लोकपाल के लिए इंतजार कब तक?
केन्द्र की भाजपानीत सरकार का चौथा वर्ष चल रहा है। भ्रष्टाचार, महंगाई और सुशासन के मुद्दे को भुनाते हुए प्रचण्ड बहुमत के सत्तासीन हुई मोदी सरकार ने अभी तक लोकपाल की सुधि लेना भी जरूरी नहीं समझा। यही जनलोकपाल का आंदोलन था, जिसने पूर्व की संप्रगनीत सरकार की चूले हिला दी थी और 2014 के चुनावों में नतीजा यह रहा कि वह लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल के लिए जरूरी संख्या भी नहीं जुटा सकी। लोकपाल गठन का मामला अभी लटका हुआ है। अगर पिछले दिनों इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जवाब-तलब नहीं किया होता तो यह भी पता नहीं चल पाता कि लोकपाल की नियुक्ति में कहां जाकर रोड़ा अटका हुआ है।
लोकपाल एक्ट के अनुसार लोकपाल पद चयन कमेटी में प्रधानमंत्री, भारत के प्रधान न्यायाधीश, लोकसभा स्पीकर, लोकसभा में विपक्षी नेता और एक प्रमुख न्यायविद का प्रावधन है। लोकसभा में कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने विपक्षी नेता वाले मुद्दे को उछालकर विशेष आमंत्रित के रूप में बुलाए जाने पर सवाल उठाया है। लोकसभा में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी तो है, मगर कुल सीटों का 10 प्रतिशत नहीं होने के कारण मल्लिकार्जुन खर्गे को विपक्षी नेता का दर्जा प्राप्त नहीं है। लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता को लोकपाल चयन कमेटी में शामिल करने का संशोधन बिल 2016 से संसद में लंबित है। यही बताकर 2017 में बजट सत्र के समय केंद्र सरकार के अटोर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट से राहत ली। श्री खडग़े ने प्रधानमंत्री को लिखा- 'लोकपाल एक्ट में ''विशेष आमंत्रितÓÓ का प्रावधन नहीं है, इसलिए मैं बैठक में शामिल होने का अधिकार नहीं रखता। मैं अपनी पार्टी और संपूर्ण विपक्ष की ओर से कहना चाहता हूं कि इस तरह का बुलावा छलावा से ज्यादा कुछ नहीं है। आप मेरे और विपक्ष की राय को कोई तवज्जो नहीं देना चाहते। इसलिए महज खानापूरी के लिए मैं इस बैठक में शामिल नहीं होना चाहता। अगर सरकार वाकई लोकपाल पद गठन के प्रति गंभीर होती तो 'विपक्षी नेताÓ की जगह एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी को लोकपाल चयन कमेटी में शामिल करनेवाला संशोधन बिल पास करा सकती थी।
खडग़े की बातों से साफ पता चलता है कि मोदी सरकार जानबूझकर लोकपाल गठन को टालने और उलझाए रखना चाहती है। कांग्रेस को विपक्ष का दर्जा नहीं देने की बात तो समझ में आती है, लेकिन लोकपाल चयन कमेटी में विपक्षी नेता की जगह वैकल्पिक व्यवस्था के लिए लोकसभा में एकमात्र सबसे बड़ी पार्टी का प्रावधान वाला संशोधन चार साल से टल रहा है। यह क्यों टल रहा है और क्यों सरकार इसे पास नहीं कराना चाहती है, इसका एक ही कारण समझ में आ रहा है कि सरकार लोकपाल गठन नहीं चाहती।
मगर चार साल के शासनकाल में लोकपाल गठन प्रक्रिया रोके रखने पर प्रधानमंत्री चुप हैं। विपक्षी नेता वाला अडंगा सिर्फ लोकपाल के लिए है। पिछले वर्ष के शुरू में सीबीआई डायरेक्टर और सीआईसी (केंद्रीय सूचना आयुक्त) की नियुक्ति में भी यही प्रावधान है कि लेकिन उनकी नियुक्ति में यह विपक्षी नेता की कमी की मांग आड़े नहीं आयी। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का लोकपाल आंदोलन कांग्रेस शासनकाल में सर्वाधिक चर्चित रहा। अन्ना आंदोलन से उपजे नेता अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी सबों ने अपने-अपने रास्ते बना लिये। अब किसी को भ्रष्टाचार से कोई लेना-देना नहीं है। लोकपाल गठन का मुद्दा पृष्ठ में चला गया है। लोकपाल को लेकर केन्द्रीय सरकार का यह भाव देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई के मुहिम को कमजोर करने वाला है और बिना भ्रष्टाचार मुक्त समाज के 'सबका साथ, सबका विकासÓ जैसी बाते कोरी लफ्फ ाजी ही लगती हैं।
Please Add your comment
No comments:
Post a Comment
Please share your views