. सार्वजनिक बहस है जो इस मुद्दे पर जगह ले ली है, प्रिंट मीडिया की राय विभाजित किया गया है. चूंकि मुद्दे पर अब तक भारत में प्रेस के लिए परिणाम तक पहुँचने, समिति के एक विस्तृत अध्ययन के लिए इस विषय को लेने का फैसला किया. एक सार्वजनिक नोटिस जारी किया गया था.
***आयोग नियुक्त किया गया क्योंकि आजादी के बाद प्रेस की भूमिका के लिए एक मिशन से व्यवसाय के लिए बदल रहा था. यह पाया गया है कि वहाँ अक्सर समुदायों या समूहों अभद्रता और अश्लीलता और व्यक्तियों पर व्यक्तिगत हमले के खिलाफ निर्देशित घृण्य लेखन का एक बड़ा सौदा था. यह भी कहा कि पीला पत्रकारिता देश में वृद्धि पर किया गया था और विशेष रूप से किसी भी क्षेत्र या भाषा के लिए ही सीमित नहीं है. आयोग, लेकिन पाया गया कि पूरे पर अच्छी तरह से स्थापित, समाचार पत्र, पत्रकारिता के एक उच्च स्तर को बनाए रखा था.यह टिप्पणी की है कि जो कुछ भी प्रेस संबंधित कानून हो सकता है, वहाँ अभी भी आपत्तिजनक पत्रकारिता की एक बड़ी मात्रा में है, जो कानून के दायरे के भीतर नहीं गिरने हालांकि, अभी भी कुछ जाँच की आवश्यकता होगी होगा. यह महसूस किया है कि पेशेवर पत्रकारिता के मानकों को बनाए रखने का सबसे अच्छा तरीका अस्तित्व में मुख्य उद्योग जिसकी जिम्मेदारी संदिग्ध बिंदुओं पर मध्यस्थता करने की और किसी भी अच्छा पत्रकारिता के अतिक्रमण के दोषी की सजा सुनिश्चित करने के लिए किया जाएगा के साथ जुड़े लोगों की एक शरीर लाना होगा व्यवहार. आयोग की एक महत्वपूर्ण सिफारिश स्थापित किया गया एक सांविधिक प्रेस आयोग की राष्ट्रीय स्तर पर, प्रेस लोगों के शामिल है और सदस्यों को रखना.इसकी सिफारिश और की गई कार्रवाई के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है इस प्रकार है:
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए और पत्रकारिता के उच्च मानकों को बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परिषद की स्थापना की जानी चाहिए.
भारतीय प्रेस परिषद ने 4 जुलाई, 1966 को जो 16 नवंबर (इस तिथि पर राष्ट्रीय प्रेस दिवस मनाया जाता है) 1966 से कामकाज शुरू कर दिया पर स्थापित किया गया था.
प्रेस और हर साल की स्थिति के खाते तैयार करने के लिए, भारत (आरएनआई) के लिए अखबार के रजिस्ट्रार की नियुक्ति होना चाहिए.
यह भी स्वीकार कर लिया गया आर.एन.आई. जुलाई 1956 में नियुक्त किया गया था.
अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना चाहिए.
यह भी 1956 में स्वीकार किया गया था.
सरकार और प्रेस के बीच एक सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए, एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन होना चाहिए.
इसे स्वीकार कर लिया गया था और 22 सितंबर को एक प्रेस परामर्शदात्री समिति का गठन किया गया था1962.काम कर रहे पत्रकारों को अधिनियम लागू किया जाना चाहिए.
सरकार यह लागू और श्रमजीवी पत्रकार और अन्य समाचार पत्र कर्मचारियों (सेवाओं की शर्तों) और विविध प्रावधान अधिनियम 1955 में स्थापित किया गया था.यह एक तथ्य खोजने के समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों की वित्तीय स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए समिति की स्थापना की सिफारिश की.
एक तथ्यान्वेषी समिति 14 अप्रैल 1972 को स्थापित किया गया था. यह 14 जनवरी 1975 को अपनी रिपोर्ट सौंपी.
प्रेस की स्वतंत्रता के मुख्य सिद्धांतों की रक्षा और एकाधिकार प्रवृत्ति के खिलाफ अखबारों में मदद करने के लिए, एक अखबार वित्तीय निगम का गठन किया जाना चाहिए.
यह सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया गया है और 4 दिसंबर 1970 को भी एक विधेयक लोकसभा में पेश किया गया।

द्वितीय प्रेस आयोग (Second press commission)

