इस समय देश में 'मी टू' आम लोगों की जुबान पर सबसे अधिक चर्चा का विषय बना हुआ है। यौन शोषण के मामलों को उजागर करने के लिए अमेरिका में 'मी टूÓ नाम से शुरू हुआ अभियान अब भारत में भी असर दिखाने लगा है। इस अभियान में कई सफेदपोशों की पोल खुलती जा रही है। पहली बार महिलाओं ने अपनी बात को रखने की हिम्मत दिखाई है। यही कारण है कि अब सरकार भी इस सिलसिले में कड़े कदम उठाने जा रही है। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने इन मामलों में पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए सेवानिवृत्त जजों की पीठ बनाने का प्रस्ताव सरकार को भेजा है। 'मी टूÓ ने यह साबित कर दिया है कि देश में चाहे नेता हो या अभिनेता, तमाम सफेदपोशों के बीच यौन उत्पीडऩ जैसा घिनौना कार्य आम बात है।
हाल ही में फिल्मी दुनिया के साथ ही अन्य क्षेत्रों में यौन शोषण के जो कुछ बेहद चर्चित या फिर एक दायरे तक सीमित मामले सामने आए हैैं, वे तो महज बानगी भर हैैं। यह सहज ही समझा जा सकता है कि यौन प्रताडऩा का शिकार हुई तमाम महिलाएं ऐसी होंगी जो अपनी आपबीती बयान करने का साहस नहीं जुटा पा रही होंगी। नि:संदेह यह 'मी टू' अभियान के प्रति भारतीय समाज के रुख-रवैये पर निर्भर करेगा कि यौन प्रताडऩा से दो-चार हुई महिलाएं भविष्य में अपनी आपबीती बयान करने के लिए आगे आती हैैं या नहीं?
विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएं अपने साथ हुए अत्याचार के ब्योरे दे रही हैं और कुछेक मामलों में दोषी को अलग-थलग करने या उसे सजा देने की मांग भी कर रही हैं। इस तरह फिल्म, टीवी, मॉडलिंग, पत्रकारिता और साहित्य से लेकर राजनीति तक से जुड़े कई नामी-गिरामी चेहरों से पर्दा हट रहा है। यदि समाज को यह संदेश सही तरह जाता है कि महिलाओं की किसी मजबूरी का लाभ उठाकर उनका दैहिक शोषण करने वाले देर-सबेर बेनकाब होने के साथ ही शर्मसार हो सकते हैैं तो फिर ऐसे तत्वों पर लगाम लग सकती है। यह लगाम लगनी ही चाहिए, लेकिन यह काम केवल यौन शोषण रोधी सक्षम कानूनों और अदालतों की सक्रियता एवं संवेदनशीलता से ही नहीं होने वाला, समाज को भी अपना रवैया बदलना होगा।
'मी टूÓ में पीडि़ताओं की व्यथा बताती है कि इÓजतदार जगहों पर होना और शिक्षित-संभ्रांत दिखना किसी पुरुष के सभ्य होने की गारंटी नहीं है। इन मामलों में आरोपित की चुप्पी अपने आप उनकी स'चाई को उजागर करने वाली है। इन आरोपों पर उनका मौन स'चाई के प्रति स्वीकृति को ही दर्शाती है। किसी भी तरह से प्रभावपूर्ण स्थिति में पहुंच गए कुछेक पुरुष यह मानकर चलते दिख रहे हैं कि उनके मातहत काम करने वाली कोई भी स्त्री उनकी यौन पिपासा की पूर्ति के लिए स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है। अगर महिला आसानी से इसके लिए राजी नहीं होती तो वह लालच देकर या ताकत का इस्तेमाल करके अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहता है। भारत में महिलाओं को बहुत लंबी लड़ाई लडऩी है। यह सही है कि 'मी टू' में सामने आए सभी दोषियों को सजा दिलाना बहुत कठिन है, लेकिन इससे प्रशासन और समाज में एक संदेश जरूर गया है। इस आंदोलन की एक सीमा यह भी है कि अभी यह उन्हीं महिलाओं तक सीमित है जो पढ़ी-लिखी और सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हैं। देश में न जाने कितनी अशिक्षित, गरीब महिलाएं रोज प्रताडऩा झेल रही हैं। उनकी आवाज न जाने कब सामने आएगी।
देखना यह भी जरूरी होगा कि मेनका गांधी की पहल पर सरकार इस अभियान का कितना साथ देती है, क्योंकि उसके एक मंत्री भी आरोपितों में हैं। उन्होंने अभी तक अपनी सफाई में कुछ भी नहीं बोला है। सरकार की तरफ से भी कोई स्पष्टïीकरण नहीं आया है, इससे सरकारी मंशा पर संदेह होना लाजिमी है।
इस कारण यह कहना कठिन है कि भारत में सहसा शुरू हुए 'मी टू' अभियान का अंजाम क्या होगा, लेकिन महिलाओं को यौन शोषण से बचाए रखने वाले माहौल का निर्माण हर किसी की प्राथमिकता में होना चाहिए।
हाल ही में फिल्मी दुनिया के साथ ही अन्य क्षेत्रों में यौन शोषण के जो कुछ बेहद चर्चित या फिर एक दायरे तक सीमित मामले सामने आए हैैं, वे तो महज बानगी भर हैैं। यह सहज ही समझा जा सकता है कि यौन प्रताडऩा का शिकार हुई तमाम महिलाएं ऐसी होंगी जो अपनी आपबीती बयान करने का साहस नहीं जुटा पा रही होंगी। नि:संदेह यह 'मी टू' अभियान के प्रति भारतीय समाज के रुख-रवैये पर निर्भर करेगा कि यौन प्रताडऩा से दो-चार हुई महिलाएं भविष्य में अपनी आपबीती बयान करने के लिए आगे आती हैैं या नहीं?
