कल भारत बन्द के दौरान केन्द्रीय सरकार के एक मंत्री का हतप्रभ करने वाला बयान आया और कहा गया कि पेट्रोल, डीजल की बढ़ती कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। पेट्रोल-डीजल की लगातार बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने में विफल रहने पर केन्द्रीय सरकार ने पहली बार यह लाचारी जाहिर की। हालांकि सरकार की यह बात सच्चाई से परे लगती है, क्योंकि पेट्रोल और डीजल जैसे पदार्थों की आसमान छूती कीमतों में बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी टैक्सों का है और पेट्रोलियम बिक्री करने वाली सभी प्रमुख एजेंसियां भी सरकारी है। ऐसे में सरकारी नियंत्रण से दूर रहने का बयान गले से नीचे नहीं उतरता।
सभी को पता है कि जब केन्द्र में भाजपानीत वाली सरकार २०१४ में सत्ता में आयी थी, तब अंतर्राष्टï्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत अपने न्यूनतम स्तर पर थी। तब कच्चे तेल की कीमत लगभग 25 रूपये प्रति लीटर की दर से देश में आयात किया जाता था, परन्तु तब भी देश में पेट्रोल की कीमतों में कोई खास कमी नहीं की गई थी और देश में ७० से ७५ रूपये के बीच में ही पेट्रोल को खरीदना पड़ता था। सरकार ने तब उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सस्ते पेट्रोल की कीमतों को कम होने से काफी हद तक रोक दिया था। इस संबंध में अक्सर यह बात सामने आती थी कि उक्त बढ़ोत्तरी से पेट्रोलियम कंपनियों को हुए घाटे की भरपायी करने में मदद की जा रही है।
अब जब पेट्रोलियम की कीमतों ने उछाल मारना शुरू किया तो सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिये। दरअसल सरकार सस्ते पेट्रोल पर लगाये भारी उत्पाद शुल्क को अब कम नहीं करना चाहती है। इस कारण वह पेट्रोल और डीजल की कीमतों से अपना पल्ला झाड़ रही है। ऐसा लगता है कि सरकार खुद ही पेट्रोलियम की कीमतों को रोकने में दिलचस्पी नहीं लेना चाहती है। यदि सरकार चाहती तो पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के अन्तर्गत लाकर कीमतों में कमी कर सकती थी, क्योंकि जीएसटी की सबसे ऊंची स्लैब से भी काफी अधिक पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स वसूला जा रहा है। सरकार चाहे तो इस बदइंतजामी को दूर कर पेट्रोल की कीमतों पर अंकुश लगा सकती है।
पिछले कुछ समय से सरकार की गतिविधियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह अमेरिकी नीतियों की कठपुतली बन पेट्रोल की कीमतों के बारे में अनदेखी करना ही मुनासिब समझ रही है। सच बात तो यह है कि अन्तर्राष्टï्रीय बाजार में उपलब्ध सस्ते कीमत वाले कच्चे तेल की खरीद में ही वह आनाकानी कर रही है। यदि ईरान जैसे देशों से वह पेट्रोल खरीदती तो कीमतों में यह उछाल देखने को नहीं मिलती, क्योंकि दुनिया भर में सबसे सस्ता कच्चा तेल ईरान में ही मिलता है और ईरान भारत को यह तेल बेचने में रूचि भी लेता है। फिर भी सरकार ने देश में सस्ते कच्चे तेल के आवक के दरवाजे अमेरिकी राष्टï्रपति ट्रम्प के प्रभाव में लगभग बन्द कर दिया है और सबसे महंगे दर से कच्चे तेल बेचने वाले सऊदी अरब व यूएई जैसे देशों से तेल खरीदने में लगा है।
यह भी सच है कि इसके बदले अमेरिका हमें कोई रियायत नहीं देने वाला है। अमेरिका ने चीन की तरह हमारे भी निर्यात किये जाने वालेे उत्पादों पर भी भारी टैक्स लगा दिया है। वह हमेशा इस कवायद में लगा हुआ है कि भारत कहीं से भी सस्ते उत्पाद का आयात न करे। यही नहीं वह भारत में दी जाने वाली सब्सिडी को भी खत्म करने के लिए बार-बार चेतावनी देने की मुद्रा में भी आ चुका है।