भारत सरकार ने 29 मई, 1978 को द्वितीय प्रेस आयोग का गठन किया है. दूसरे प्रेस आयोग प्रेस न तो एक दौर थमने विरोधी और न ही एक निर्विवाद सहयोगी होना चाहता था. आयोग प्रेस के विकास की प्रक्रिया में एक जिम्मेदार भूमिका निभाने के लिए करना चाहता था. प्रेस व्यापक रूप से लोगों के लिए सुलभ हो सकता है अगर यह अपनी आकांक्षाओं और समस्याओं को प्रतिबिंबित करना चाहिए.शहरी पूर्वाग्रह का सवाल भी आयोग का ध्यान प्राप्त हुआ है. आयोग ने कहा है कि विकास के लिए जगह ले, आंतरिक स्थिरता के रूप में राष्ट्रीय सुरक्षा की सुरक्षा के रूप में महत्वपूर्ण था.आयोग भी प्रेस की (और इसलिए जिम्मेदारी) को रोकने और deflating सांप्रदायिक संघर्ष में भूमिका पर प्रकाश डाला.भारत के दोनों प्रेस आयोगों प्रेस से कई सम्मानजनक सदस्यों को शामिल किया. पहली बार के लिए पहली प्रेस आयोग की सिफारिश के एक जिम्मेदार प्रेस क्या होना चाहिए की विचार प्रदान करता है. 2 प्रेस आयोग एक स्पष्ट तरीके है कि एक देश में विकास प्रेस के केंद्रीय ध्यान केंद्रित हो सकता है, जो खुद का निर्माण होता है एक आत्मनिर्भर और समृद्ध समाज बनने चाहिए में तैयार की है. आयोग ने घोषणा की है कि एक जिम्मेदार प्रेस भी एक स्वतंत्र प्रेस और ठीक इसके विपरीत हो सकता है. स्वतंत्रता और जिम्मेदारी मानार्थ लेकिन नहीं विरोधाभासी हैं. मुख्य सिफारिशों के रूप में जानकारी दी जा सकती है:एक प्रयास करने के लिए सरकार और प्रेस के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करने के लिए किया जाना चाहिए.छोटे और मध्यम अखबार के विकास के लिए, वहाँ अखबार विकास आयोग की स्थापना होना चाहिए.अखबारों के उद्योगों उद्योगों और वाणिज्यिक हितों से अलग किया जाना चाहिए.अखबार के संपादकों और मालिकों के बीच के न्यासी बोर्ड की नियुक्ति होना चाहिए.अनुसूची मूल्य पृष्ठ शुरू किया जाना चाहिए.छोटे, मध्यम और बड़े अखबार में समाचार और विज्ञापनों के एक निश्चित अनुपात होना चाहिए.अखबारों के उद्योगों को विदेशी पूंजी के प्रभाव से मुक्त किया जाना चाहिए.कोई भविष्यवाणियों अखबारों और पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाना चाहिए.विज्ञापन की छवि के दुरुपयोग को बंद कर दिया जाना चाहिए.सरकार एक स्थिर विज्ञापन नीति तैयार करना चाहिए.प्रेस सूचना ब्यूरो का पुनर्गठन किया जाना चाहिए.प्रेस कानूनों में संशोधन किया जाना चाहिए.।

भारतीय प्रेस परिषद्: संरचना, शक्ति, कार्य (Press Council of India: Composition, power & functions)

