सुखमय जीवन के लिए प्रकृति से दोस्ती करनी होगी...
आज 'विश्व अर्थ ओवरशूट डे' है अर्थात आज के बाद मानव जिन संसाधनों का उपयोग करेगा, वह प्रकृति से उधारी पर होगा। मानव जगत ने प्राकृतिक संसाधनों का इतना दोहन किया कि इस वर्ष का हिस्सा वह ३१ जुलाई तक ही खर्च कर डाला है। धरती पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों जैसे कार्बन, खाद्य पदार्थ, लकड़ी और पानी जैसे कई जरूरी चीजों की खपत इतनी तेजी से हो रही है कि इसकी दोबारा से पूर्ति करना असंभव सा लगने लगा है।
प्रकृति और मानव जगत के रिश्ते 'आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया जैसे हो गये है। साल दर साल हमारे द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग की रफ्तार बढ़ती जा रही है, परन्तु उस मात्रा प्राकृतिक संसाधनों का विनिर्माण नहीं किया जा रहा है। अलबत्ता मानव इन्हीं संसाधनों की कुर्बानी कर बड़ी तेजी से अपने ऐशो-आराम की वस्तुएं तैयार करने में लगा हुआ है।
अध्ययन बताते हैं कि पृथ्वी एक साल में जितने संसाधन पैदा करती है, इंसानी आबादी सात या आठ महीने में ही उनका उपभोग कर डालती है। अनुमान है कि आने वाले 12 वर्षो में ही हमें अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए दो-दो पृथ्वियों की दरकार होने लगेगी। पिछली शताब्दी के अंत तक ओवरशूट डे यानी पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों का दोहन नौ महीनें में होता था। तब ३० सितम्बर ओवरशूट डे मनाया जाता था, परन्तु हमारी पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों के दोहन की रफ्तार इतनी तेजी से बढ़ी है कि अब यह दिन एक अगस्त हो गया है। स्पष्टï है कि मात्र दो दशक के अन्तराल में हमने ओवरशूट डे को दो माह पहले ही ला दिया।
संसाधनों के तीव्र दोहन या कहें की चादर से ज्यादा पैर पसारने की आदत के नतीजे पूरी दुनिया के सामने हैं। जैसे अब दुनिया में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। साफ पीने लायक पानी की मात्रा घट रही है। वनक्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। नमी वाले क्षेत्रों (वेटलैंड्स) का खात्मा हो रहा है। संसाधनों के घोर अभाव के युग की आहट के साथ-साथ हजारों जीव और पौधों की प्रजातियों के हमेशा के लिए विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है। कोई संदेह नहीं है कि इन सभी चेतावनियों के मूल में वह इंसान है जो हमेशा से प्रकृति का दुश्मन तो नहीं था, पर औद्योगिकीकरण के सुविधाभोगी इस आधुनिक युग में उसके क्रियाकलाप पूरी पृथ्वी के लिए मुसीबत बन गये हैं। खाद्यान्न की समस्या और विकराल हो रही है। पानी की कमी एक अवश्यंभावी घटना बन चुकी है। प्रदूषण घातक रूप ले चुका है और धरती को जलवायु परिवर्तन की समस्या से सतत जूझना पड़ रहा है। एक सच्चाई यह भी हमारे सामने है कि हमने घर तो बना लिए, लेकिन पानी निकलने के लिए जगह ही नहीं छोड़ी। इस कारण थोड़ी सी बरसात में हमारी बस्तियां दरिया में तब्दील हो जाती है और बरसात के बाद नदियां भी नाले की शक्ल में आ जाती हैं। ५० वर्षों में ही पृथ्वी के अंधाधुंध दोहन के कारण पारिस्थितिकी तंत्र का दो-तिहाई हिस्सा नष्ट हो गया है। जीवाश्म ईंधन के बढ़ते प्रयोग और जनसंख्या-वृद्धि की तेज रफ्तार धरती के सीमित संसाधनों पर दबाव डाल रही है। इस वजह से खाद्यान्न के साथ-साथ पानी, लकड़ी, खनिजों आदि का भी संकट दिनोंदिन गहरा रहा है। आज जिस पेट्रोल-डीजल के भंडार पर मानव प्रजाति अपनी सफलता की मीनारें खड़ी कर रही है, दोहन की गति ऐसी ही रहने पर यह इमारत ढहने में समय नहीं लगेगा, क्योंकि तेल के सभी स्रोत तब सूख चुके होंगे। इससे निजात तभी मिल सकती है, जब बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाया जाये, धरती पर मौजूद संसाधनों के हिसाब से उनका दोहन हो तथा उनकी प्रतिपूर्ति के लिए सतत उपाय किये जाये। यदि ऐसा नहीं किया गया तो निश्चित रूप से आने वाला समय पूरे मानव जगत के लिए कष्टïकारी होगा, जिसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं।
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