विभिन्न क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएं अपने साथ हुए अत्याचार के ब्योरे दे रही हैं और कुछेक मामलों में दोषी को अलग-थलग करने या उसे सजा देने की मांग भी कर रही हैं। इस तरह फिल्म, टीवी, मॉडलिंग, पत्रकारिता और साहित्य से लेकर राजनीति तक से जुड़े कई नामी-गिरामी चेहरों से पर्दा हट रहा है। यदि समाज को यह संदेश सही तरह जाता है कि महिलाओं की किसी मजबूरी का लाभ उठाकर उनका दैहिक शोषण करने वाले देर-सबेर बेनकाब होने के साथ ही शर्मसार हो सकते हैैं तो फिर ऐसे तत्वों पर लगाम लग सकती है। यह लगाम लगनी ही चाहिए, लेकिन यह काम केवल यौन शोषण रोधी सक्षम कानूनों और अदालतों की सक्रियता एवं संवेदनशीलता से ही नहीं होने वाला, समाज को भी अपना रवैया बदलना होगा।
'मी टूÓ में पीडि़ताओं की व्यथा बताती है कि इÓजतदार जगहों पर होना और शिक्षित-संभ्रांत दिखना किसी पुरुष के सभ्य होने की गारंटी नहीं है। इन मामलों में आरोपित की चुप्पी अपने आप उनकी स'चाई को उजागर करने वाली है। इन आरोपों पर उनका मौन स'चाई के प्रति स्वीकृति को ही दर्शाती है। किसी भी तरह से प्रभावपूर्ण स्थिति में पहुंच गए कुछेक पुरुष यह मानकर चलते दिख रहे हैं कि उनके मातहत काम करने वाली कोई भी स्त्री उनकी यौन पिपासा की पूर्ति के लिए स्वाभाविक रूप से उपलब्ध है। अगर महिला आसानी से इसके लिए राजी नहीं होती तो वह लालच देकर या ताकत का इस्तेमाल करके अपनी ख्वाहिश पूरी करना चाहता है। भारत में महिलाओं को बहुत लंबी लड़ाई लडऩी है। यह सही है कि 'मी टू' में सामने आए सभी दोषियों को सजा दिलाना बहुत कठिन है, लेकिन इससे प्रशासन और समाज में एक संदेश जरूर गया है। इस आंदोलन की एक सीमा यह भी है कि अभी यह उन्हीं महिलाओं तक सीमित है जो पढ़ी-लिखी और सोशल मीडिया पर ऐक्टिव हैं। देश में न जाने कितनी अशिक्षित, गरीब महिलाएं रोज प्रताडऩा झेल रही हैं। उनकी आवाज न जाने कब सामने आएगी।
देखना यह भी जरूरी होगा कि मेनका गांधी की पहल पर सरकार इस अभियान का कितना साथ देती है, क्योंकि उसके एक मंत्री भी आरोपितों में हैं। उन्होंने अभी तक अपनी सफाई में कुछ भी नहीं बोला है। सरकार की तरफ से भी कोई स्पष्टïीकरण नहीं आया है, इससे सरकारी मंशा पर संदेह होना लाजिमी है।
इस कारण यह कहना कठिन है कि भारत में सहसा शुरू हुए 'मी टू' अभियान का अंजाम क्या होगा, लेकिन महिलाओं को यौन शोषण से बचाए रखने वाले माहौल का निर्माण हर किसी की प्राथमिकता में होना चाहिए।
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