भारतीय प्रेस परिषद् संसद के अधिनियम द्वारा सृजित एक कानूनी अर्ध न्यायिक निकाय है। इसे प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखने और भारत में समाचार-पत्रों तथा समाचार अभिकरणों के मानकों की बनाए रखने तथा उनमें सुधार लाने के दोहरे उद्देश्य से प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिशीं पर भारतीय प्रेस परिषद् अधिनियम, 1965 के अधीन पहले 1966 में स्थापित किया गया था। 1965 के अधिनियम को 1975 में निरस्त कर दिया गया था और आपातकाल के दौरान प्रेस परिषद् को समाप्त कर दिया गया था। 1965 के अधिनियम की भांति 1978 में लगभग उन्हीं आधारों पर एक नया अधिनियम बनाया गया था और 1979 में इस अधिनियम के तहत प्रेस परिषद् की पुनःस्थापना की गई।
प्रेस परिषद् के माध्यम से प्रेस स्वयं पर नियंत्रण रखती है। इस अद्वितीय संस्थान के अस्तित्व का कारण इस संकल्पना में है कि एक लोकतांत्रिक समाज में प्रेस को एकदम स्वतंत्र और जिम्मेदार होने की आवश्यकता है।
यदि प्रेस की जनहित के हितप्रहरी के रूप में कार्य करना है, तो इसके पास सुरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए जोकि किसी उन्मुक्त हो। परंतु प्रेस स्वतंत्रता का यह दावा तभी वैध होगा जब इसका निर्वाह दायित्व की समुचित भावना के साथ किया जाये। अतः प्रेस को पत्रकारिता नीति के स्वीकृत मानकों का पालन करना चाहिए और व्यावसायिक आचरण के उच्च स्तरों को बनाये रखना चाहिए।
जहाँ मानकों का उल्लंघन किया जाता है और व्यवसायिक आचरण द्वारा स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया जाता है तब इसकी जाँच और इसके नियंत्रण के लिए कोई रास्ता अवश्य होना चाहिए परंतु सरकार अथवा शासकीय प्राधिकारियों द्वारा नियंत्रण इसे स्वतंत्रता का विनाशक सिद्ध हो सकता है। अतः सर्वोत्तम रास्ता यही है कि इस व्यवसाय के सभी साथी कुछ विवेकपूर्ण लोगों की सहायता से समुचित संरचनात्मक मशीनरी के माध्यम से इस पर नियंत्रण रखें। अतः प्रेस परिषद् का निर्माण किया गया।
संरचना
प्रेस परिषद् का प्रमुख अध्यक्ष होता है, जो परिपाटी के अनुसार, भारत के उच्चतम न्यायालय का आसीन/सेवानिवृत्त न्यायाधीश रहा हो। परिषद् में 28 अन्य सदस्य होते हैं जिनमें से 20 प्रेस के प्रतिनिधि होते हैं। पांच सदस्य संसद के दोनों सदनों से होते हैं, जो पाठकों के हित का प्रतिनिधित्व करते हैं और तीन सदस्य सांस्कृतिक, साहित्य और विधि के क्षेत्र से होते हैं जिन्हें क्रमशः विश्वविद्यालय अनुदान आयोग; साहित्य अकादमी, और भारतीय विधि परिषद द्वारा नामित किया जाता है। अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है। प्रेस परिषद् अधिनियम में समाचार-पत्रों या प्रेस के व्यक्तियों की व्यक्तिगत सदस्यता का प्रावधान नहीं है। लेकिन देश के समाचार-पत्रों तक पहुंचने और अपनी न्यायनिर्णायक तथा सलाहकारी भूमिका प्रदान करने के लिए, प्रेस परिषद् उन समाचार-पत्रों/समाचार अभिकरणों/पत्रिकाओं पर वार्षिक शुल्क लगाता है जिनका परिषद् के राजस्व में योगदान होता है।
1978 के अधिनियम की धारा 13 में किए गए प्रावधान के अनुसार, भारतीय प्रेस परिषद् का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखना और भारत में समाचार-पत्रों तथा समाचार अभिकरणों के मानकों की बनाए रखना तथा उनमें सुधार लाना है। अधिनियम के अनुसार, परिषद् को सलाहकार की भूमिका भी सौंपी गई है। इसके अनुसार, परिषद स्वप्रेरणा से या अधिनियम की धारा 13(2) के अंतर्गत सरकार द्वारा भेजे गए मामलों का अध्ययन कर सकता है और किसी विधयक, विधान, विधि या प्रेस से संबंधित अन्य विषयों के संबंध में अपनी राय व्यक्त कर सकती है तथा सरकार और संबद्ध व्यक्तियों को अपनी राय दे सकती है। लोक महत्व के लिए उसकी कानूनी जिम्मेदारियों से संबंधित मामले में परिषद् स्वप्रेरणा से संज्ञान ले सकती है और तत्काल जांच करने के लिए विशेष समिति का गठन कर सकती है।
प्रेस परिषद् के उद्देश्यों का विस्तार करते हुए, ऐसे कुछ महत्वपूर्ण कार्य हैं जिनके संबंध में प्रेस परिषद् से अपेक्षा की जाती है कि वह इन्हें करे यथा समाचार-पत्रों, समाचार अभिकरणों की स्वतंत्रता को बनाए रखने में सहायता करना; उच्च व्यावसायिक मानकों के अनुसार, समाचार पत्रों, समाचार अभिकरणों और पत्रकारों के लिए आचार संहिता तैयार करना; समाचार-पत्रों, समाचार अभिकरणों तथा पत्रकारों की ओर से जनता की अभिरुचि के उच्च मानकों तथा अधिकारों एवं जिम्मेदारियों दोनों की उचित भावना के प्रसार को बनाए रखना, लोकहित तथा महत्व के समाचारों के प्रसार की निर्बाधित करने की संभावना वाले किसी विकास की समीक्षा करना; समाचार-पत्रों के उत्पादन या प्रकाशन में या समाचार अभिकरणों में लगे सभी वर्गों के लोगों में उचित कार्यात्मक संबंध का संवर्धन करना, और समाचार-पत्रों के स्वामित्व के संकेद्रण या उसके अन्य पहलुओं, जिनसे प्रेस की स्वतंत्रता प्रभावित हो, जैसे विकासों से स्वयं को जोड़ना।
भारतीय प्रेस परिषद् की अत्यधिक स्वस्थ और अनोखी विशेषता यह है कि संसद के अधिनियम के अधीन स्थापित किए गए कुछ ऐसे निकायों में से यह भी एक निकाय है। विश्व के अधिकांश देशों में ठीक ऐसी ही संस्थाएं या ऐसे निकाय, स्वैच्छिक संस्थाएं हैं अथवा भारतीय प्रेस परिषद् के पश्चात् अस्तित्व में आई हैं। इस तथ्य के बावजूद कि उसकी निधियों का एक बड़ा भाग सरकार का सहायता अनुदान है फिर भी इसे सरकारी नियंत्रण से अपने कानूनी उत्तरदायित्वों के निर्वहन में कार्यात्मक स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता प्राप्त है।

