Tuesday, February 12, 2019

प्रियंका गांधी और 'कांग्रेस युक्त भारत'

निर्मल रानी
स्वतंत्रता संग्राम में सबसे अग्रणी रहने वाले राजनैतिक संगठन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नामो-निशान मिटाने के कितने प्रयास गत् पांच वर्षों में किए गए यह देश के लोगों से छुपा नहीं है। स्वयं देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनके परम सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह अनेक बार सार्वजनिक सभाओं में 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते रहे हैं। पिछले दिनों राजस्थान के एक चुनाव में तो प्रधानमंत्री ने सीधे तौर पर जनता से यही अपील कर डाली थी कि-'राजस्थान में कांग्रेस पार्टी एक भी सीट जीतने न पाए'। उनकी इस अपील का नतीजा क्या हुआ इस पर रौशनी डालने की तो कोई ज़रूरत ही नहीं परंतु प्रधानमंत्री की इस अपील के अर्थ को समझना बेहद ज़रूरी है। प्रधानमंत्री की यह अपील अपने-आप में यह बताती है कि उनका लक्ष्य विपक्षहीन राजनीति करना है। इस तज़र्-ए-सियासत को तानाशाही की आकांक्षा का उत्कर्ष भी कहा जा सकता है।
 बहरहाल, पांच वर्ष के अहंकारपूर्ण व देश के लोकतांत्रिक मूल्यों व संस्थाओं को चुनौती देने वाले शासन का चिरा$ग अब टिमटिमाता दिखाई दे रहा है। उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्य जो सत्ताधारियों की मंशा के अनुसार 'कांग्रेस मुक्त' हो चुके थे एक बार फिर 'कांग्रेस युक्त' हो गए हैं। देश को विपक्षहीन करने की खतरनाक साजि़श को पलीता लग चुका है। पप्पू के नाम से बदनाम किए जाने वाले राहुल गांधी ने अपना दमखम कुछ इस अंदाज़ में दिखाना शुरु कर दिया है जैसाकि अब तक के किसी भी कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रदर्शित नहीं किया। प्रधानमंत्री को सीधे तौर पर खुले शब्दों में चुनौती देने व उन्हें उलझा कर रखने की हि मत राहुल गांधी ने दिखा दी है। स्वयं उनके अपने गृह राज्य गुजरात में पुन: सत्ता पाने के लिए इन्हें अपनी न सिर्फ पूरी ताकत झोंकनी पड़ी बल्कि हर प्रकार के हथकंडे भी अपनाने पड़े। इसके बावजूद भाजपा अपने विधायकों की सं या 100 तक भी नहीं पहुंचा सकी। गुजरात के चुनाव परिणामों से ही पता चल गया था कि मोदी-शाह की विभाजनकारी राजनीति का चिराग अब बुझने वाला है। और आखिरकार राजस्थान, छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में वैसा ही हुआ।
 अभी भारतवर्ष पुन: 'कांग्रेसयुक्त' होने की राह में अपने कदम आगे बढ़ा ही रहा था कि अचानक पिछले दिनों राजीव गांधी की पुत्री प्रियंका गांधी का राजनीति में अधिकृत रूप से पदार्पण हो गया। हालांकि प्रियंका गांधी बचपन से ही अपने माता-पिता व दादी स्वर्गीय इंदिरा गांधी के साथ अक्सर इलाहाबाद, लखनऊ, रायबरेली व अमेठी आदि स्थानों पर आती-जाती रही हैं। कहा जा सकता है कि उनका चेहरा व उनकी आवाज़ व सानिध्य देश के लोगों खासतौर पर उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए कोई नई बात नहीं है। प्रियंका गांधी तो अपनी मां सोनिया गांधी व भाई राहुल गांधी के संसदीय क्षेत्राों में इनके समर्थन में जनसभाएं भी करती रही हैं। मगर उनके पूर्व के दौरे व सभाएं एक गैर राजनैतिक प्रियंका के रूप में हुआ करते थे। वे केवल एक बेटी या बहन के रूप में अमेठी व रायबरेली जाया करती थीं। परंतु गत् दिनों राहुल गांधी ने प्रियंका को बाकायदा अपनी टीम में शामिल कर  व अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की जि़ मेदारी भी उन्हें सौंप दी। गत् 11 फरवरी को प्रियंका गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी व अपने एक और सहयोगी कांग्रेस महासचिव ज्योर्तिआदित्य सिंधिया के साथ उत्तर प्रदेश के कांग्रेस कार्यालय में पहुंच कर अपना काम-काज संभाल लिया। मीडिया के माध्यम से देश ने भी देखा कि किस प्रकार लाखों लोगों का हुजूम लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे से लेकर कांग्रेस कार्यालय के लगभग 14 किलोमीटर लंबे मार्ग में प्रियंका गांधी के स्वागत हेतु पलकें बिछाए खड़ा था।
