History Public Relationsजनसंपर्क का इतिहास
जनसंपर्क प्रक्रिया मानव-समाज निर्माण के साथ
ही प्रराम्भ हुआ है तब जनसंपर्क का स्वरूप भले ही दूसरे रूप में था किन्तु प्राचीन
काल से ही मानव अपने समाज में जनता को जानकारी देने और उसके अनुसार कार्य करने के
लिए प्रेरित हुआ करते थे। पहले सूचनाओं का प्रसारण और प्रतिक्रिया की प्राप्ति ही
मुख्य उद्देश्य के रूप में दिखाई पड़ता था, साथ ही मानव समाज में व्यावहारिक कार्य की तरह
लोगों के कार्य व्यवहार को प्रभावित करने व एक विशेष दिशा में उन्हे प्रेरित करने
के लिए लोगों से मिलने-जुलने का सिलसिला चलता रहता था। समय और साधन में परिवर्तन
के कारण जनसंपर्क स्वरूप और उद्देश्य में भी परिवर्तन एवं विकास के लक्षण दिखाई
देने लगे है। जो पहले के समय में सरल सहज,आत्मीय संवाद के द्वारा सीमित क्षेत्रों में
विचारों के सम्प्रेषण एवं उसी सहज रूप में प्रतिक्रिया प्राप्ति के रूप में संभव
हो जाती थी।
विश्व परिदृश्य में जनसंपर्क का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
विश्व स्तर पर जनसंपर्क का वृहत स्वरूप वर्तमान
में जिस प्रकार प्रस्तुत है उसके पीछे जनसंपर्क का एक लम्बा इतिहास है। जनसंपर्क
के संगठनात्मक और संरचनात्मक स्वरूप में समय स्थान एवं समाज के हिसाब से हमेशा
परिवर्तनीय रहा है। जनसंचार के माध्यमों के विकास के साथ-साथ जनसंपर्क के स्वरूप
में विकास संभव हो पाया है। विश्व परिदृश्य में जनसंपर्क की शुरुआत ईसा से हजारों
वर्ष पूर्व हुई थी। ई.पू. 3500 के आसपास लिपि का आविष्कार हुआ। मुद्रण कला के
आविष्कार के बाद पुस्तके इस कार्य में अत्यंत ही सहायक सिद्ध हुई। लिपि के
आविष्कार ने मनुष्य को जन-जन से जुड़ने का संपर्क सूत्र दिया। विश्व सभ्यता के
शुरुआती समय में वार्तालाप राजदूतों प्रचारकों के साथ-साथ ताम्रपत्र, पिरामिड, शिलालेख, चित्रकला, प्रतिक चिन्हों, जुलूसों, पदयात्राओं ने जनसंपर्क में सहायता की।
पुनर्जागरण आंदोलन में जनसंपर्क के क्षेत्र का विस्तार हुआ क्योंकि जन-समुदाय को
मनचाही दिशा में प्रेरित करने का भरपूर प्रयास किया।
सबसे पहले जनसंपर्क मनुष्य के आमने-सामने होता
था, पश्चिमी
देशों में मुद्रण कला के विकास के साथ पुनर्जागरण की स्थिति आई और जनसंपर्क अभियान
के कारण जनता के जन-जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। जनसंपर्क पर पाश्चात्य
विद्वानों के अनुसार पुराने जमाने में असीरिया बेबीलोन और सुमेरिया देशों में राजा
अपनी स्वेच्छाचारिता के चर्चित थे अपनी प्रतिष्ठा और प्रचार हेतु व साहित्य का
निर्माण करवाते तथा कला समग्रियाँ बनवाते थे। विश्व स्तर पर जनसम्पर्क का
प्रारंभिक सूत्र ई.पू. 1500 में इराक में किसानों को खेती-बाड़ी विषयक
सूचना देने में मिलता है। मध्यकाल जनजागरण का युग माना जाता। जनसंपर्क द्वारा
सदियों से प्रचलित रूढी-परंपराओं और अंधविश्वासों से जनता को सावधान करने का
प्रवृति पनपी। यह समय जनसंपर्क प्रणालियों एवं अभियानों की स्थापना का काल रहा
हैं। इसी समय रोम का चर्च राजनीतिक निर्देशन का केंद्र बना और मार्टिन लूथर ने पोप
के विरुद्ध विद्रोह का झण्डा उठाकर धर्म-सुधार अभियान का कार्य किया।