परिषद् की शक्तियाँ

·         जहाँ परिषद् को, उससे किए गए परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या सामाचार एजेंसी ने पत्रकारिक सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी सम्पादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोई वृत्तिक अवचार किया है, वहां परिषद् सम्बद्ध समाचारत्र या समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात उस रीति से जाँच कर सकेगी जो इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबन्धित हो और यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करना आवश्यक है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखवद्ध किये जायेंगे, यथास्थिति उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर सकेगी।
·         यदि परिषद् की यह राय है कि लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी जाँच से संबंधित किन्हीं विशि­टयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक समझे प्रकाशित करे।
·         उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।
·         यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।

परिषद् की साधारण शक्तियाँ

इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय
1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-
·         व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा करना,
·         दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,
·         साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना
·         किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपियों की अध्यपेक्षा करना,
·         साक्षियों का दस्तावेज़ की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,
·         कोई अन्य विषय जो विहित जाए।
·         उपधारा 1, की कोई बात किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को उस समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित या उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार द्वारा प्राप्त रिपोर्ट किये गये किसी समाचार या सूचना का स्रोत प्रकट करने के लिए विवश करने वाली नहीं समझी जायेगी। 1860 का 45, 3, परिषद् द्वारा की गयी प्रत्येक जाँच भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जायेगी।
          यदि परिषद् अपने उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए या अधिानियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए आवश्यक समझती है तो वह अपने किसी विनिश्चय में या रिपोर्ट में किसी प्राधिकरण के, जिसके अन्तर्गत सरकार भी है, आचरण के संबंध में ऐसा मत प्रकट कर सकेगी जो वह ठीक समझे। शिक्षाविदों की विशि­ट मंडली द्वारा संवारा गया है। उच्चतम न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायामूर्ति श्री जे. आर. मधोलकर, पहले अध्यक्ष थे जिन्होंने 16 नवम्बर 1966 से 1 मार्च 1968 तक परिषद् की अध्यक्षता की। इसके पश्चात न्यायामूर्ति श्री एन. राजगोपाला अय्यनगर 4 मई 1968 से 1 जनवरी 1976 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. ग्रोवर 3 अप्रैल 1979 से 9 अक्टूबर 1985 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. सेन 10 अक्टूबर 1985 से 18 जनवरी 1989 तक और न्यायामूर्ति श्री आर. एस. सरकारिया 19 जनवरी 1989 से 24 जुलाई 1995 तक और श्री पी. बी. सार्वेत 24 जुलाई 1995 से अब तक परिषद् के अध्यक्ष रहे हैं। ये उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। इन सभी ने परिषद् के दर्शन और कार्यों में गहन वचनवद्धता के साथ, परिषद् का मार्गदर्शन किया। परिषद् इनसे निर्देश पाकर, इनके ज्ञान और बुद्धि से अत्यधिक लाभान्वित हुई।
कार्य
1.       प्रेस की स्वतंत्रता का संरक्षण
2.       भारत में समाचार-पत्रों और समाचार एजेंसियों के स्तरों की बनाए रखना और उनमें सुधार करना
3.       प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867 की धारा 8 ख के अंतर्गत विद्यमान घोषणा-पत्र को रद्द करने अथवा धारा 6 के अंतर्गत घोषणा-पत्र को अधिप्रमाणित करने से मना करने, मजिस्ट्रेट के आदेश से व्यथित व्यक्ति की शिकायत का निवारण करने के लिए 1867 के कथित अधिनियम के अंतर्गत अपील प्राधिकरण का इसे अतिरिक्त कार्य सौंपा गया है।
4.       समाचार-पत्रों और समाचार एजेंसियों की स्वतंत्रता बनाए रखने में उनकी सहायता करना।
5.       उच्च व्यावसायिक स्तरों के अनुरूप समाचार-पत्रों, समाचार एजेंसियों और पत्रकारों के लिए आचार संहिता का निर्माण करना।
6.       समाचार-पत्रों, समाचार एजेंसियों और पत्रकारों की ओर से जनरुचिके उच्च स्तरों को बनाये रखना सुनिश्चित करना और अधिकारों तथा दायित्व दोनों की समुचित भावना को बढ़ावा देना।
7.       ऐसी किसी भी घटना पर नजर रखना जिससे जनरुचि और जनसमूह के समाचार के प्रचार-प्रसार पर रोक की संभावना हो।
8.       समाचार-पत्रों अथवा समाचार एजेंसियों के उत्पादन अथवा प्रकाशन में लगे व्यक्तियों के सभी वर्गों के बीच समुचित कार्यात्मक संबंध को बढ़ावा देना।
9.       कोई घटना जैसे समाचार-पत्रों और समाचार एजेंसियों के स्वामित्व की एकाग्रता अथवा अन्य पहलुओं, जोकी प्रेस की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकते हैं, में हस्तक्षेप करना।
10.   प्रेस की स्वतंत्रता अथवा पत्रकारिता के मानकों के उल्लंघन के संबंध में आम जनता, समाचार-पत्र और पत्रकारों द्वारा की गयी शिकायतों का निवारण करना।
11.   मूल कार्रवाई करना अथवा सरकार द्वारा इसे भेजे गये पत्र पर अध्ययन करना और किसी विधेयक, विधान, कानून अथवा प्रेस का स्पर्श करते हुए अन्य मामलों पर राय व्यक्त करना तथा प्राधिकारियों अथवा सम्बद्ध व्यक्तियों को मत सम्प्रेषित करना।
12.   इसके संविधिक दायित्वों को स्पर्श करते हुए, लोक महत्व के मामले में मूल कार्रवाई करना और घटना स्थल की जांच करना।
  

ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशंस (एबीसी) (Audit bureau of Circulation)

ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशंस (एबीसी) दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चल रहे एक ही नाम के कई संगठनों में से एक है। 1948 में स्थापित एबीसी एक गैर-लाभकारी, स्वैच्छिक संगठन है जिसमें प्रकाशकों, विज्ञापनदाताओं और विज्ञापन एजेंसियों के सदस्य शामिल हैं। यह एबीसी के सदस्य हैं जो प्रकाशनों के परिसंचरण आंकड़ों को प्रमाणित करने के लिए लेखापरीक्षा प्रक्रियाओं के विकास में अग्रणी कार्य करता है।
एबीसी जिसे इसे सभी समझा जाता है और समझा जाता है, प्रमाणन के लेखा परीक्षा ब्यूरो के अंतर्राष्ट्रीय संघ के संस्थापक सदस्य हैं। एबीसी का मुख्य कार्य विकसित करना है, एक मानक और वर्दी लेखा परीक्षा प्रक्रिया निर्धारित करना जिसके द्वारा एक सदस्य प्रकाशक अपनी योग्यता प्रतियों की गणना करेगा। इस तरह के परिसंचरण आंकड़े को चार्टर्ड एकाउंटेंट की एक फर्म द्वारा चेक और सत्यापित किया जाता है जिसे ब्यूरो द्वारा सूचीबद्ध किया जाता है। ब्यूरो प्रत्येक छह महीने उन प्रकाशकों के सदस्यों को एबीसी प्रमाण पत्र जारी करता है जिनके परिसंचरण आंकड़े ब्यूरो द्वारा निर्धारित नियमों और विनियमों की पुष्टि करते हैं।
एक स्वतंत्र निकाय द्वारा जांच और प्रमाणित किए जाने वाले परिसंचरण आंकड़े विज्ञापन व्यवसाय समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण टूल और महत्वपूर्ण हैं। अधिक जानकारी के लिए www.auditbureau.org पर जाएं।
एबीसी की सदस्यता में आज 562 दैनिक समाचार पत्र, 107 वीकियां और 50 पत्रिकाएं और 125 विज्ञापन एजेंसियां, 45 विज्ञापनदाता और 22 नई एजेंसियां ​​और प्रिंट मीडिया और विज्ञापन से जुड़े संघ शामिल हैं। इसमें भारत के अधिकांश प्रमुख कस्बों को शामिल किया गया है।
एक विज्ञापनदाता विज्ञापन में अपना पैसा निवेश करने से पहले तथ्यों और आंकड़ों को जानना चाहता है। एक विज्ञापनदाता को यह जानना चाहिए कि कितने लोग प्रकाशन खरीदते हैं और किस क्षेत्र में। एबीसी हर छह महीने में इन सभी महत्वपूर्ण आंकड़ों को देता है। एबीसी के आंकड़े राय, दावे या अनुमान के नतीजे नहीं हैं, लेकिन वे ब्यूरो द्वारा निर्धारित नियमों / प्रक्रियाओं के अनुसार काम कर रहे चार्टर्ड एकाउंटेंट्स की स्वतंत्र फर्मों द्वारा सदस्य प्रकाशनों के भुगतान परिसंचरण के कठोर, indepth और निष्पक्ष लेखा परीक्षा का परिणाम हैं।

प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो (Press information bureau)

प्रेस सूचना ब्यूरो, आमतौर पर पीआईबी के रूप में संक्षेप में, भारत सरकार की एक नोडल एजेंसी है। राष्ट्रीय मीडिया सेंटर, नई दिल्ली के आधार पर, प्रेस सूचना ब्यूरो सरकारी योजनाओं, नीतियों, कार्यक्रम पहलों और उपलब्धियों पर प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और नए मीडिया को जानकारी प्रसारित करता है। निजी मीडिया की सुविधा के लिए पीआईबी सरकार की नोडल एजेंसी भी है। प्रेस सूचना ब्यूरो की स्थापना 1919 में एक छोटे से सेल के रूप में की गई थी, जो अब 8 क्षेत्रीय कार्यालयों और 34 शाखा कार्यालयों के देशव्यापी नेटवर्क में उभरा है।
प्रेस सूचना ब्यूरो केंद्र सरकार के संचार के लिए प्रवेश द्वार है। इसने मोबाइल उपयोगकर्ताओं के लिए अपनी वेबसाइट का मोबाइल संस्करण भी लॉन्च किया है।

