Thursday, July 5, 2018

दिल्ली में भ्रम की स्तिथि

दिल्ली में भ्रम की स्तिथि


 हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में ही हमारी जिम्मेदारियों का एहसास कराया गया है। प्रस्तावना में लोकतांत्रिक गणराज्य के साथ न्याय की गरिमा और देश की एकता व अखण्डता को सुनिश्चित करने का दृढसंकल्प लिया गया है, लेकिन पिछले तीन सालों में जो दिल्ली में हो रहा है, वह संविधान की आत्मा को लहूलुहान करने वाला है। वहां लोकतांत्रिक गणराज्य की परंपराओं के साथ न्याय की गरिमा को ठेंस पहुंचाई जा रही है।
भारत में यह परंपरा रही है कि सर्वोच्च न्यायालय के संवैधानिक पीठ का आदेश अपने आप में एक कानून होता है। बावजूद इसके दिल्ली के अधिकारियों के साथ केन्द्र सरकार में अरूण जेटली जैसे जिम्मेदार मंत्री का इसके खिलाफ बयानबाजी करना और आदेश को न मानने जैसी घटना लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।
  सच्चाई तो यह है कि दिल्ली में २०१५ मे ही जब केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस को धूल चटाते हुए प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्तासीन हुई थी, तभी से ही केन्द्र में सत्तासीन भाजपा नीत सरकार से ३६ के आंकड़े चल रहे हैं। कांग्रेस भी अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पा रही है और आप का अंधा विरोध करती रही है। शायद यह अकेला मुद्दा है जिस पर भाजपा और कांग्रेस एकमत हैं। यह सही है कि केन्द्र शासित होने के कारण पुलिस, कानून व्यवस्था और जमीन आदि का मामला केन्द्र सरकार के अधीन आता है, लेकिन अन्य विकास कार्य राज्य की चुनी हुई सरकार को करने होते हैं। राज्य सरकार को जनता के प्रति जवाबदेही भी होती है। ऐसे में जनता की उम्मीदों पर खरे उतरने की चुनौती भी उसी की होती है। दुर्भाग्य से ऐसा दिल्ली में नहीं हो पा रहा है। पहले उपराज्यपाल नजीब जंग और अब अनिल बैजल राज्य सरकार के कामों को रोड़ा अटका रहे हैं। पहले तो ज्यादातर लोग उपराज्यपाल का नाम तक नहीं जानते थे, क्योंकि दिल्ली में राज्य सरकार ही सारे काम किया करती थी। परंतु अब अधिकारों की जंग में उपराज्यपाल जो कि एक नौकरशाह है, खुद को दिल्ली के वास्तविक सरकार बताने की कोशिश में हैं। पिछले तीन साल से यही हो रहा है। मजबूरन दिल्ली सरकार को न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा, और अब सर्वोच्च अदालत ने भी उपराज्यपाल की हदें तय कर दी हैं कि दिल्ली के विकास के लिए वास्तविक हकदार दिल्ली का जनादेश पायी केजरीवाल सरकार है। सरकार को विकास कार्यों के लिए उपराज्यपाल की मंजूरी की जरूरत नहीं है। यह भी नजीर है कि सर्वोच्च अदालत का आदेश अपने आप में कानून होता है, फिर भी दिल्ली में कुछ भी नहीं बदला है। अधिकारीगण एक पुराने आदेश का बहाना बताकर दिल्ली सरकार की बात को मानने से इनकार कर रहे है। केन्द्र सरकार भी ऐसे किसी आदेश की प्रभावशीलता को नकार रही है। ऐसे दिल्ली का विकास अधर में पड़ गया है। राजनीतिक विसात पर शह-मात के खेल में भारतीय संविधान की आत्मा छलनी की जा रही है। मौजूदा अध्याय से वहां न तो लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा ही मजबूत हो रही है और न ही न्याय की गरिमा का ही ख्याल रखा जा रहा है। अरविन्द केजरीवाल के साथ-साथ देशवासियों को भी दिल्ली में ऐसी उम्मीद नहीं रही होगी।
  यह भी सच है कि ज्यादातर नौकरशाह उसी की चलाते हैं, जिसकी केन्द्र में सरकार होती है। नौकरशाही का यह रवैया लोकतांत्रिक व्यवस्था के विपरीत है। इससे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को समझनी चाहिये, जिन्होंने सत्ता में आने के बाद 'सबका साथ, सबका विकास नारा दिया था। 
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