Tuesday, January 22, 2019

उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता में लगती सेंध

कांग्रेस ने यूपी में फ्रंट फुट पर खेलने का मन बना लिया है। सपा-बसपा गठबंधन के कुछ ही घंटे के अंदर ही पार्टी ने यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। कांग्रेस के फ्रंट फुट पर खेलने की घोषणा से नये-नवेले सपा-बसपा गठबंधन को खुश होने का ज्यादा मौका नहीं दिया। कांग्रेस का एक धड़ा तो यही मुराद मांग रहा था कि सपा-बसपा से गठबंधन न हो।
कई नेताओं ने गठबंधन में शामिल न होने के लिए राहुल गांधी को पत्र भी लिखा था। सपा-बसपा ने कांग्रेस को गठबंधन से बाहर करके कांग्रेस को फ्रंट फुट पर खेलने के लिए मजबूर नहीं किया है। वास्तव में कांग्रेस तो तीन राज्यों में मिली सत्ता के बाद से ही गठबंधन का खास तवज्जो नहीं दे रही थी। पर वो गठबंधन में शामिल न होने की बदनामी से बचना चाहती थी।
माया-अखिलेश की जोड़ी ने कांग्रेस को गठबंधन से बाहर निकालकर उसकी कई मुश्किलों का हल करने का काम किया। अंदर ही अंदर तैयारी चल रही थी, इसी के चलते सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के अगले ही दिन कई पूर्व केंद्रीय मंत्रियों की कांग्रेसी फौज ने लखनऊ की सरजमीं पर छाती ठोककर ऐलान किया कि कांग्रेस अपने दम पर यूपी की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।
इतना बड़ा ऐलान और अतिरिक्त आत्मविश्वास बिना पूर्व तैयारी के नहीं आ सकता। मतलब साफ है कि कांग्रेस यूपी में अपने दम पर लड़ने का दिल पहले ही बना चुकी थी। कांग्रेस के फ्रंट फुट पर खेलने से सपा-बसपा की मुश्किलें बढ़ना तय है। विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर कांग्रेस का मजबूत जनाधार है।
वास्तव में कांग्रेस अंदर ही अंदर सपा-बसपा में शामिल होने के लिए तैयार नहीं थी। हिन्दी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में सफलता से कांग्रेस को हौसला सातवें आसमान पर है। वह उत्तर प्रदेश में भी बेहतर की उम्मीद कर रही है। चुनावी जीत के बाद वह महागठबंधन के रणनीति और राजनीति को अपने नजरिए से देखने लगी है।
तीन राज्यों में जीत के बाद कांग्रेस आलाकमान व थिंक टैंक ने यह तय कर लिया था कि अगर यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन ने उसे तरजीह नहीं दी तो वह भी नए दांव को आजमाएगी। इसके तहत वह खुद को बीजेपी के मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में पेश करेगी। इसीलिये सपा-बसपा के गठबंधन में कांग्रेस को शामिल न किए जाने पर पार्टी ने सिर पकड़कर बैठ जाने की बजाय मैदान में ताल ठोंकने में चौबीस घंटे का समय भी नहीं लगाया।
कोई जमाना था जब यूपी की अधिकतर सीटों पर कांग्रेस का झण्डा फहराया करता था। क्षेत्रीय दलों सपा-बसपा की पैदाइश के बाद कांग्रेस का रुतबा यूपी की राजनीति में घटता चला गया। वर्ष 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने अकेले दम पर चुनाव लड़ा था। उस समय उसके मनरेगा और कर्जमाफी जैसे बड़े मुद्दे थे। तब भाजपा की हालत बहुत पतली थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में 23.26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ सपा को 23, कांग्रेस को 18.25 प्रतिशत वोट के साथ 21 और भाजपा को 17.50 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दस सीटें मिलीं थीं। जबकि रालोद के खाते में पांच सीटें आईं थीं।
कांग्रेस 2012 के यूपी विधानसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर सकी। उसके खाते में 28 सीटें आई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा। समाजवादी पार्टी से प्रदेश की जनता बुरी तरह नाराज थी। ऐसे में कांग्रेस को भी जनता की नाराजगी और सपा से दोस्ती का खामियाजा भुगतना पड़ा। 2017 में सौ विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी कांग्रेस केवल सात सीटों पर जीत सकी।
कांग्रेस भले ही यूपी में कमजोर दिखती हो, लेकिन कई सीटों पर उसकी पकड़ मजबूत है।
यदि 2014 के लोकसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें, तो कांग्रेस भले ही यूपी में कमजोर दिखती हो, लेकिन कई सीटों पर उसकी पकड़ मजबूत है। 2014 में बीजेपी ने अकेले दम पर 71 सीटों के साथ 42.63 फीसदी वोट हासिल किए थे। सपा को 22.35 फीसदी वोट और पांच सीटें मिली थीं, लेकिन बीएसपी को 19.7 फीसदी वोट मिलने के बावजूद वो एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। वहीं कांग्रेस महज 7.53 फीसदी मतों के बावजूद दो सीटें जीतने में कामयाब हो गई थी। यही नहीं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर उसने बीजेपी को कड़ी टक्कर भी दी थी और कांग्रेस पार्टी को 2019 में ये उम्मीद और भी ज्यादा सकारात्मक दिख रही है।
