पिछले कुछ समय से हमारे पड़ोसियों से अच्छे रिश्ते नहीं दिख रहे हैं। भूटान को छोड़कर लगभग सभी पड़ोसियों से रिश्ते तल्ख होते जा रहे हैं। इस कड़ी में अब श्रीलंका का भी नाम जुड़ गया है। श्रीलंका सदियों से हमारा मित्र देश रहा है। अन्तर्राष्टï्रीय स्तर भारत की हर मुहिम में वह आंख मूंद कर समर्थन करता रहा है। भारत ने भी श्रीलंका की हर स्तर पर मदद की है और एक बार भारतीय सेना ने श्रीलंकाई सेना के साथ मिलकर तमिल विद्रोहियों से मोर्चा भी संभाल चुकी है। ऐसी मित्रवत संबंधों के बावजूद पिछले तीन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि भारत से उसकी दूरियां बढ़ती जा रही हैं। इसकी शुरूआत २०१५ के आम चुनावों में ही हो गई थी, जब तत्कालीन राष्टï्रपति महिन्द्रा राजपक्षे ने भारतीय खूफिया एजेंसी पर चुनाव में धांधली करवाने तथा मैत्रीपाला सिरसेना की मदद करने का आरोप लगाया था। मैत्रीपाला सिरसेना को भारतीय समर्थक नेता माना जाता है, परन्तु उनके रक्षा सचिव गोटाबाया राजपक्षा की हत्या के बाद से उनका भी नजरिया भारत के प्रति पहले जैसा नहीं रहा। एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र समूह की रिपोर्ट को सच माने तो श्री सिरसेना अपनी साप्ताहिक कैबिनेट की मीटिंग में भारतीय खूफिया एजेंसी 'रॉÓ द्वारा अपनी हत्या की साजिश की आशंका जताई है। हालांकि उन्होंने यह बात कहकर कि इस प्लान के बारे में शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जानकारी नहीं है, से भारत सरकार को इस आरोप से सीधे-सीधे नहीं जोड़ा है। फिर भी उनकी बातों के निहितार्थ यह भी है कि अब यहां की खूफिया एजेंसियां सरकार की पकड़ से दूर होती जा रही है। स्पष्टï है कि कुछ इसी तरह का आरोप पड़ोसी पाकिस्तान पर भी लगता रहा है कि उसकी वहां की खूफिया एजेंसी आईएसआई उसकी पकड़ से दूर है और पाकिस्तान में समानांतर सत्ता चलाती है।
गौरतलब है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में हमारे प्रधानमंत्री ने बहुत बड़ी संख्या में अन्य देशों का भ्रमण किया है और हर जगह उनका स्वागत हुआ है। इस प्रयास का फल उस मात्रा में मिलना नजर नहीं आता, जितना चाहिये था। दूर की बात छोडिय़े, हमारे पड़ोस में भी मित्रवत रहने वाले देश नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालद्वीव से रिश्ते पुराने जैसे नहीं रहे। नेपाल ने भारत के बजाये चीन को तरजीह देना शुरू कर दिया है। नेपाल का आरोप है कि वहां मधेशी आंदोलन को हवा देने में भारत का बड़ा हाथ रहा है। भारत द्वारा नेपाल में जरूरी खाद्य पदार्थों की आपूर्ति रोकने तथा नाकाबंदी के आरोप में वहां की सरकार भारत के प्रति सकारात्मक नहीं है। असम में एनआरसी के मुद्दे पर बांग्लादेश से भी संबंधों में खटास आती दिख रही है। रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेजने के फैसले से वहां से भी रिश्ते तल्ख हो चुके हैं। अरूणाचल और तिब्बत के मुद्दे पर चीन तथा कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से तल्खी किसी से छिपी नहीं है।
विदेश नीति की कामयाबी की सबसे बड़ी कसौटी अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध हैं। पाकिस्तान से हमारे संबंध पिछले 70 साल से खराब है, परन्तु चीन को हमने अमेरिकी दबाव में मुफ्त में दुश्मन बना रखा है। नतीजा यह है कि चीन वह हर काम कर रहा है, जिससे हमारी असुरक्षा बढ़ती है। पिछले दिनों राष्टï्र संघ की सुरक्षा परिषद में एक सदस्य की जगह खाली थी, जिसे एशिया से ही भरा जाना था, इसमे दो प्रत्यासी थे, इंडोनेशिया और मालद्वीव। मालद्वीव हमारे पड़ोस में है। पिछले दिनों की कुछ गलतफहमियों के बावजूद हमारी फौज तैनात थी और हमारे हेलीकाप्टर मालद्वीव के आसपास समुद्र पर नजर रख