अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया रसातल में जा रहा है। आज से एक वर्ष पहले अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 64 के स्तर पर था। यानी एक डॉलर के बदले हमें 64 रुपये चुकाने पड़ रहे थे। आज उसी एक डॉलर को हासिल करने के लिए हमें 72 रुपये देने पड़ रहे हैं। रुपये की हैसियत एक वर्ष में 10 प्रतिशत से अधिक गिर गई है। सरकार कुछ भी कारण गिनाये, लेकिन रुपए की गिरती कीमत उसके लिए चिंता का विषय होना चाहिए। इस गिरावट पर सुनने को सिर्फ यही मिल रहा है कि यह अस्थायी है और लंबे समय तक नहीं रहने वाली। सरकार एक तरफ यह दावा कर रही है कि अर्थव्यवस्था के संकेतक मजबूत हैं, दूसरी ओर रुपए की गिरती सेहत हकीकत बयान करने के लिए काफी है। रूपये में आने वाली गिरावट के साइड इफेक्ट दिखने शुरू हो गये हैं और पेट्रोलियम जैसे पदार्थ जो कि उत्पादन के बजाये आयात पर ही निर्भर होते हैं की कीमतों को देखकर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। स्पष्टï है कि रुपया गिर रहा है, इसलिए कच्चा तेल महंगा पड़ रहा है। यह कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है कि सब कुछ बाहरी कारणों से हो रहा है और सरकार इसके लिए कुछ नहीं कर सकती।
हमारे देश में इस आर्थिक संकट के पीछे कारण यह है कि यहां व्यापार करने की परिपाटी सदियों पुरानी है। यह सही है कि भारत साफ्टवेयर बनाने में अग्रणी देश है, लेकिन इसका प्रभाव बेंगलुरु या पूणे से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। हमारे उद्यमी मूल रूप से पुरानी तकनीक के ही आधार पर व्यापार कर रहे हैं। इसलिए भारत की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा क्षमता कम है। दूसरा जो कारण नजर आता है, वह शिक्षा व्यवस्था में नये विषय और इंटरनेट जैसी तकनीकों के पर्याप्त समावेश की कमी है। इससे भी हमारी अर्थव्यवस्था को नई पीढ़ी से कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। भारत में श्रम कानूनों की कमजोरियां भी अर्थव्यवस्था को संकट में डालने वाली है, क्योंकि वर्तमान कानून किसी भी तरह से कर्मचारियों से बेहतर परिणाम लेने के लिए बाध्य नहीं करते हैं। यदि हमें अपने रुपये की साख को बचाना है तो हमें माल सस्ता बनाना पड़ेगा। जिन वस्तुओं का उत्पाद हम करते हैं, वह महंगी होती हैं और उनके मुकाबले में आयातित वस्तुएं सस्ती होती हैं। प्रधानमंत्री ने पूरा जोर औद्योगिक विकास पर लगा रखा है, जबकि हमारी आज की आवश्यकता अधिक से अधिक धन कमाने की है।
इस संदर्भ में अन्य कारणों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम चढ़ रहा है। कच्चा तेल खरीदने के लिए अब हमें अधिक डॉलर की जरूरत पड़ रही है। इससे डॉलर की मांग बढ़ रही है। परिणामस्वरूप रुपया भी गिर रहा है। हम इस दलदल में इसलिए फंसे हैं, क्योंकि हमने ऊर्जा की खपत को अनायास ही बढ़ाया है। हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल आर्थिक विकास की रणनीति बनानी होगी। भारत में ऊर्जा की कमी है, इसलिए हमें ऐसे उद्यमों पर ध्यान देना होगा, जहां ऊर्जा की जरूरत कम हो।