मुद्रण में मशीनें आ जाने के कारण छपाई के
माध्यम से जनसंपर्क कार्य को तेज गति मिली। इतिहास में उपलब्ध जानकारी के अनुसार
इंग्लैंड के कवि (1608-1674) जॉन मिल्टन ने प्रेस कि स्वतन्त्रता का प्रश्न
बड़े ज़ोर-शोर से उठाया। सन् 1640 से लेकर राजतंत्र-प्रत्यावर्तन तक अर्थात लगभग
1960 तक
इंग्लैंड में तीस हजार के लगभग समाचार-पत्र और पुस्तिकाएँ प्रचारार्थ वितरित की
गईं। इन पुस्तिकाओं में महत्वपूर्ण सूचनाओं के समावेश के साथ-साथ प्रचारार्थ
सामाग्री का संचयन होता था। समाचार-पत्रों में सूचनाओं, समाचारों और प्रचार सामाग्री का संचयन
होता था। समाचार-पत्रों में सूचनाओं, समाचारों और प्रचार सामग्री के साथ-साथ
व्यवसायिक समाचारों को भी जगह मिलने लगी। यूरोप का पहला अखबार जर्मनी में
फ्रेंकफर्ट नगर में सन् 1651 में प्रकाशित हुआ।
इस
तरह पुनर्जागरण काल के दौरान जनमत की शक्ति सिद्ध हो गई। उसके बाद के कुछ वर्षों
में जनसंपर्क की कार्य-पध्दतियों और उसके कार्यक्षेत्र को पर्याप्त विस्तार मिला।
अपनी पुस्तक ‘जनसम्पर्क
प्रशासन’ में
लालचंद लिखते हैं- ‘पुनर्जागरण
आंदोलन काल में अनेक नूतन देशों की खोज हुई। फलस्वरूप अनेक उपनिवेश स्थापित हुए
तथा वाणिज्य एवं व्यापार में अभूतपूर्व वृद्धि हुई, फलतः जनसम्पर्क के कार्यक्षेत्र का
विस्तार हुआ। इसी काल में ‘राष्ट्रीय राज्यों’ की स्थापना हुई और निरंकुश शासन के
विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ हुआ, जिसमें अंततः जनमत की विजय हुई। सन् 1689 में ब्रिटानिया में अधिकार पत्र (बिल
ऑफ राइट्स) पारित हुआ, जिसमें
जन प्रतिनिधित्व पर आधारित संसद् की सर्वोच्चता स्वीकार की गई। इस घटनाक्रम में
जनमत को अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, वैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसके फलस्वरूप
विश्व के अन्य देशों में भी जनमत का ज्वार उठा। सन् 1900 तक विश्व के लगभग सभी देशों में यह
तथ्य मान्य हो चुका था कि किसी भी योजना अथवा कार्य कि सफलता हेतु जन-समर्थन
जुटाना आवश्यक है तथा जिसे प्रभावित करने के लिए व्यवस्थित रूप से संगठित्र व
अनवरत प्रयास करना आवश्यक हैं।
बीसवीं
शताब्दी की शुरुआत में जनसंपर्क को सैध्दांतिक स्वरूप मिला और जनसंपर्क के वर्तमान
स्वरूप की नींव भी अमेरिका में इसी समय राखी गई। जनसंपर्क को व्यवहारिक और
सैद्धांतिक जामा पहनाया गया तथा विश्व स्तर पर जनसंपर्क को प्रशासनिक विज्ञान की
एक महत्वपूर्ण शाखा के रूप में स्वीकार किया गया। इस शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों
में जनसंचार के विकसित होते नए साधनों –टेलीविज़न और रेडियो के विकास ने जनसंपर्क को एक
नया स्वरूप दिया। एक तरफ प्रचार और प्रोपेगेंडा के तहत जनता के सामने वास्तविकता
को ढककर स्वपक्ष में झूठी-सच्ची कहानियों के प्रचार के रूप में जनसंपर्क आगे बढ़ा
तो दूसरी तरफ तथ्यात्मक प्रचार को भी प्राथमिकता मिली।
सन्
1903
में अमेरिका के आई. वी. ली. नामक व्यक्ति को आधुनिक जनसंपर्क का जनक माना गया है।
ली प्रेस एजेंट के रूप में कार्य करते-करते जॉन डी. राकफेलर का सलाहकार नियुक्त
