Thursday, September 27, 2018

समाज में व्यभिचार से दुख और विघटन में होगा इजाफा

   उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को ऐतिहासिक फैसले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 497 को असंवैधानिक और मनमाना ठहराया है, जिसके तहत व्यभिचार (एडल्ट्री) अपराध था। फैसला सुनाने वाले एक जज ने कहा कि महिलाओं को अपनी जागीर नहीं समझा जा सकता है। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला संवैधानिक दृष्टिï से सही हो सकता है, लेकिन सामाजिक दृष्टिï से इसे किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता। यह सही है कि हर व्यक्ति को भारतीय संविधान में निजता का अधिकार मिला हुआ है और वह खुद से संबंधित विभिन्न कार्यों को करने के लिए स्वतंत्र है। अदालत का यह भी मानना उचित है कि पति-पत्नी का मालिक नहीं होता और महिलाओं के साथ पुरूषों के समान ही व्यवहार किया जाना चाहिए। कोर्ट का यह कहना भी सही है कि भारत का संविधान किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करने की इजाजत नहीं देता है। इस कारण तीन जजों की खण्डपीठ ने विवाहेत्तर व्याभिचार को अपराध नहीं माना है।
 मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खण्डपीठ के इस आदेश में दिये गये सभी वजहें वाजिब हैं, परन्तु विवाहेत्तर व्याभिचार उचित नहीं है। समाज इसकी इजाजत कभी नहीं देगा। दरअसल समाज में विवाह एक संस्कार है। विवाह को निजता, भेदभाव, मालिक-नौकर जैसे संबंध नहीं माने जाते हैं, बल्कि विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है, जिसे पति और पत्नी ताउम्र निभाते हैं। धार्मिक मान्यताओं में विवाह को जन्म-जन्मांतर का रिश्ता माना जाता है। भारत में विवाह में ऊंच-नीच के भेदभाव से इतर पत्नी को अद्र्घांगिनी की संज्ञा दी गई है। अर्थात विवाहोप्रांत पति और पत्नी एक-दूसरे के बिना अधूरे होते है। विभिन्न धार्मिक क्रियाकलापों में जब तक दोनों की सहभागिता नहीं होती, तब तक कोई भी क्रियाकलाप पूर्ण नहीं माना जाता है।
यहां यह भी सही है कि विवाह के बाद एक पुरूष और महिला दोनों की अलग जिन्दगी नहीं रह जाती है, बल्कि दो जिन्दगियां मिलकर एक परिवार बनाते हैं और इस परिवार की बुनियाद पर संतानोत्पत्ति व आगे की पीढिय़ां बनती है। इस आधार पर पति और पत्नी को अलग किया ही नहीं किया जा सकता। विवाहोप्रांत दोनों के व्याभिचार में शामिल होने से परिवार की परिकल्पना को धक्का पहुंचेगा और परिवार जो समाज की सबसे छोटी इकाई होती है, से समाज में भी व्याभिचार पनपेगा। यह भी सत्य है कि व्याभिचार से भरे समाज से किसी अच्छे परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती है।
 इस संबंध में दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा स्वाती मालीवाल की चिन्ता जायज है। मालीवाल का मानना है कि यह फैसला एक तरह से इस देश के लोगों को शादीशुदा रहते हुए अवैध संबंध रखने का एक खुला लाइसेंस दे दिया है। 'विवाह (नाम की संस्था) की क्या पवित्रता रह जाती है।Ó अदालत के तर्कों को ठुकराया नहीं जा सकता है, लेकिन समाज की बुनियाद की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है। एक स्वस्थ समाज तभी होगा, जब उसमें रहने वाले लोग सुखी और प्रसन्न होंगे। विवाहेत्तर व्याभिचार से शादी-शुदा जिन्दगी में दुख और विघटन के दुखद माहौल ज्यादा बनेंगे। ऐसे में चाहे पुरूष हो या महिला उनकी खुशियां बढऩे के बजाये घटेंगी। यह बात समाज के हर व्यक्ति को समझनी होगी।

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