भाजपा को नई सोच की जरूरत...
पहले गोरखपुर, फूलपुर और अब कैराना व नूरपुर के उपचुनाव ने भाजपा थिंक टैंक को बड़े संकेत दे दिये हैं। इन चुनावों ने स्पष्ट संदेश दे दिया है कि अब न तो धर्म व संप्रदाय की राजनीति चलेगी और न ही लच्छेदार भाषणों की। यह पब्लिक है, सब जानती है और उसे अब सिर्फ और सिर्फ काम चाहिये। उपचुनावों में सपा की जीत के यह मायने नहीं हैं कि विकास कार्यों के लिए सपा ही सबसे अच्छी पार्टी है, बल्कि केन्द्र और प्रदेश की भाजपानीत सरकार के लिए एक बहुत कड़ा संदेश भी है। अभी 26 मई को अपने शासनकाल के चार वर्ष का जश्न मनाने वाली भाजपा के लिए उपचुनाव का परिणाम किसी सदमें से कम नहीं होगा, क्योंकि वर्तमान वर्ष उसके लिए चुनावी वर्ष है।
विपक्ष को भी अब सोच लेना चाहिये कि नफा-नुकसान से इतर यदि उसे साम्प्रदायिक और कारपोरेट शक्तियों से लडऩा है तो एकजुट होकर ही जनता के पास जाना पड़ेगा। यदि कर्नाटक में चुनाव बाद बने कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन पहले ही मिलकर चुनाव लड़ता तो स्थिति कुछ अलग होती। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का संदेश पूरे देश के विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस के लिए स्पष्टï है कि उसे चुनाव में एकजुटता का परिचय देना होगा। कांग्रेस ने गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनाव में जो भूल की थी, वह कैराना और नूरपुर में सुधार तो कर ली, लेकिन अगर उसे २०१९ का लक्ष्य भेदना है तो बड़े दिल और सोची समझी रणनीति के साथ जनता के बीच जाना पड़ेगा। कांग्रेस को मान लेना चाहिये कि देश की राजनीति में 'एकला चलो' का समय अब नहीं है।
चार साल पहले उत्तर प्रदेश ने भाजपा को ८० में से ७३ सीटें देकर केन्द्र की कुर्सी सौंपी थी। उस समय भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह को बड़ी शाबासी मिली थी और ईनाम के तौर पर भाजपा अध्यक्ष की कुर्सी भी। उसके बाद पिछले वर्ष विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने प्रचण्ड बहुमत हासिल करने में सफल रही थी। इससे ऐसा लगने लगा था कि अब भाजपा का अस्त होना मुश्किल है। इससे भाजपा में घमण्ड पैदा होना स्वाभाविक था। परन्तु भाजपा को जानना चाहिये था कि दोनों चुनावों में विपक्ष पूरी तरह से बंटा हुआ था। तब सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद सभी अलग-अलग होकर चुनाव लड़े थे। विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और सपा ने गठबंधन किया था, लेकिन पार्टीगत आंतरिक मतभेदों के चलते उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जिन्हें चुनाव का चाणक्य कहा जाने लगा है को जानना चाहिये कि सांप्रदायिक धु्रवीकरण की नीति अब विफल होने लगी है। जनता को काम चाहिये। अन्तर्राष्टï्रीय बाजारों में पेट्रोलियम की कीमतों में काफी गिरावट के बावजूद महंगे दामों पर बेचना भाजपा के लिए भारी पडऩे लगा है। जनता अब सब समझने लगी है कि महंगाई बढ़ाने के लिए सरकार खुद जिम्मेदार है। सरकार द्वारा टैक्स बढ़ाकर महंगाई को बढ़ाने का कार्य उसके लिए उसी तरह से साबित होने वाला है जो कि 2004 के चुनाव में प्याज की कीमतों ने बाजपेयी सरकार के लिए हुआ था।
Please Add your comment
No comments:
Post a Comment
Please share your views