Thursday, August 30, 2018

समाजवादी पार्टी में दरार बढ़ी...

समाजवादी पार्टी में दरार बढ़ी... 

जब पूरे देश में भाजपा सरकार के खिलाफ पूरा विपक्ष एकजुट होने की कवायद में लगा है, ऐसे में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से अलग होकर शिवपाल यादव का नई पार्टी का गठन कर लिया। जाने-अनजाने में इस गठन के पीछे चाहे जो भी परिस्थितियां हों या कोई मजबूरी, लेकिन इससे प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ लड़ाई कमजोर जरूर पड़ेगी। शिवपाल का यह कदम विपक्ष के महागठबंधन में दरार पडऩे के साथ भाजपा को मजबूती दे सकती है। इस बात को शिवपाल समेंत सभी विपक्षी दलों को समझना पड़ेगा। कल मुलायम सिंह यादव ने शिवपाल के इस कदम पर पूछे गये सवाल को वह टाल गये थे। ऐसा लगता है कि शिवपाल यादव को मुलायम सिंह यादव की मौन सहमति है।
लोकसभा के लिए अगले आम चुनाव से बमुश्किल छह महीने पहले समाजवादी पार्टी में हुए इस बिखराव को समाजवादी राजनीति के लिए शुभ नहीं माना जा सकता है। शिवपाल की पार्टी में ज्यादातर वही लोग शामिल होंगे, जो सपा में खुद को उपेक्षित महसूस करते होंगे। यदि ऐसा होता है तो प्रदेश में निश्चित रूप से सपा कमजोर होगी और ऐसी स्थिति में भाजपा से राजनीतिक लड़ाई भी कमजोर पड़ेगी, क्योंकि सपा ही वह पार्टी है जो भाजपा को सीधे टक्कर देने की कूबत रखती है।
सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को भी मौके की इस नजाकत को समझना होगा, क्योंकि इसी आपसी लड़ाई के चलते २०१७ के विधान सभा चुनावों में अच्छे काम करने के बाद भी भारी हार का सामना करना पड़ा था। ऐसे में महाभारत के उस प्रसंग का जिक्र करना ज्यादा मुनासिब होगा, जिसमेंं दुर्योधन ने एक इंच जमीन भी देना गंवारा नहीं समझा था। नतीजतन महाभारत जैसा विनाशकारी युद्घ से गुजरना पड़ा था।
ज्ञात हो कि शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच विवाद की जड़ 2012 में ही पड़ चुकी थी, जब सपा ने विधानसभा चुनावों में प्रचण्ड बहुमत हासिल की थी। उस समय मुलायम सिंह ने बीच बचाव कर शिवपाल को संगठन और अखिलेश को सत्ता की कमान देकर विवाद का अंत कर दिया था। करीब चार वर्षों तक कमोवेश सपा में सबकुछ ठीक ठाक चला, लेकिन उसके बाद शिवपाल को संगठन से हटाया जाना तथा पार्टी पर भी अखिलेश का काबिज हो जाना पार्टी को दो खेमों में बांट दिया था। ऐसे में प्रदेश में तीसरे नम्बर पर रहने वाली भाजपा को विधान सभा चुनावों में भी ऊर्जा मिल गई और दो तिहाई बहुमत के साथ वह आज सत्ता में काबिज है।
यह बात शिवपाल और अखिलेश दोनों को समझनी होगी। दोनों नेताओं की पृष्ठभूमि समाजवादी है और दोनों की राजनीति भी भाजपा के विरूद्घ लड़ाई लडऩे की रही है। यदि इस विवाद को यही नहीं खत्म किया गया और दोनों नेताओं को पुन: एक मंच पर नहीं लाया गया तो प्रदेश में भाजपा के विरूद्घ समाजवादी खेमे की लड़ाई कमजोर पड़ेगी। सपा की यह अंदरूनी लड़ाई भी डॉ0 लोहिया के आदर्शों पर खड़ी इस पार्टी के लिए उचित नहीं है। समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के दोनों पक्षों को समझौते करने चाहिये।
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