हो गया। उसे जनसंपर्क अधिकारी का पद भी मिला। ली ने सन् 1919 में ‘जनसम्पर्क’ शब्द का प्रयोग करते हुए जनसंपर्क की
संभावनाओं और माध्यमों को सामने रखा। इसके पहले 1903 में ‘पार्कर एंड ली कं .’ जो कि अपने व्यापारिक हितों के लिए
जनमत को अनुकूल बनाने के लिए स्थापित कि गई थी, उसके द्वारा अपने जनसंपर्क अभियान में
जनसंपर्क शब्द का प्रयोग हो चुका था।
प्रथम
विश्वयुद्ध (1914-1918) के
दौरान जनसंपर्क को नए आयाम मिले। कहा जाता है कि प्रथम विश्वयुद्ध सैन्य शक्ति से
कम, प्रचार
व प्रोपेगेंडा के बल पर अधिक लड़ा गया। राजकीय स्तर पर जनसंपर्क पर ध्यान की शुरुआत
इस विश्वयुद्ध से हुई। एडवर्ड एल. बर्नेस के अनुसार- राजकीय स्तर पर जनसंपर्क के
संचालन का श्रीगणेश संयुक्त राज्य अमेरिका में 6 अप्रैल, 1917 को ‘द कमेटी ऑन पब्लिक रिलेशन’ की स्थापना से हुआ। इसका गठन संयुक्त
राज्य अमेरिका के प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने के एक सप्ताह बाद हो गया था।
राष्ट्रपति विल्सन ने इस कमेटी का गठन पत्रकार जॉन क्रील की अध्यक्षता में अपनी
सरकारी योजनाओं, कार्यों
और नीतियों को सुविचारित ढंग से प्रचारित-प्रसारित करने लिए किया था। इस कमेटी ने
जनसंपर्क के साधनों को विस्तार देते हुए प्रथम विश्वयुद्ध के संबंध में अमेरिका के
दृष्टिकोण से अन्य राष्ट्रों को परिचित कराया। सरकारी प्रचार के इस प्रयास ने
जनसंपर्क में मत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वयं एडवर्ड एल. बर्नेस इस कमेटी के एक
सम्मानित सदस्य थे। बाद में उन्होंने जनसंपर्क के स्वरूप और उसके विभिन्न आयामों
तथा उसके महत्व को रेखांकित करते हुए 'पब्लिक ओपिनियन' तथा 'क्रिस्टलाइजिंग पब्लिक ओपिनियन'
जैसी पुस्तके
लिखीं, जो
प्रकाशित होते हि लोकप्रिय हो गईं।
सरकारी
स्तर पर जनसंपर्क अधिकरणों के प्रयोग केवल अमेरिका में शुरू नहीं हुए, बल्कि अन्य देशों ने भी इस दिशा में
कदम उठाए। ब्रिटेन में राजकीय स्तर पर जनसंपर्क के कार्यों को व्यापक बनाने के लिए
सन् 1911
में 'नेशनल
इंश्योरेंस एक्ट' पारित
हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध के समय जनसंपर्क कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए
ब्रिटेन में जनसंपर्क विभाग खोला गया। ब्रिटेन में जनसंपर्क का काम तीन विभागों के
अंतर्गत किया गया। सूचना मंत्रालय के अधीन देश, सम्मिलित देश और तटस्थ देशों में
प्रचार-प्रसार कार्य का दायित्व संभाला। 'नेशनल बार कमेटी' ने ब्रिटेन के लोगों में राष्ट्रियता
की भावना का संचार करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाया। नॉर्थ क्लिफ के
निर्देशन में कार्यरत तीसरा संगठन शत्रु देशों में प्रोपेगेंडा कराने की योजनाओं
के निर्माण और कार्यान्वयन में संलग्न था। सन् 1919 में हवाई सेना के मंत्रालय में प्रेस
अधिकारी की नियुक्ति की गई। स्वास्थ्य मंत्रालय के अंतर्गत सूचना विभाग खोला गया।
सन् 1920 में
ब्रिटिश लाइब्रेरी के इन्फोर्मेशन विभाग के खुलने पर जनसंपर्क कार्य के निष्पादन
