दिल्ली में जनता ही असली बॉस
दिल्लीवासियों के लिए कल का दिन विशिष्ट था। देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली के लिए अपना सुप्रीम फैसला सुनाया है। उम्मीद की जानी चाहिये कि पिछले तीन सालों से दिल्ली सरकार और केन्द्र के बीच चल रहे विवाद का अब अंत हो जायेगा और अंतत: दिल्लीवासियों के लिए नई सुबह का आगाज होगा, क्योंकि दोनों सरकारों के बीच आपसी विवाद में सबसे ज्यादा नुकसान में वहीं रहे।सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्टï कर दिया कि जनता से बड़ा कोई नहीं है और उसके द्वारा चुनी गई सरकार ही असली बॉस है। उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र फ़ैसले लेने का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद के सहयोग और सलाह पर ही कार्य करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह भी स्पष्टï किया कि उपराज्यपाल की भूमिका अवरोधक की नहीं होनी चाहिए। यह भी स्पष्टï कर दिया कि मंत्रिपरिषद के निर्णय उपराज्यपाल को बताए तो जाने चाहिए, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उनकी सहमति जरूरी हो। संदेश स्पष्ट है कि उपराज्यपाल प्रशासनिक मुखिया होने के नाते मंत्रीपरिषद के निर्णयों को जानने का अधिकार रखते है, लेकिन उसमें हस्तक्षेप करना उसकी कार्यप्रणाली का हिस्सा नहीं होना चाहिये।
गौरतलब है कि दिल्ली में अपार बहुमत के साथ आयी आम आदमी पार्टी की सरकार को कभी खुली हवा में सांस लेने का मौका नहीं मिला। केन्द्र के प्रतिनिधि के तौर पर उपराज्यपाल ने हमेशा उसकी राह में रोड़ा अटकाते रहे। ऐसे में विभिन्न एजेंसियों से तारीफ पा चुकी दिल्ली की स्वास्थ्य और शिक्षा सें संबंधित योजनाएं भी राजनीति की शिकार हो गईं थी। सर्वोच्च अदालत के ताजा फैसले से अब शिक्षा, स्वास्थ्य व अन्य विकास कार्यों को गति मिलेगी। दिल्ली सरकार को भी जनहित में काम करने का मौका मिलेगा। 'देर आयद, दुरूस्त आयदÓ की तर्ज पर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को केन्द्र और दिल्ली सरकार दोनों को सम्मान करना चाहिये, क्योंकि कोर्ट ने यह भी तय कर दिया कि दिल्ली केन्द्र शासित है, अत: उसकी प्रकृति अन्य राज्यों जैसी नहीं है। भूमि, क़ानून-व्यवस्था, पुलिस जैसे मामले केन्द्र सरकार के ही अधीन होंगे। इस कारण दिल्ली सरकार को अपने दायरों को समझना होगा। हां, इतना जरूर है कि इन विषयों के अलावा अन्य सभी विषयों पर क़ानून बनाने और उसे लागू करने के अधिकार का उपयोग कर जनहित के निर्णयों को लेने में अब उसे कोताही नहीं बरतनी चाहिये। अब तो उसे जनहित की योजनाओं के लिए उपराज्यपाल की मंजूरी की मजबूरी भी नहीं है। अत: उसके कार्यकाल का बचा समय उनके कार्य और नियति के लिए लिटमस टेस्ट होगा।
वैसे सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की याद दिलाता है, जब दिल्ली में कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की सरकार थी और इसी तरह का विवाद सुर्खियों में था। ऐसे में अटल जी ने उपराज्यपाल को चुनी हुई सरकार का सम्मान करने की नसीहत दी थी।
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