रहे थे। इंडोनेशिया बड़ा देश जरूर है, परन्तु बहुत दूर है और 1965 के बाद उससे हमारे सबंध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। हमने मालद्वीव से वादा भी कर रखा था कि सुरक्षा परिषद के चुनाव में उसे वोट देंगे। परन्तु हमने न केवल अपना वादा तोड़ा, बल्कि और देशों को मालद्वीव के स्थान पर इंडोनेशिया को समर्थन देने को कहा। इसका तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि मालद्वीव ने अपने देश से हमारी सैनिक टुकड़ी को वापस कर दिया और वे हिन्द महासागर में हमारे लिए टोही हेलीकाप्टर लौटा दिये। अपने पड़ोस में इतना अकेलापन झेलकर कोई देश अन्तर्राष्टï्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका नहीं अदा कर सकता। हमें अपने पड़ोस में अपनी स्थिति मजबूत करनी चाहिये। जैसा कि कहा जाता है, दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं। छोटे पड़ोसी दोस्त रखना दूरस्थ शक्तिशाली दोस्तों से बेहतर है।
गौरतलब है कि पिछले साढ़े चार वर्षों में हमारे प्रधानमंत्री ने बहुत बड़ी संख्या में अन्य देशों का भ्रमण किया है और हर जगह उनका स्वागत हुआ है। इस प्रयास का फल उस मात्रा में मिलना नजर नहीं आता, जितना चाहिये था। दूर की बात छोडिय़े, हमारे पड़ोस में भी मित्रवत रहने वाले देश नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, मालद्वीव से रिश्ते पुराने जैसे नहीं रहे। नेपाल ने भारत के बजाये चीन को तरजीह देना शुरू कर दिया है। नेपाल का आरोप है कि वहां मधेशी आंदोलन को हवा देने में भारत का बड़ा हाथ रहा है। भारत द्वारा नेपाल में जरूरी खाद्य पदार्थों की आपूर्ति रोकने तथा नाकाबंदी के आरोप में वहां की सरकार भारत के प्रति सकारात्मक नहीं है। असम में एनआरसी के मुद्दे पर बांग्लादेश से भी संबंधों में खटास आती दिख रही है। रोहिंग्या शरणार्थियों को म्यांमार वापस भेजने के फैसले से वहां से भी रिश्ते तल्ख हो चुके हैं। अरूणाचल और तिब्बत के मुद्दे पर चीन तथा कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से तल्खी किसी से छिपी नहीं है।
विदेश नीति की कामयाबी की सबसे बड़ी कसौटी अपने पड़ोसी देशों से सम्बन्ध हैं। पाकिस्तान से हमारे संबंध पिछले 70 साल से खराब है, परन्तु चीन को हमने अमेरिकी दबाव में मुफ्त में दुश्मन बना रखा है। नतीजा यह है कि चीन वह हर काम कर रहा है, जिससे हमारी असुरक्षा बढ़ती है। पिछले दिनों राष्टï्र संघ की सुरक्षा परिषद में एक सदस्य की जगह खाली थी, जिसे एशिया से ही भरा जाना था, इसमे दो प्रत्यासी थे, इंडोनेशिया और मालद्वीव। मालद्वीव हमारे पड़ोस में है। पिछले दिनों की कुछ गलतफहमियों के बावजूद हमारी फौज तैनात थी और हमारे हेलीकाप्टर मालद्वीव के आसपास समुद्र पर नजर रख रहे थे। इंडोनेशिया बड़ा देश जरूर है, परन्तु बहुत दूर है और 1965 के बाद उससे हमारे सबंध बहुत अच्छे नहीं रहे हैं। हमने मालद्वीव से वादा भी कर रखा था कि सुरक्षा परिषद के चुनाव में उसे वोट देंगे। परन्तु हमने न केवल अपना वादा तोड़ा, बल्कि और देशों को मालद्वीव के स्थान पर इंडोनेशिया को समर्थन देने को कहा। इसका तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि मालद्वीव ने अपने देश से हमारी सैनिक टुकड़ी को वापस कर दिया और वे हिन्द महासागर में हमारे लिए टोही हेलीकाप्टर लौटा दिये। अपने पड़ोस में इतना अकेलापन झेलकर कोई देश अन्तर्राष्टï्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका नहीं अदा कर सकता। हमें अपने पड़ोस में अपनी स्थिति मजबूत करनी चाहिये। जैसा कि कहा जाता है, दोस्त बदले जा सकते हैं, पड़ोसी नहीं। छोटे पड़ोसी दोस्त रखना दूरस्थ शक्तिशाली दोस्तों से बेहतर है।
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