में सहायता मिली। प्रेस को महत्वपूर्ण मानते हुए पेरिस, रॉम, बर्लिन, में 'प्रेस अटैची' नियुक्त किए गए। सन् 1932 में प्रधानमंत्री के कार्यालय में
मुख्य प्रेस अधिकारी नियुक्त किया गया। अमेरिका और ब्रिटेन के अलावा अन्य देशों
में राजकीय स्तर पर जनसंपर्क कार्यों को महत्व देते हुए जनसंपर्क कार्य के लिए
प्रशासनिक संगठनों का निर्माण किया जाने लगा।
प्रथम
विश्वयुद्ध के बाद (1917) की अक्तूबर क्रांति को व्यापक और कारगार बनाने
के लिए बोल्शेविकों ने प्रोपेगेंडा के विविध तरीके अपनाए। इस तरह कम्युनिस्ट
प्रोपेगेंडा के तहत श्रमिकों में क्रांतिकारी जोश लाने के लिए पुस्तिकाएँ और
समाचार-पत्र बाँटे जाते थे। प्रोपेगेंडा करनेवाले स्वयं सार्वजनिक स्थलों पर जाकर
प्रोपेगेंडा के जरिए श्रमिकों को आंदोलित कर अपने उद्देश्य
द्वितीय
विश्वयुद्ध (1939-1945) के
दौरान जनसंपर्क ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अमेरिका ने ‘ऑफिस ऑफ वॉर इन्फोर्मशन’ कि स्थापना कर युद्ध संबंधी जानकारियाँ
देने, सेना
से जुड़ने और जोड़ने का रास्ता निकाला। द्वितीय विश्व युद्ध के पाश्चात् अमेरिका का
प्राथमिक लक्ष्य था युद्ध में बरबाद हुये देशों कि आर्थिक स्थिति को सुधारना।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विनिमय और व्यापारिक सम्बन्धों को मजबूत करना। अतः आर्थिक
पुनर्निर्माण और व्यापारिक बाधाओं को दूर करने के लिए जनमत कि शक्ति का साथ होना
जरूरी था। आर्थिक सुदृढीकरण के लिए किए जानेवाले प्रयासों एवं नीति के
प्रचार-प्रसार ने जनसंपर्क में प्रभावी भूमिका निभाई। स्वतंत्र देशों में अमेरिका
कि आर्थिक और विदेश नीतियों के प्रचार में जनसंपर्क के अभिकरणों का प्रयोग किया
गया।
द्वितीय
विश्वयुद्ध के पाश्चात् अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनसंपर्क का व्यवासायिक रूप उभरा।
व्यापारिक और औद्योगिक क्षेत्रों में जनसंपर्क कि आधुनिक तकनीकों का प्रयोग किया
जाने लगा। इन क्षेत्रों में विज्ञापन और विज्ञापन एजेंसियों से भरपूर सहयोग लिया
जाने लगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनसंपर्क को विकासमूलक व्यवस्था का महत्वपूर्ण
साधन बनाने के लिए सरकारी स्तर पर विभिन्न प्रयास हुये। सन् 1955 में अंतरराष्ट्रीय जनसंपर्क संघ की
स्थापना हुई। जून 1958
में ब्रूसेल्स में प्रथम विश्व जनसंपर्क कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जिसमें दुनिया के विभिन्न देशों ने भाग
लिया। विभिन्न क्षेत्रों में विकास की गति बढ़ाने के लिए विश्व के अन्य देशों में
भी जनसंपर्क कला को विकसित किया गया। कई देशों में जनसंपर्कके व्यवसाय को सरकारी
मान्यता मिली, जनसंपर्क
संस्थान खोले गए, उसके
नियम-कानून भी बने गए। आज सभी विकसित और विकासशील देशों में सरकारी और गैर-सरकारी
स्तर पर जनसंपर्क संस्थान प्रतिष्ठित हो रहे हैं। लगभग सभी मंत्रालय और सरकारी
कार्यालयों में अलग से जनसंपर्क विभाग की व्यवस्था की जाती है। व्यावसायिक स्तर पर
अनेक जनसंपर्क एजेंसियाँ भी सरकारी और गेर-सरकारी कार्यालयों के जनसंपर्क अभियान
में सहयोग दे रही है।
भारतीय परिवेश में जनसंपर्क का एतिहासिक परीप्रेक्ष्य
भारतीय