जानकारों का कहना है कि इस इलाके में कांग्रेस पार्टी भीम आर्मी, राष्ट्रीय लोकदल, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और राजा भैया की जनसत्ता पार्टी के साथ गठबंधन करके कथित महागठबंधन की तुलना में कहीं ज्यादा फायदा ले सकती है। 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि 2014 के बाद से यूपी में कांग्रेस का ग्राफ काफी गिरा है। उसका संगठन यूपी में बेहद कमजोर और बिखरा हुआ है। सपा और बसपा के नेताओं के मुताबिक कांग्रेस अगर अकेले चुनाव मैदान में उतरती है तो वह बीजेपी का ही वोट काटेगी। ऐसे में जिन सीटों पर कम वोटों से हार-जीत का अंतर होता है, वहां पर कांग्रेस की वोटकटवा भूमिका निर्णायक सिद्ध हो सकती है। यही वजह रही कि यूपी की तीनों सीटों के उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन विजयी रहा। चुनावी गुणा भाग के गणित के बाद ही सपा-बसपा ने कांग्रेस को रणनीति के तहत गठबंधन से ‘आउट’ करने का फैसला किया।
कांग्रेस से जुड़े सूत्रों की मानें तो कांग्रेस ने सपा-बसपा गठबंधन की काट ढूंढ ली है। कांग्रेस ने अपने दिग्गज चेहरों के आधार पर चुनाव लड़ने की योजना को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष भी क्षेत्र में प्रभावी चेहरों पर दांव लगाकर उनके दमखम और जमीनी हकीकत को आंकना चाहते हैं। यूपी में कांग्रेस का संगठन मजबूत न होने के कारण भी ऐसी रणनीति बनाई जा रही है। अगर ऐसा होता है तो रायबरेली से सोनिया गांधी और अमेठी से राहुल गांधी के अलावा अन्य कई सीटों से भी कई प्रमुख व खास चेहरे मैदान में होंगे।
प्रतापगढ़ क्षेत्र से रत्ना सिंह व इलाहाबाद से प्रमोद तिवारी को मैदान में उतारा जा सकता है। वहीं, लखीमपुर खीरी की धौहरारा सीट से जितिन प्रसाद, बाराबंकी से पी.एल. पुनिया, गोंडा से बेनी प्रसाद वर्मा, कुशीनगर से आर.पी.एन. सिंह, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहारनपुर क्षेत्र से इमरान मसूद, फर्रुखाबाद से सलमान खुर्शीद, फैजाबाद से निर्मल खत्री और कानपुर से प्रकाश जयसवाल पर पार्टी दांव लगा सकती है। प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर को आगरा या फिरोजाबाद उतारा जा सकता है। इन लोगों का अपने-अपने क्षेत्र में प्रभाव भी है और ये अच्छे वोट भी बटोर सकते हैं।
राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार सीटों के अलावा कांग्रेस को अकेले लड़ने में और भी फायदे नजर आ रहे हैं।
राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार सीटों के अलावा कांग्रेस को अकेले लड़ने में और भी फायदे नजर आ रहे हैं। राजनीतिक विशलेषकों के अनुसार सीटों के अलावा कांग्रेस को अकेले लड़ने में और भी फायदे नजर आ रहे हैं। प्रदेश की सभी 80 सीटों से चुनाव लड़ने से उसे हर एक लोकसभा सीट पर एक नेता मिल जाएगा, दूसरे पार्टी लोकसभा चुनाव के बहाने अपने कमजोर संगठन को एक बार फिर खड़ा कर सकती है। गठबंधन की स्थिति में उसके पाले में चंद सीटें ही आएंगी और संगठन भी वहीं रह पाएगा, पूरे राज्य में नहीं।
कांग्रेस के कई नेता यह दावा करते हैं कि कांग्रेस सीटों के मामले में अकेले लड़कर भी गठबंधन की तुलना में ज्यादा ला सकती है। उधर कांग्रेस के तमाम जमीनी नेता भी यही चाहते हैं और लगातार मांग कर रहे हैं कि पार्टी अकेले चुनाव लड़े। वही दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद मिली करारी पराजय की वजह से फूंक-फूंककर कदम रख रही है।
पार्टी का मानना है कि उसे गठबंधन में जितनी सीटें मिलने की संभावना है, उससे ज्यादा सीटें वो अकेले ही लड़कर जीत सकती है। असल में कांग्रेस वर्चस्व बचाने के लिए अकेले दम पर प्रभावी चेहरे उतारने की कवायद कर सकती है। कांग्रेस जानती है कि उसके पास उत्तर प्रदेश में खोने के लिए कुछ नहीं प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ है। फिलवक्त उसके पास कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। कांग्रेस का आत्मविश्वास उसे किस जगह खड़ा करेगा ये तो आने वाला समय बताएगा। फिलहाल कांग्रेस के चेहरे पर आत्मविश्वास के भाव साफ तौर पर दिखाई दे रहे हैं।

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