    प्रियंका के राजनीति में आते ही कांग्रेस विरोध की राजनीति करने वाले नेताओं के चेहरे पीले पड़ने शुरु हो गए हैं। उनके चेहरों पर हवाईयां उड़ने लगी हैं। अपना आपा खोकर चंद कुत्सित मानसिकता रखने वाले लोग प्रियंका की सुंदरता व उनके आकर्षण को लेकर अपने 'संस्कार' के अनुरूप उनपर गंदी व भद्दी टिप्पणीयां कर रहे हैं। स्वयं परिवारवाद के चंगुल में फंसे हुए कांग्रेस विरोधी नेताओं को प्रियंका गांधी के राजनीति में पदापर्ण में भी परिवारवाद ही दिखाई दे रहा है। जो भाजपाई समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी द्वारा कांग्रेस को दरकिनार कर किए गए गठबंधन को लेकर कांग्रेस को आईना दिखाते फिर रहे थे वही लोग प्रियंका गांधी के उत्तर प्रदेश में सीधे राजनैतिक दखल देने की खबरों से बौखला उठे हैं। विपक्षी या कांग्रेस को अपनी सत्ता के लिए सबसे बड़ा खतरा मानने वाले राजनैतिक दल भले ही प्रियंका गांधी को कितने ही अपशब्द क्यों न कहें या उनपर कैसी ही टिप्पणीयां क्यां न करें परंतु गांधी-नेहरू परिवार की धर्मनिरपेक्ष नीतियों पर आस्था रखने वाला देश का एक बड़ा वर्ग प्रियंका गांधी में उस इंदिरा गांधी की छवि देख रहा है जिस इंदिरा गांधी को भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में 'दुर्गा' की संज्ञा दी थी।
वैसे भी राजनीति के वर्तमान दौर में जिस प्रकार की गंदी, ओछी, सांप्रदायिकता से परिपूर्ण, नफरत के बीज बोने वाली भाषाओं का इस्तेमाल किया जाता है और राजनीति के चेहरे को कलंकित व कुरूपित किया जा रहा है ऐसे दौर में प्रियंका गांधी का राजनीति में पदार्पण करना भी भारतीय राजनीति के लिए एक सुखद आभास कहा जा सकता है। वैसे भी प्रियंका गांधी के राजनीति में आने से पूर्व रायबरेली में दिए गए उनके भाषणों के अंशों को यदि आप देखें तो प्रियंका का भाषण निश्चित रूप से द्वेष या वैमनस्य पर आधारित होने के बजाए इंसानियत, भाईचारा व सद्भाव को प्रोत्साहन देने वाला भाषणा होता है। उनके भाषण में देश के संवैधानिक व लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने व उसकी रक्षा करने की आकांक्षा नज़र आती है। वे राजनीति को शासक या शासन की नज़रों से देखने के बजाए सेवा तथा कर्तव्य के नज़रिए से देखती हैं। उनकी आवाज़ व उनका अंदाज़ स्वयं अपने-आप में इस बात की दलील पेश करता है कि वे पंडित मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी-फिरोज़ गांधी तथा राजीव गांधी की मज़बूत व स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश को प्रगतिशील बनाने वाली विरासत का ही प्रतिनितिधत्व कर रही हैं।
 राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य के माध्यम से प्रियंका गांधी को राजनैतिक मैदान में उतारने का जो निर्णय लिया है वह निश्चित रूप से अत्यंत समझ-बूझ कर व ठीक समय पर लिया गया निर्णय है। जुमलेबाज़ी, झूठे वादों व आश्वासनों की राजनीति के इस दौर में आज देश को एक बार फिर ऐसे नेताओं व नेतृत्व की ज़रूरत है जो देश की सीमाओं की मज़बूती से रक्षा कर सकें, देश के किसानों को आत्महत्या करने से बचा सकें तथा उन्हें उनकी फसल का मुनाफा सहित मूल्य दिला सकें। देश के युवाओं में रोज़गार की उ मीदें पैदा कर सकें। मंहगाई पर लगाम लगा सकें। शिक्षा व स्वास्थय व्यवस्था देश के सभी लोगों के लिए एक समान हो सके। देश को धर्मों व जातियों के नाम से बांटने वालों पर नियंत्रण किया जा सके तथा देश के उत्पादन वृद्धि की दर बढ़ सके। ऐसे में प्रियंका गांधी का राजनीति में पदार्पण जहां 'कांग्रेस मुक्त भारत' का सपना देखने वालों की नींद उड़ाता है वहीं प्रियंका की राष्ट्रव्यापी लोकप्रियता देश के लोगों में एक बार फिर 'कांग्रेस युक्त भारत' की आस पैदा करती है।

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