परिवेश में जनसंपर्क की विकास यात्रा प्राचीन काल से ही लोकमत के प्रभाव को माना
जाता था प्राचीन काल में भारत में मनुष्य पूर्ण सभ्य नहीं थे। धीरे-धीरे प्राचीन
मानव जाति ने समूहिक रूप में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक अपना विस्तार किया।
मनुष्य नगर सभ्यता को विकसित किया। मनुष्य नगर नगरीय सभ्यता में उपयोग की नई-नई
चीजों का निर्माण होने लगा। अन्न के बदले लोग अपने उपयोग की वस्तुएं खरीदने लगे इस
जन-समुदाय के बीच पनपने वाले आर्थिक संबंधो के लिए जनसंपर्क जरूरी हो गया।
पुरानों के आधार पर नारद को जनसंपर्क का
प्रवर्तक माना जा सकता है। वैदिक संस्कृति को प्रसार मिला। वैदिक काल में देवसुर
संग्राम में देवताओं का विजय प्रसंग, राजसूर्य यज्ञ संबंधी बातें, संदेशवाहक की भूमिका में नारद द्वारा
तीनों लोकों का भ्रमण जैसी बातें प्रागैतिहासिक-कालीन भारत में लोकमत के निर्माण
में बड़ी महत्वपूर्ण सिध्द हुई।
पौराणिक युग में चक्रवर्ती सम्राट सागर के
पुत्र असमंजस को युवराज पद के समय प्रजा पर अत्याचार किए जाने के कारण राज्य से
बहिष्कृत होना पड़ा और सागर के पौत्र (असमंजस का पुत्र ) अंशुमान का राज्यारोहण
किया गया। रामायण काल में राम का राज्याभिषेक करने से पूर्व महाराज दशरथ ने
आमंत्रित जनों से पूर्व अनुमति प्राप्त की थी। महाभारत काल में प्रजा को अपने पक्ष
में समर्थन देने के तरीके और इसके लाभ हानि की जानकारी विद्वानों द्वारा युवराजों
एवं राजाओं को दी जाती थी। बाद में राजाओं ने वेश बदलकर अपने राज्यों की जनता की
प्रतिक्रिया, जानने
के लिए नगरों का भ्रमण करने लगे एवं विपरीत प्रतिक्रिया के आभास होने पर जनमत को
अपने पक्ष में लेने के लिए उनके अनुसार निर्णय देते थे।
सिंधु सभ्यता के अवशेषों से मिली जानकारी बताती
है कि सिंधु घाटी के लोग पढ़ना- लिखना जानते थे सिंधु लिपि का रहस्य एवं सकेंत भले
ही असपष्ट है पर अनुमानतः कहा जा सकता है कि सिंधु लिपि का प्रयोग जनमत को सूचना
देने जानकारी देने या विशेष उद्देश्य अथवा विशेष स्थितियों में उन्हें प्रेरित
करने के लिए किया जाता था।
बाद में, गौतम बुद्ध; महावीर के सिद्धांतों के प्रचार सम्राट
चन्द्रगुप्त के मंत्री चाणक्य के अर्थशास्त्र (321-297 ई. पू.) के अध्यन से पता चलता कि किस
प्रकार गुप्तचर राजा को प्रजा की प्रतिक्रिया बताते थे। अशोक महान ने युद्ध के
स्थान पर मानवता का प्रचार किया उसने प्रजा के लिए बनाई गई कल्याणकारी योजनाओं और
घोषणाओं को प्रचारित करने के लिए अभिलेख उत्कृण कराए उनके द्वारा लिखवाये गए
शिलालेख, ताम्रपत्र
लेख अभिलेखों की परम्परा निरंतर एवं बाद तक चलती रही।
अँग्रेजी
दासता से मुक्ति दिलाने, अँग्रेजी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने में
क्रांतिकारी साहित्य ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। क्रांतिकारी लेखकों में वीर
विनायक दामोदर सावरकर और लाला हरदयाल विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय हैं। सावरकरजी की
पुस्तक ‘1857 का
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम’ ने स्वधिनता आंदोलन के संघर्ष में कूदने का जोश