 भारतीय पाठक सर्वेक्षण  (Indian Readership survey)

मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) 1994 से अस्तित्व में एक गैर-लाभकारी उद्योग निकाय है। परिषद शोध अध्ययन तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है जो संगठनों को विश्वसनीय व्यापार मॉडल बनाने में मदद करती है।
एमआरयूसी के गठन के पीछे उद्देश्य मीडिया अनुसंधान में आवश्यकता अंतराल की पहचान करना और डेटा की अखंडता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रखते हुए शोध तकनीकों में वैश्विक मानकों को अपनाने के द्वारा प्रासंगिक समाधान प्रदान करना था। इसका उद्देश्य मीडिया खपत में लगातार और तेज़ परिवर्तनों को पकड़ने के लिए आवधिक अनुसंधान प्रदान करना है।
मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) ने वर्ष 2017 का पाठक सर्वेक्षण जारी कर दिया है। इस में 3 लाख 20 हजार घरों की राय ली गई है जो इतिहास में दुनिया का सबसे बड़ा नमूना (सैंपल) भी है। 16 महीने के लंबे समय में सर्वे को 26 राज्यों में पूरा किया गया। यह सर्वे रीडरशीप स्टडीज काउंसिल ऑफ इंडिया और मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल ने करवाया था।
भारत के सभी भाषाओं के अखबारों की कुल पाठक संख्या के आधार पर जो 20 सर्वाधिक पठित सूची बनी है , उसमें हिन्दी समाचार पत्र दैनिक जागरण सबसे ऊपर है। सर्वाधिक पढ़े जाने वाले दस भारतीय अखबारों में अंग्रेजी भाषा का एक भी पत्र नहीं है। अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया भले ही अंग्रेजी अखबारों में प्रथम स्थान पर है लेकिन सभी भारतीय भाषाओं के अखबारों की कुल प्रसार संख्या के मामले में ग्यारहवें स्थान पर है। बीस स्थानों में केवल एक ही अंग्रेजी का अखबार अपना स्थान बना पाया है जबकि हिन्दी के 8 पत्र प्रथम 20 में स्थान बनाने में सफल हुए हैं।
नीचे प्रथम 11 पत्रों की सूची और उनकी पाठक संख्या दी गयी है-
1.       दैनिक जागरण -- 7,03,77,000
2.       हिन्दुस्तान -- 5,23,97,000
3.       अमर उजाला --4,60,94,000
4.       दैनिक भास्कर -- 4,51,05,000
5.       डेली तान्ती (तमिल) -- 2,31,49,000
6.       लोकमत (मराठी) -- 1,80,66,000
7.       राजस्थान पत्रिका -- 1,63,26,000
8.       मलयल मनोरमा (मलयालम) -- 1,59,95,000
9.       इनाडु (तेलुगु) -- 1,58,48,000
10.    प्रभात खबर -- 1,34,92,000
11.    ताइम्स ऑफ इंडिया (अंग्रेजी) -- 1,30,47,000
विश्लेषण
मीडिया विश्लेषक समाचार-पत्रों की प्रसार संख्या में हुई वृद्धि का बड़ा कारण देश में नवशैक्षिक वर्ग के उभार को मानते हैं। भारत के सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में नए पढ़े-लिखे लोगों की संख्या तजी से बढ़ रही है। पहली पीढ़ी के ऐसे साक्षरों के लिए अख़बार पढ़ना उनकी साक्षरता को साबित करने का सबसे महत्वपूर्ण साधान है। यह बात भारत की जनगणना के ताजा आंकड़ों से भी सिद्ध होती है। 2011 की जनगणना में भारत में 74 प्रतिशत लोगों को साक्षर पाया गया है, जबकि 2001 में यही आंकड़ा 64.8 प्रतिशत था।
2017 में आई फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट ने भी प्रिंट मीडिया की वृद्धि की तरफ संकेत किया था। यह भी उत्साहवर्धक है कि प्रिंट में भी यह विकास अधिकांशतः हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में ही हुआ है। जबकि अंग्रेजी अखबारों के पाठक मेट्रो और द्वितीय श्रेणी के नगरों तक की सीमित हैं।
सम्पूर्ण विश्व में प्रिंट मीडिया का दायरा लगातार सिमट रहा है, इसके विपरीत भारत में यह तेजी से बढ़ रहा है।

एनआरएस (NRS)
एनआरएस सभी मीडिया पर एक सर्वेक्षण है, लेकिन विशेष रूप से प्रिंट माध्यम, राष्ट्रीय रीडरशिप सर्वेक्षण परिषद द्वारा आयोजित किया जाता है। इस शरीर में आईएनएस (इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी), एएएआई (भारत के विज्ञापन संघ) और एबीसी (ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन) के सदस्य शामिल हैं।