रुपये के गिरने का एक कारण भारत का बढ़ता व्यापार घाटा भी है। हमारे निर्यात दबाव में हैं, जबकि आयात बढ़ रहे हैं। ऐसे विषम हालात पैदा करने में हमारी आर्थिक नीतियों का योगदान है। आज अमेरिका ने भारत और चीन के इस्पात पर आयात कर बढ़ा दिए है और हम अभी भी मुक्त व्यापार का झंडा फहरा रहे हैं। जब दूसरे देशों की सरहदें हमारे निर्यात के लिये बंद होती जा रही हैं, तब हम हमने अपनी सरहदों को आयात के लिए खोल रखा है। यही कारण है कि भारत का व्यापार घाटा और बढ़ता जा रहा है। इस मामले में आरबीआई को हस्तक्षेप करना होगा, क्योंकि वही इस संकट को दूर करने के लिए डालर की खरीद-फरोख्त करने का कार्य करता है।
इस प्रकार पूरा आर्थिक तंत्र संकट का संदेश दे रहे हैं। इस पर बहानेबाजी के बजाये गंभीर कदम उठाने की जरूरत है।
हमारे देश में इस आर्थिक संकट के पीछे कारण यह है कि यहां व्यापार करने की परिपाटी सदियों पुरानी है। यह सही है कि भारत साफ्टवेयर बनाने में अग्रणी देश है, लेकिन इसका प्रभाव बेंगलुरु या पूणे से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। हमारे उद्यमी मूल रूप से पुरानी तकनीक के ही आधार पर व्यापार कर रहे हैं। इसलिए भारत की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा क्षमता कम है। दूसरा जो कारण नजर आता है, वह शिक्षा व्यवस्था में नये विषय और इंटरनेट जैसी तकनीकों के पर्याप्त समावेश की कमी है। इससे भी हमारी अर्थव्यवस्था को नई पीढ़ी से कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा है। भारत में श्रम कानूनों की कमजोरियां भी अर्थव्यवस्था को संकट में डालने वाली है, क्योंकि वर्तमान कानून किसी भी तरह से कर्मचारियों से बेहतर परिणाम लेने के लिए बाध्य नहीं करते हैं। यदि हमें अपने रुपये की साख को बचाना है तो हमें माल सस्ता बनाना पड़ेगा। जिन वस्तुओं का उत्पाद हम करते हैं, वह महंगी होती हैं और उनके मुकाबले में आयातित वस्तुएं सस्ती होती हैं। प्रधानमंत्री ने पूरा जोर औद्योगिक विकास पर लगा रखा है, जबकि हमारी आज की आवश्यकता अधिक से अधिक धन कमाने की है।
इस संदर्भ में अन्य कारणों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल का दाम चढ़ रहा है। कच्चा तेल खरीदने के लिए अब हमें अधिक डॉलर की जरूरत पड़ रही है। इससे डॉलर की मांग बढ़ रही है। परिणामस्वरूप रुपया भी गिर रहा है। हम इस दलदल में इसलिए फंसे हैं, क्योंकि हमने ऊर्जा की खपत को अनायास ही बढ़ाया है। हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूल आर्थिक विकास की रणनीति बनानी होगी। भारत में ऊर्जा की कमी है, इसलिए हमें ऐसे उद्यमों पर ध्यान देना होगा, जहां ऊर्जा की जरूरत कम हो।
रुपये के गिरने का एक कारण भारत का बढ़ता व्यापार घाटा भी है। हमारे निर्यात दबाव में हैं, जबकि आयात बढ़ रहे हैं। ऐसे विषम हालात पैदा करने में हमारी आर्थिक नीतियों का योगदान है। आज अमेरिका ने भारत और चीन के इस्पात पर आयात कर बढ़ा दिए है और हम अभी भी मुक्त व्यापार का झंडा फहरा रहे हैं। जब दूसरे देशों की सरहदें हमारे निर्यात के लिये बंद होती जा रही हैं, तब हम हमने अपनी सरहदों को आयात के लिए खोल रखा है। यही कारण है कि भारत का व्यापार घाटा और बढ़ता जा रहा है। इस मामले में आरबीआई को हस्तक्षेप करना होगा, क्योंकि वही इस संकट को दूर करने के लिए डालर की खरीद-फरोख्त करने का कार्य करता है।
इस प्रकार पूरा आर्थिक तंत्र संकट का संदेश दे रहे हैं। इस पर बहानेबाजी के बजाये गंभीर कदम उठाने की जरूरत है।
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