पैदा किया। लाला हरदयाल ने अमेरिका के सान फ्रांसिस्कों में क्रांतिकारी संस्था ‘गदर पार्टी’ की ओर से 1914 में एक साप्ताहिक पत्र ‘गदर’ का प्रकाशन शुरू किया गया। इसके
प्रकाशन ने यह सिद्ध कर दिया कि विदेशों में रह रहे भारतियों ने भी
स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए किस तरह जनसम्पर्क कर जन-जागरण अभियान में हिस्सा
लिया। यह समाचार-पत्र छह भाषाओं – हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, बंगाली तथा फारसी– में एक साथ प्रकाशित होती था और इसकी
प्रसार संख्या दस लाख के आस-पास पहुँच गई थी। अँग्रेजी सरकार ने इस पर प्रतिबंध
लगा दिया। अखबार को कई देशों के रास्ते से अनेक बाधाओं को पार करते हुये भारत
पहुंचाया जाता था। इस तरह क्रांतिकारी साहित्य ने राजनीतिक और सामाजिक जागरण के
द्वारा समग्र देश को आंदोलित किया।
स्वाधिनता
आंदोलन के कारण जनता को आंदोलित करने में ध्वज, नारो और सत्याग्रह के दौरान होने वाले
प्रदर्शनों, जुलूसों
आदि ने भी जनसंपर्क के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम किया। गांवों और शहरों की
गलियों में गूँजने वाले ‘वंदे मातरम’, ‘भारत माता की जय’ तथा, ‘इंकलाब जिंदाबाद’ नारों ने अँग्रेजी सरकार की दमनात्मक
प्रवृतियों के लिए भारतियों को एकजुट करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। जुलूस और
प्रदर्शनों के माध्यम से राष्ट्रियता, राष्ट्रीय एकता, शिक्षा और चेतना का प्रचार-प्रसार
किया।
सामाजिक
और धार्मिक संस्थाओं ने भी जनसम्पर्क के माध्यम से स्वधिनता आन्दोलन और सामाजिक
सुधारों की दिशा में महत्वपूर्ण काम किये। राजाराम मोहन राय ने ‘ब्रम्हसमाज’ जैसी संस्थाओं के माध्यम से महत्वपूर्ण
काम किये। ए. आर. देसाई ने अपनी पुस्तक ‘सोशल बैकग्राउंड ऑफ इंडियन नेशनलिज़्म’ में लिखा है कि ‘धार्मिक एवं सामाजिक सुधारों के
साथ-साथ वैयक्तिक स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय एकता के नए द्वार उन्मुक्त हुए।’
गांधीजी
के राजनीतिक कार्यक्रमों की सफलता का रहस्य उनके जनसंपर्क क्षेत्र का व्यापक होना
है। जगह-जगह दिए जानेवाले गांधीजी के भाषणों, चंपारण तथा खेड़ा जैसे सत्याग्रहों के
व्यापक असर के साथ-साथ ‘हरिजन’,
‘यंग इंडिया’
व ‘इंडियन ओपिनियन’ जैसे पत्रों ने द्विपक्षीय संप्रेषण का
आधार तैयार कर जनमत निर्माण की दिशा में सक्रियता दिखाई। गणेशशंकर विद्यार्थी व
बाबुराव विष्णु पराड़कर ने ‘प्रताप’ और ‘आज’ के माध्यम से जनांदोलन को गति दी। 5 सितंबर, 1920 को शुरू हुए ‘आज’ के प्रथम अंक की संपादकीय टिप्पणी में
पराड़करजी ने लिखा- ‘हमारा
उद्देश्य अपने देश के लिए सब प्रकार से स्वतन्त्रता का उपार्जन है। हम हर बात में
स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश का गौरव बढ़ाएँ और अपने
देशवासियों में स्वाभिमान का प्रचार करें। उनको ऐसा बनाएँ कि भारतीय होने का
उन्हें गर्व हो, संकोच
न हो’।
स्वधिनता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारी जन उभार में ‘सरस्वती’, ‘चाँद’, ‘प्रताप’, ‘केसरी’, ‘अभ्युदय’, ‘प्रदीप’, ‘जागरण’, ‘संघर्ष’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का ऐतिहासिक अवदान
