Wednesday, September 26, 2018

हमें अपनी अर्थव्यवस्था को चुस्त करना जरूरी है

 इस वित्तीय वर्ष की शुरुआत यानी अप्रैल 2018 में एक डॉलर का मूल्य 65 रुपये से थोड़ा अधिक था। अब यह अनुपात 73 रूपये के करीब पहुंच गया है। पूरा विश्व व्यापार प्रणाली डालर के आधार पर चलती है और हम निर्यात के माध्यम से डालर की कमाई करते हैं। इसी डालर के माध्यम से हम फिर आयात करते हैं। डालर के मुकाबले बढ़ते रूपये की दर ने पूरी अर्थव्यवस्था पर ही संकट खड़ा कर दिया है, क्योंकि हमें आयात के लिए डालर का ही उपयोग करना पड़ता है। अर्थात हमारे देश से अब किसी भी वस्तु के आयात के लिए ज्यादा रूपया खर्च हो रहा है। यह भी सौ फीसदी सच है कि मौजूदा समय में भारत निर्यात से ज्यादा आयात करता है। इस कारण व्यापार घाटे में दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी होती रहती है। अप्रैल से अगस्त 2018 के दौरान भारत का व्यापार घाटा 80.5 बिलियन डॉलर रहा। इस वित्तीय वर्ष में 136 बिलियन डॉलर का कुल निर्यात हुआ, पर आयात हुआ 216.5 बिलियन डॉलर का। इसका मतलब यह हुआ कि निर्यात से भारत ने जितने डॉलर कमाए वे आयात के दाम देने के लिए पर्याप्त नहीं। चूंकि भारत निर्यात से पर्याप्त डॉलर नहीं कमाता है, इसलिए विश्व बाजार में तेल का दाम जब भी बढ़ेगा, रुपये का मूल्य गिरेगा। पिछले कई सालों से भारत का निर्यात बढ़ नहीं रहा है।
रूपये की कीमत मेें गिरावट देशवासियों के लिए चिंता का विषय है। मीडिया के कुछ लोग इसमें अच्छा पहलू भी ढूंढने का प्रयास कर रहे हैं, जो केवल 'खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचेÓ वाली बात है। सच यह है कि रूपये के इस अवमूल्यन में हमारे मित्र अमेरिका का बड़ा हाथ है।
रूपये की कीमत में गिरावट बुनियादी तौर पर हमारे कच्चे तेल के बिल बढऩे के कारण हो रहा है। कच्चे तेल की कीमतें बढ़ गई हैं और इसके पीछे अमेरिकी नेतृत्व की गलत नीतियां हैं। ईरान हमें सस्ता तेल दे रहा था, परन्तु अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण हम उससे तेल नहीं खरीद पाते। ईरान से आने वाली गैस पाइपलाइन भी अमेरिकी विरोध के कारण ही नहीं लग पायी। हम लोगों ने कई बार प्रयास किया कि अमेरिका ईरान से तेल खरीदने के मामले में हमें इन प्रतिबंधों से आजाद रखे, परन्तु इसमें कोई कामयाबी नहीं हुई। हमें सऊदी अरब और अमीरात से तेल खरीदने को मजबूर किया जा रहा है, जो महंगा है। हमारी मीडिया ने अपने तौर पर यह भ्रम फैलाना शुरू कर दिया था कि हमें इस मामले में छूट मिल रही है, परन्तु अमेरिकी अधिकारियों ने तुरन्त इससे इनकार किया। यदि छूट मिलती तो भी केवल 6 महीने के लिए वह भी राष्ट्रपति के सर्टिफिकेट के बाद ही। हमारा चाहबहार बन्दरगाह प्रोजेक्ट भी इसकी जद में आ गया है। अमेरिकी प्रतिबन्धों से ईरान से अधिक हमें नुकसान हो रहा है।
 बुनियादी तौर पर रूपये गिरने का कारण कच्चे तेल के आयात में डालर की देने की बात है। जो बच्चे बाहर पढ़ रहे हैं, उनका खर्च अब बढ़ जायेगा और विदेश जाने वालों को भी अधिक खर्च करना पड़ेगा। हमारे उत्पादों में कुछ हिस्सा आयातित वस्तुओं का होता है। चूंकि उनकी कीमत अधिक देनी पड़ेगी, अत: उसका असर निर्यात होने वाली वस्तुओं की कीमत पर पड़ेगा। इसके साथ ही अमेरिका द्वारा हमारे निर्यात पर सीमा शुल्क बढ़ाने से हमारे उत्पादों की कीमत अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में ज्यादा हो जायेगी, जिससे हमारे निर्यात पर बुरा असर पड़ेगा। यहां भी हमें कोई छूट नहीं मिल रही है।
 स्पष्टï है कि रूपये की गिरती दरों से यह वित्तीय वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती है। इस संबंध में केवल बातें बनाने से काम नहीं बनने वाला है, ठोस कार्यवाही की जरूरत है। इसके लिए हमें अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी दोस्ती को भी एक बार नजरअंदाज करना पड़े तो कर देना चाहिये, क्योंकि मंदी के दौर में विशाल जनसंख्या वाले भारत को संभालना मुश्किल होगा।

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