Friday, August 3, 2018

Education system

शिक्षा के ठेकेदारी की वर्तमान व्यवस्था उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी...   

वैसे तो शिक्षकों को किसी भी देश का भाग्य विधाता कहा जाता है। भारत में 'गुरू गोविन्द दोऊं खड़े, काके लागूं पायं, बलिहारी गुरू आपने गोविन्द दियो बतायेÓ की संज्ञा दी गई है, अर्थात शिक्षक का दर्जा से ईश्वर से भी बड़ा माना गया है। फिर भी जितनी दुर्दशा शिक्षक वर्ग की इस समय भारत में हैं, उतनी शायद ही कभी रही होगी। विद्यालय विद्या प्राप्त करने के स्थल के बजाये बिजनेस स्कूल में तब्दील हो गये हैं। सरकारी हो या प्राइवेट संस्थान, हर जगह शिक्षकों के साथ सौदेबाजी की जा रही है। ऐसे ही एक मामले में उच्चतम न्यायालय ने चिन्ता जताई। न्यायमूर्ति जस्टिस यू. यू. ललित ने कहा कि शिक्षक राष्टï्र निर्माता है, इन्हें सबसे ज्यादा वेतन दिया जाना चाहिये, ताकि वे निश्चिंत होकर बेहतर राष्टï्र का निर्माण करने की मजबूत नींव बना सकें। न्यायालय ने बिहार के उन ३ लाख ७० हजार नियोजित शिक्षकों के संदर्भ में यह बात कही, जो सरकारी संस्थान में होते हुए भी बहुत कम मानदेय पर शिक्षण कार्य करने को मजबूर हैं। सरकार के इस दलील पर कि यदि इन शिक्षकों को समान वेतन दिया गया तो सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ बढ़ेगा, के संदर्भ ने उच्चतम न्यायालय ने बड़ी तल्ख टिप्पणी की कि यदि सरकार के पास पैसे नहीं है तो स्कूल बन्द कर देना होगा बेहतर होगा। आखिर आईएएस को अधिक वेतन मिलता है, इंजीनियर को अधिक वेतन मिलता है तो शिक्षकों को क्यों नहीं मिल सकता।
उच्चतम न्यायालय की चिन्ता जायज है। देश में अगर सभ्य, सुसंस्कृत और विकासशील समाज की परिकल्पना करनी है तो इसमें शिक्षकों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। शिक्षक ही आईएएस, इंजीनियर, वैज्ञानिक, चिकित्सक और न जाने कितने अहम किरदारों का सर्जक होता है, जो कि राष्टï्र के विकास में अपना अहम योगदान देते हैं। ऐसे में यदि शिक्षक ही विपन्न होगा, दुखी होगा तो दुखी मन से वह कितने अच्छे नागरिकों को समाज के लिए निर्माण कर पायेगा। यह तथ्य विचारणीय है।
  सच्चाई तो यह है कि सरकारों ने पूरी शिक्षा व्यवस्था को ठेकेदारी या किरायेदारी पर सौंप दिया है। चाहे प्राइमरी शिक्षा हो या उच्च शिक्षा, हर जगह शिक्षकों के साथ सौदेबाजी की जाती है। उत्तर प्रदेश में डेढ़ लाख शिक्षामित्रोंकी दुर्दशा किसी से भी नहीं छिपी है, जबकि कई-कई विद्यालय मात्र शिक्षामित्रों के ही भरोसे पर चल रहे हैं। यही हाल माध्यमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी है। जनसंख्या बढ़ रही है, छात्र बढ़ रहे हैं, लेकिन शिक्षकों के पदों का सृजन नहीं किया जा रहा है। अलबत्ता जो शिक्षक सेवानिवृत हो रहे हैं, उनके पद भी नहीं भरे जा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था संविदा या अस्थायी व्यवस्था के भरोसे पर छोड़ दिया जा रहा है।
  प्राइवेट विद्यालयों का हाल तो और बुरा है। अभिभावकों से महंगी फीस वसूल की जाती है, लेकिन शिक्षकों को काफी कम वेतन दिया जाता है। वह भी अधिकांश विद्यालयों में मात्र १० या ११ माह ही वेतन दिया जाता है, जबकि फीस पूरे १२ महीने की ली जाती है। यूजीसी हो या अन्य कोई नियामक संस्था, शिक्षकों के वेतन या उनकी स्थिति पर कोई ध्यान नहीं देती। उनके दिशा निर्देश शिक्षण संस्थाओं की फाइलों की शोभा बढ़ाते हैं, जबकि धरातल पर वे शायद ही कहीं नजर आते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को गम्भीरता से लेने की जरूरत है। शिक्षण व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त करने की जरूरत है, क्योंकि यही वह मार्ग है, जहां से शिक्षित, सभ्य और विकास के लिए समर्पित समाज का सृजन होता है।
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