सर्वेक्षण का आधार

सर्वेक्षण अखिल भारतीय आधार पर, शहरी और ग्रामीण पर किया जाता है, जो 12 साल और उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों के बीच होते हैं। सभी शहर के वर्ग शहरी क्षेत्र में शामिल हैं। हालांकि, व्यक्तिगत आधार पर दो लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की रिपोर्ट की जाती है, भाषा समरूपता, भौगोलिक homogeniety, वित्तीय और आर्थिक प्रशासन, संस्कृति और जीवनशैली के क्षेत्रीयकरण, जाति द्वारा परिभाषित सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों के आधार पर छोटे शहरों की सूचना दी जाती है। और वर्ग homogeniety

एनआरएस डेटा का प्रकार

एनआरएस जनसांख्यिकीय परिभाषित विभिन्न दर्शकों के बीच प्रत्येक माध्यम की पहुंच जैसे मैक्रो पैरामीटर पर जानकारी देता है। यह मीडिया के बीच के साथ-साथ एक ही माध्यम के वाहनों के बीच नकल के बारे में जानकारी भी देता है। प्रकाशनों के लिए, किसी को पाठकों की संख्या, जनसांख्यिकीय शब्दों में पाठकों का प्रकार मिलता है (एनआरएस लिंग, आयु, आय, सामाजिक-आर्थिक वर्ग, व्यवसाय, शिक्षा, भौगोलिक स्थिति) द्वारा पाठकों को परिभाषित करता है, इन पाठकों का प्रसार, और जीवनशैली मानकों जैसे कि उत्पाद स्वामित्व और खपत पैटर्न।
चूंकि विज्ञापनदाता जिन्होंने अपने मीडिया बजट के आवंटन के लिए सादे परिसंचरण (भुगतान बिक्री) डेटा पर भरोसा किया था, उनके पास प्रत्येक प्रकाशन के पाठकों की गुणवत्ता पर डेटा तक पहुंच नहीं थी, इसलिए उन्हें नहीं पता था कि पैसा प्रभावी ढंग से या बर्बाद किया जा रहा था या नहीं। एनआरएस जैसे अध्ययन न केवल पाठकों की संख्या, बल्कि पाठकों की गुणवत्ता, और अन्य प्रतिस्पर्धी प्रकाशनों के साथ पाठकों की नकल के बारे में विवरण देते हैं।

न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए)

 न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) निजी टेलीविजन समाचार और वर्तमान मामलों के प्रसारणकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करता है। यह भारत में समाचार और वर्तमान मामलों के प्रसारकों की सामूहिक आवाज है। यह एक संगठन है जो पूरी तरह से अपने सदस्यों द्वारा वित्त पोषित है।
एनबीए में वर्तमान में 26 प्रमुख समाचार और वर्तमान मामलों के प्रसारणकर्ता (66 समाचार और वर्तमान मामलों के चैनल शामिल हैं) के सदस्य हैं। एनबीए बढ़ते उद्योग को प्रभावित करने वाले मामलों पर सरकार के सामने एक एकीकृत और विश्वसनीय आवाज प्रस्तुत करता है।
निजी समाचार और वर्तमान मामलों के प्रसारणकर्ताओं की आंखों और कानों के रूप में सेवा करने के लिए, अपनी ओर से लॉबी करने और ब्याज के मामलों पर संयुक्त कार्रवाई के केंद्रीय बिंदु के रूप में कार्य करने के लिए।

न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) के उद्देश्य

·         भारतीय टेलीविजन उद्योग और अन्य संबंधित संस्थाओं में समाचार प्रसारणकर्ताओं के हितों को बढ़ावा देने, सहायता, सहायता, प्रोत्साहित करने, विकसित करने, संरक्षित करने और सुरक्षित करने के लिए।
·         न्यूज ब्रॉडकास्टिंग से संबंधित टेलीविजन उद्योग में नवीनतम विकास के बारे में जागरूकता को बढ़ावा देना और अपने सदस्यों और आम जनता के बीच इस तरह के विकास के बारे में ज्ञान प्रसारित करना।
·         सदस्यों को बैठक का एक स्थान प्रदान करने के लिए ताकि उन्हें अपने उद्योग के समग्र सुधार के लिए आम लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आम सहमति में काम करने में सक्षम बनाया जा सके और एक आम मंच / मंच हो जिस पर वे अपनी शिकायतों को दूर कर सकें और समाधान पर पहुंच सकें।
·         सदस्यों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के विकास को बढ़ावा देना और टेलीविजन सॉफ्टवेयर के उत्पादन और प्रसारण में लगे लोगों और विशेष रूप से सदस्यों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करने के लिए ताकि पारस्परिक लाभ को अधिकतम किया जा सके।
·         अपने सभी सदस्यों को उन व्यक्तियों या संस्थाओं से बचाने के लिए जो अनुचित और / या अनैतिक प्रथाओं को लेते हैं या जो टेलीविजन उद्योग को बदनाम करते हैं।
·         जहां भी आवश्यक हो, संबंधित प्राधिकारी से पूर्व अनुमोदन / एनओसी प्राप्त किए बिना कंपनी की कोई वस्तु नहीं की जाएगी।
·         वाणिज्यिक वस्तुओं पर मुख्य वस्तुओं में से कोई भी नहीं किया जाएगा।