वह इसमें काफी हद तक कामयाब भी हो रहा है, क्योंकि केन्द्रीय सरकार उसके हर फैसले पर अपनी नीतियों से समर्थन करती जा रही है। अमेरिका परस्त नीतियों से ऐसा लगता है कि सरकार को आम जनता की फिक्र के बजाये अमेरिकी नीतियों को आगे बढ़ाने की फिक्र ज्यादा है। पेट्रोलियम की कीमतों पर सरकारी नियंत्रण न होने के बयान उसी कड़ी का एक हिस्सा प्रतीत होता है।
सभी को पता है कि जब केन्द्र में भाजपानीत वाली सरकार २०१४ में सत्ता में आयी थी, तब अंतर्राष्टï्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत अपने न्यूनतम स्तर पर थी। तब कच्चे तेल की कीमत लगभग 25 रूपये प्रति लीटर की दर से देश में आयात किया जाता था, परन्तु तब भी देश में पेट्रोल की कीमतों में कोई खास कमी नहीं की गई थी और देश में ७० से ७५ रूपये के बीच में ही पेट्रोल को खरीदना पड़ता था। सरकार ने तब उत्पाद शुल्क बढ़ाकर सस्ते पेट्रोल की कीमतों को कम होने से काफी हद तक रोक दिया था। इस संबंध में अक्सर यह बात सामने आती थी कि उक्त बढ़ोत्तरी से पेट्रोलियम कंपनियों को हुए घाटे की भरपायी करने में मदद की जा रही है।
अब जब पेट्रोलियम की कीमतों ने उछाल मारना शुरू किया तो सरकार ने अपने हाथ खड़े कर दिये। दरअसल सरकार सस्ते पेट्रोल पर लगाये भारी उत्पाद शुल्क को अब कम नहीं करना चाहती है। इस कारण वह पेट्रोल और डीजल की कीमतों से अपना पल्ला झाड़ रही है। ऐसा लगता है कि सरकार खुद ही पेट्रोलियम की कीमतों को रोकने में दिलचस्पी नहीं लेना चाहती है। यदि सरकार चाहती तो पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के अन्तर्गत लाकर कीमतों में कमी कर सकती थी, क्योंकि जीएसटी की सबसे ऊंची स्लैब से भी काफी अधिक पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स वसूला जा रहा है। सरकार चाहे तो इस बदइंतजामी को दूर कर पेट्रोल की कीमतों पर अंकुश लगा सकती है।
पिछले कुछ समय से सरकार की गतिविधियों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह अमेरिकी नीतियों की कठपुतली बन पेट्रोल की कीमतों के बारे में अनदेखी करना ही मुनासिब समझ रही है। सच बात तो यह है कि अन्तर्राष्टï्रीय बाजार में उपलब्ध सस्ते कीमत वाले कच्चे तेल की खरीद में ही वह आनाकानी कर रही है। यदि ईरान जैसे देशों से वह पेट्रोल खरीदती तो कीमतों में यह उछाल देखने को नहीं मिलती, क्योंकि दुनिया भर में सबसे सस्ता कच्चा तेल ईरान में ही मिलता है और ईरान भारत को यह तेल बेचने में रूचि भी लेता है। फिर भी सरकार ने देश में सस्ते कच्चे तेल के आवक के दरवाजे अमेरिकी राष्टï्रपति ट्रम्प के प्रभाव में लगभग बन्द कर दिया है और सबसे महंगे दर से कच्चे तेल बेचने वाले सऊदी अरब व यूएई जैसे देशों से तेल खरीदने में लगा है।
यह भी सच है कि इसके बदले अमेरिका हमें कोई रियायत नहीं देने वाला है। अमेरिका ने चीन की तरह हमारे भी निर्यात किये जाने वालेे उत्पादों पर भी भारी टैक्स लगा दिया है। वह हमेशा इस कवायद में लगा हुआ है कि भारत कहीं से भी सस्ते उत्पाद का आयात न करे। यही नहीं वह भारत में दी जाने वाली सब्सिडी को भी खत्म करने के लिए बार-बार चेतावनी देने की मुद्रा में भी आ चुका है।
वह इसमें काफी हद तक कामयाब भी हो रहा है, क्योंकि केन्द्रीय सरकार उसके हर फैसले पर अपनी नीतियों से समर्थन करती जा रही है। अमेरिका परस्त नीतियों से ऐसा लगता है कि सरकार को आम जनता की फिक्र के बजाये अमेरिकी नीतियों को आगे बढ़ाने की फिक्र ज्यादा है। पेट्रोलियम की कीमतों पर सरकारी नियंत्रण न होने के बयान उसी कड़ी का एक हिस्सा प्रतीत होता है।
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