Wednesday, October 17, 2018

विश्व व्यापार में ट्रम्प की शर्तें अमेरिका को भारी पड़ेंगी

  दुनिया भर में व्यापार युद्घ दिलचस्प मोड़ लेता जा रहा है। अमेरिका भारत समेत अन्य विकासशील देशों पर अपनी शर्तों को थोपना चाहता है। वह नहीं चाहता कि कोई देश ईरान के साथ व्यापार करे। वह यह भी नहीं चाहता कि कोई देश अमेरिका की अनदेखी कर हथियारों की खरीद-फरोख्त किसी अन्य देश से करे। संयोग से यह दोनों बातें भारत के खिलाफ जाती हैं और भारत इस दुविधा की स्थिति से निकलना चाहता है। वह न तो ईरान के साथ व्यापार बन्द करने की स्थिति में है और न ही केवल अमेरिका से रक्षा सौदा के लिए निर्भर रहना चाहता है। आजादी के बाद करीब ६० वर्षों तक भारतीय थल सेना और वायुसेना के हथियार सोवियत यूनियन से मिला करते थे। अब भी भारतीय सेनाओं के पास किसी अन्य देश की अपेक्षा रूसी हथियार अधिक है। अत: भारत इस स्थिति में नहीं है कि वह रूस से हथियार या उनके कलपुर्जे खरीदना बन्द कर दे। अमेरिका ने कहा है कि भारत कोई बड़ा सौदा रूस से न करे। रूस में निर्मित एस-४०० मिसाइलें संसार में सबसे अच्छी मानी गई हैं और चीन ने यह मिसाइलें आज से कई साल पहले खरीदी था। भारत को भी अपनी सुरक्षा के लिए ये मिसाइलें खरीदना है, परन्तु अमेरिका ने इसका घोर विरोध किया था। राष्टï्रपति पुतिन के भारत दौरे के दौरान लगभग साढ़े पांच अरब डालर की एस ४०० मिसाइल सिस्टम की खरीदारी पर समझौता हुआ। अमेरिका को यह सख्त नापसंद है और उसने बार-बार भारत पर ऐसा न करने का दबाव बनाया है।
ऐसा नहीं है कि भारत अमेरिका से प्रतिबंधों से उत्पन्न विपरीत स्थिति के आने से अंजान है। फिर भी वह अमेरिका की इच्छा के विरूद्घ कार्य कर रहा है। यह भारत की मजबूरी ही है कि वह अमेरिकी इच्छा की अनदेखी करे। दरअसल ९० के दशक में सोवियत संघ के विघटन और वित्त मंत्री के रूप में आरबीआई गवर्नर रहे मनमोहन सिंह की नीतियों ने अमेरिका को भारत के निकट लाने का कार्य किया। रही-सही कसर श्री सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद पूरी हो गई है। एक समय ऐसा भी आया कि श्री सिंह ने न्यूक्लीयर डील के मामले में वामपंथी दलों के विरोध के बावजूद अपनी सरकार तक दांव पर लगाकर अमेरिका के साथ संबंधों को बरकरार रखा था। पिछले ढाई दशक से भारत और अमेरिका के बीच के रिश्ते इतने आगे बढ़ चुके हैं कि उससे पीछे हटना अब दोनों देशों के लिए मुश्किल भरा दौर शुरू करने जैसा होगा। फिर भी राष्टï्रपति ट्रम्प की विदेश नीति ने दोनों देशों के बीच दूरियां बढ़ानी शुरू कर दी है। राष्टï्रपति ट्रम्प, भारत के मामले में इधर कुछ समय से दोस्ती के साथ धमकी जैसे व्यवहार करते नजर आये। उन्होंने भारत को टैरिफ का बादशाह कहा है, जिसे अन्तर्राष्टï्रीय व्यापार में जिल्लत का शब्द माना जाता है। राष्टï्रपति ट्रम्प ने यह कहकर कि हमें नीचा दिखाने की कोशिश की है कि हम हर कीमत पर उनकों खुश करना चाहते हैं।
  इस तरह से भारत दोस्त होते हुए भी अमेरिका के निशाने पर आ गया और परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली कि पुराने दोस्त रूस और ईरान फिर से याद आने लगे। दरअसल इस समय रूपये की स्थिति खस्ताहाल है। देश में महंगाई चरम पर है और पेट्रोलियम पदार्थों की बड़े आयातक देश के रूप में ईरान से संबंध तोडऩे के परिणामस्वरूप विपरीत स्थिति का सामना करना पड़ सकता है। एक जमाने में केवल रूस ही नहीं पूरा इस्टर्न यूरोप भारत के साथ रूपये में व्यवसाय करता था। भारत का ज्यादातर व्यवसाय ईरान के साथ विनिमय पर आधारित थे, यानी तेल के बदले हम खाद्य पदार्थ जैसे सामान देते थे। तब भारतीय रूपया काफी मजबूत होता था, क्योंकि डालर का दखल अंतर्राष्टï्रीय बाजार में कम था। अब भारत फिर से उसी नीति को अपनाने की तरफ अपना मुड़ रहा है। बताया जाता है कि रूस के साथ एस-400 की खरीद के साथ दोनों देशों के बीच व्यवसाय को भारतीय रूपये और रूसी रूबल के बीच करने में समझौता हुआ है। इससे अमेरिकी प्रतिबंध लगने के बाद भी दोनों देशों के बीच व्यापार में डालर की कमी आड़े नहीं आने पायेगी। ईरान ने भी भारत को तेल देने में रियायत बरतने का आश्वासन दिया है और चीन भी अमेरिकी ट्रेड टैरिफ से परेशान होकर भारत के साथ संबंधों को मजबूत करने का सहयोग मांगा है।
भारत के इस कदम का आने वाले ४ नवम्बर के बाद कैसा प्रभाव पड़ेगा, यह तो वक्त ही बतायेगा, क्योंकि इस तिथि के बाद भारत अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंध के दायरे में आ जायेगा। फिर भी यह स्पष्टï है कि यदि भारत का अन्य देशों के बीच में रूपये में व्यापार बढ़ेगा तो डालर की स्थिति कमजोर होगी। इससे हमारी अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी ही, वर्षों पुरानें रूस और ईरान जैसे मित्र देशों के बीच संबंधों की प्रगाढ़ता भी बढ़ेगी।

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