रहा।
स्वाधिनता
आंदोलन के दौरान जनमत तैयार करने में तत्कालीन साहित्य ने अहम भूमिका निभाई।
साहित्य में स्वदेशी जागरण, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, खड़ी देशभक्ति तथा राष्ट्रीय चेतना का
स्वर मुखरित हुआ। इसने जन-जन को आंदोलित कर राजनीतिक आंदोलन को तीव्र किया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र, बालमुकुंद
गुप्त, माखनलाल
चतुर्वेदी,बालकृष्ण
शर्मा ‘नवीन’,
सुभद्रा कुमारी
चौहान, रामधारी
सिंह ‘दिनकर’
आदि की कविताएँ
लोगों की जुबान पर थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान की झाँसी की रानी कविता की
पंक्तियाँ-सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी
थी, गुमि
हुई आजादी की कीमत सबसे पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,...........
बुंदेले हर
बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसीवाली रानी थी’। जनमानस में संघर्ष, बाली दान एवं राष्ट्रीय चेतना का मंत्र
फुक रही थीं माखनलाल चतुर्वेदी के ‘पुष्प की अभिलाषा’ तथा सोहनलाल द्विवेदी के ‘खाड़ी गीत’ ने भी भारतीय जनमानस में आजादी का जोश
भरा। इसके अतिरिक्त उर्दू के प्रसिद्ध कवि और शायरों ने भी नौजवानों की धमनियों
में जोश का संचार किया। सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में हैं, देखना है ज़ोर कितना बाजुए कातिल में है’। इस गीत ने तो आजादी के तरानों में
अपनी अद्भूत मिसाल कायम की। इसी तरह क्रांतीकारी अमर शहीद अशफाक़ उल्ला खाँ का
आह्वान शीर्षक गीत ‘कस
ली है कमर अब तो कुछ करके दिखाएंगे, आजादी ही हम लेंगे या ही कटा देंगे’। कुंवर प्रताप चंद्र आजाद का- ‘बाँध ले बिस्तर फिरंगी’, इकबाल का-‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तान हमारा’
तथा ‘मेरा वतन’ जैसे गीतों ने देश भर में नौजवानों में
फाँसी के तख्ते पर झूल जाने का जज्बा पेदा किया।
ब्रिटिश
सरकार ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध संबंधी प्रचार-प्रसार के लिए सेंट्रल
पब्लिसिटी बोर्ड की स्थापना की थी। शासकीय, प्रशासनिक और व्यवासायिक संगठन से
संबन्धित उद्देश्यों के लिए जनमत तैयार करने के लिए जनसंपर्क अभियान की शुरुआत
वस्तुतः 1912
में हुई। ब्रिटिश सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान प्रचार और प्रोपेगेंडा के
लिए संपादकों की सेवाएँ लीं। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के संपादक स्टेनले रीड को शिमला स्थित ‘पब्लिसिटी ब्यूरो’ का प्रमुख बनाया गया,इस ब्यूरो ने प्रेस और सरकार के बीच
कड़ी का काम किया। प्रेस परीक्षण के साथ जनता की रुचियों, उनके संतुष्ट-असंतुष्ट रुख की जानकारी
भी उपलब्ध कराई।
युद्ध
के पश्चात सेंट्रल पब्लिसिटी बोर्ड का काम काज सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्फोर्मेशन
(केंद्रीय सूचना ब्यूरो ) ने संभाला। सन् 1927 में भारत ने इंडियन ब्रॉडकास्टिंग
कंपनी ली. के द्वारा रेडियो का आगमन हुआ। 1930 में यह कंपनी सरकार के अधीन हो गई और
इसका नाम ‘इंडियन
ब्रॉडकास्टिंग सर्विस’ (आई.