वेब एनालिटिक्स (Web analytics)

वेब एनालिटिक्स एक सामान्य शब्द है जिसका अर्थ है कि इसके उपयोगकर्ताओं पर वेबसाइट के प्रभाव का अध्ययन। ईकॉमर्स कंपनियां और अन्य वेबसाइट प्रकाशक अक्सर इस तरह के ठोस विवरणों को मापने के लिए वेब एनालिटिक्स सॉफ़्टवेयर का उपयोग करते हैं कि कितने लोग अपनी साइट पर जाते हैं, उनमें से कितने आगंतुक अद्वितीय विज़िटर थे, वे साइट पर कैसे आए (यानी, यदि वे एक लिंक का पालन करने के लिए गए थे साइट या सीधे वहां आई), साइट के खोज इंजन पर उन्होंने किस खोजशब्द की खोज की, वे किसी दिए गए पृष्ठ पर या पूरी साइट पर कितने समय तक रहे और किस लिंक पर क्लिक किया और जब उन्होंने साइट छोड़ी।

वेब एनालिटिक्स सॉफ्टवेयर

वेब विश्लेषणात्मक सॉफ़्टवेयर का उपयोग यह भी निगरानी करने के लिए किया जा सकता है कि साइट के पेज ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं। इस जानकारी के साथ, वेब साइट प्रशासक यह निर्धारित कर सकते हैं कि साइट के कौन से क्षेत्र लोकप्रिय हैं और साइट के किन क्षेत्रों को यातायात नहीं मिलता है। वेब एनालिटिक्स इन साइट प्रशासकों और प्रकाशकों को डेटा के साथ प्रदान करता है जिसका उपयोग बेहतर उपयोगकर्ता अनुभव बनाने के लिए वेबसाइट को व्यवस्थित करने के लिए किया जा सकता है।

 रेडियो ऑडियंस मापन (रैम) (Radio Audience Measurement)

टीएएम यानि टैम रिसर्च मीडिया ने रेडियो ऑडियंस मापनमेंट (रैम) उपकरण जारी किया, क्योंकि भारत में रेडियो श्रोताओं के लिए कोई निरंतर ट्रैकिंग टूल नहीं था। मौजूदा भारतीय श्रोताओंशिप ट्रैक (आईएलटी) उपकरण के विपरीत जो याद दिलाने की पद्धति के बाद दिन का पालन करता है, जिसमें ज्यादातर दिमाग की याद आती है और वास्तविक श्रोताओं की बात नहीं होती है, रैम डायरी विधि के साथ काम करता है।
डायरी विधि दुनिया भर में सबसे व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली विधि है। रेडियो सुनने की डायरी का सबसे आम प्रकार एक सप्ताह तक चलता है, और एक व्यक्ति द्वारा भरा जाता है। आमतौर पर प्रत्येक दिन के लिए एक पृष्ठ खोलना होता है, पृष्ठ के नीचे क्वार्टर-घंटे इकाइयां और प्रत्येक स्टेशन के लिए एक कॉलम होता है।
राम एक मेट्रो में जरूरी है जहां सात-आठ खिलाड़ी हैं, विज्ञापनदाताओं को यह जानने की जरूरत है कि वह किस तरह का बाजार पूरा करने जा रहा है। उनमें से प्रत्येक प्रचार और विपणन प्रयासों के संदर्भ में अभिनव होने की कोशिश कर रहा है। इस बाजार के प्रभावों को मापने के लिए, आपको एक अध्ययन की आवश्यकता है, जो प्रकृति में निरंतर है ताकि प्रभावों की निगरानी की जा सके।
एल वी कृष्णन के मुताबिक (सी ई ओ) टीएएम रिसर्च मीडिया रैम में बजट आवंटन और रेडियो रणनीति के साथ योजनाकारों और विज्ञापनदाताओं की सहायता करने की क्षमता है क्योंकि रैम से उपलब्ध जानकारी, एडैक्स डेटा के साथ जुड़ी जानकारी, एक बहुत ही मजबूत डेटाबेस होगा। उन्होंने विज्ञापनदाताओं के लिए कुछ और फायदे भी समझाए जो रैम का उपयोग करेंगे। सबसे पहले, विज्ञापनदाताओं को यह पता चल जाएगा कि वे वर्तमान में सभी स्टेशनों में समान सामग्री के साथ किससे बात कर रहे हैं, अधिकांश विज्ञापनदाता यह नहीं जानते कि वे किससे बात कर रहे हैं।

इसके अलावा राष्ट्रीयकृत विज्ञापन के साथ स्थानीयकरण के क्षेत्र में विभाजन हो सकता है, जब विज्ञापनदाता प्रत्येक शहर की श्रोताओं को समझ सकते हैं और उन्हें अलग कर सकते हैं। और आखिरकार, अध्ययन यह समझने में भी मदद करेगा कि कैसे रचनात्मक ध्वनि का उपयोग किया जा सकता है और ब्रांड के प्रति ध्वनि के प्रभाव का प्रभाव कैसे उपयोग किया जा सकता है।
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