एस. बी. एस.) रखा। 8
जून, 1938 से
इसे ‘ऑल
इंडिया रेडियो’ के
रूप में जाना गया। विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर ‘ब्यूरो ऑफ इन्फोर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग’
का गठन किया
गया। प्रशासकीय दृष्टि से ‘ब्यूरो ऑफ इन्फोर्मेशन’ गृह मंत्रालय के अधीनस्थ रहा और ‘ऑल इंडिया रेडियो’ संचार विभाग के अधीन।
आजाद
भारत में लोकतान्त्रिक सरकार के अंतर्गत मिनिस्टरी ऑफ इन्फोर्मेशन एंड
ब्रॉडकास्टिंग (सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ) ने जनसंपर्क कार्यक्रमों की कमान
संभाली। सरकारी स्तर पर जनसंपर्क का काम केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारों द्वारा
संपन्न किया जाता है। राज्य सरकारें ‘सूचना एवं जनसंपर्क निदेशालय’ के माध्यम से जनसंपर्क अभियान चलाती
हैं।
व्यावसायिक
स्तर पर भारत में जनसंपर्क कार्यक्रमों की शुरुआत सन् 1912 में ही हो गई थी। आधुनिक तकनीकों के
जरिए आजादी के बाद जनसंपर्क के क्षेत्र में व्यावसायिक स्तर पर बड़ा बदलाव आया।
विज्ञापन एजेंसियाँ खुलने लगीं। इनके माध्यम से उपभोक्ता वस्तुओं का प्रचार-प्रसार
किया जाने लगा। भारत में जनसंपर्क संस्थान की स्थापना हुई। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में भी इस तरह के कार्यालय खुल
गए। ‘टाटा’
द्वारा जनसंपर्क
अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए विशेष प्रयास किए गए। सन् 1968 में प्रथम अखिल भारतीय जनसंपर्क
कार्यक्रम दिल्ली में आयोजित किया गया, जिसमें जनसंपर्क को व्यावसायिक स्वरूप दिये
जाने के संबंध में विचार-विनिमय हुआ। इस व्यवसाय के रजिस्ट्रेशन और प्रशिक्षण की
बात भी उठाई गई।
आजादी
के बाद भारत सरकार ने भी जनसंपर्क क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की आवश्यकता को
महसूस किया, अतः
देश के विकास के लिए जनसंचार के संसाधनो के प्रभावी और कुशल उपयोग के तौर-तरीकों
और प्रणाली को विकसित करने के लिए 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के एक
विभाग के रूप में भारतीय जनसंचार संस्थान का गठन किया गया। इस संस्थान की रूप-रेखा
अंतरराष्ट्रीय ख्याति के जनसंचार विशेषज्ञों के एक दल ने तैयार की, जिसमें यूनेस्को और भारतीय जनसंचार
माध्यम के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। बाद में 22 जनवरी, 1966 को समिति पंजीकरण अधिनियम के अंतर्गत
इसे स्वायत्त संगठन के रूप में पंजीकरण किया गया।
आज
देश में निजी स्तर पर जनसंपर्क प्रशिक्षण के लिए कई संगठन खुल गए हैं तथा कई ऐसी
निजी व्यावसायिक कंपनियाँ भी खुल गई हैं जो कार्य
विशेष के लिए जनसंपर्क प्रबंधन का दायित्व संभालती हैं। आज देश के व्यापक
फ़लक पर राजनीतिक, आर्थिक
और सामाजिक क्षेत्रों से संबन्धित संगठन व संस्थान जनसंपर्क की आवश्यकता से
भलीभाँति परिचित हैं। सरकारी और गैर-सरकारी कार्यालयों में आज जनसंपर्क प्रबंधन के
लिए अलग से जनसंपर्क विभाग की व्यवस्था की जाती राजनीतिक दल भी अलग से अपना
जनसंपर्क विभाग स्थापित करते हैं। ऐसे निजी संगठन/संस्थान और कंपनियाँ, जिनके के पास अपना जनसंपर्क विभाग नहीं
है, वे
अपने प्रचार-प्रसार के लिए जनसंपर्क प्रबंधन हेतु व्यवासायिक जनसंपर्क कंपनियों की
शरण लेते हैं।
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