जनमाध्यम ब्यूरो
आपको याद है देश के पीएम, सर्जिकल स्ट्राइक पर किस तरह क्रेडिट लेऊ इंटरव्यू दे रहे थे? मानों वहीं बुलेट प्रूफ जैकेट पहनकर किसी स्नाइपर की तरह चुपके से सब फतह कर आये हों पर आज? सेना वेना तो सिर्फ मरने के लिए है। हमारे गाँव के लोगों को बिल्कुल खबर नहीं कि सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए। हमारे गाँव से बहुत से लड़के सेना, पुलिस अर्धसैनिक बल कहीं भी सेट हो जाने की तैयारी करते हैं। दौड़ते हैं, वर्जिश करते हैं, पढ़ते हैं, ताकि एक अदद नौकरी मिल सके। घर मे बुनियादी सुविधाएं जुट सकें, मान-सम्मान बहाल हो सके।
जैश मुहम्मद कौन है मैं नहीं जानता। देश की कूटनीति क्या है, देश का नेतृत्व किसका है, मैं जानना चाहता हूँ, हिसाब लेना चाहता हूँ। देश के मसीहाओं के बयान पढ़ रहा हूँ। और कौड़ा ताप रहा हूँ। कौड़े की लपट इन चिकने और घाघ लोगों के मुँह में क्यों नहीं चली जाती है! कितनी सहूलियतें हैं इनके पास! मरतें हैं वे लड़के, जो भूख और गरीबी से लड़ते-लड़ते बॉर्डर पहुँच जाते हैं। उनकी मौतों पर हुंकारने व क्रेडिट लेने-देने का काम, लाखों रुपये प्रतिदिन की ऐयाश जिंदगी जीने वाले देश-मसीहा करते हैं। शौर्य और शर्म की अश्लील फंदेबाजी का दौर चलता है। और फिर टीवी चैनलों पर शहीद-विधवाओं का विलाप प्रसारित किया जाता है। बापों से कहलवाया जाता है कि "मुझे बेटे पर गर्व है।" इस तरह एक फूहड़ स्क्रिप्ट लिखकर उस पर मदारियों की तरह मोटगड़िये नेता और बादाम तेल पीने वाले, फ़िक्सर टीवी एंकर नाचते रहते हैं। उस स्क्रिप्ट में सिर्फ एक चीज उभर कर आती है, स्टेट का अश्लील ढाँचा, उस ढांचे में बिलबिलाते हुए आत्महीन कीड़े और गरीबी का भरसक मज़ाक। हरदम, हर कदम, आतंकवाद मार दिया जाता है और दशहरे के रावण की तरह यह फिर उग आता है। यह उगता नहीं है। यह हमेशा है और रहता है।
बस कुछ कामचलाऊ कोशिशों से यह देश और समाज चल रहा है और इसी तरह से और ज्यादा अश्लील होकर यहां की राजनीति भी। नोच घसोट में खुद को साबित करने की क्षमता हासिल कर लेना ही खुद को साबित कर लेना है।
ऐसे ही मेरे गाँवों से लोग सेना में जाते रहेंगे, और उनकी मौतों पर ढीठ नेताओं की रोटी चलती रहेगी। 40 जवान शहीद हो गए। मन दुखी है।
कुछ परेशान करने वाले सवाल है जो व्यथित किये हैं
बहुत कुछ जवाब देना पड़ेग सरकार को
भावनायों को उभारने से पहले हमें सोचना होगा कि भारत का सिपाही हो या पाकिस्तान का, ये ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों की अवाम के लिये तो इंसान हैं, मगर दोनों ही देशों के हुक्मरानों के लिये ये लोग इंसान नहीं बल्कि शतरंज की मेज पर रखा 'मोहरा' हैं जिसके द्वारा कभी भी देश की जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाकर इनकी तरफ ले जाया सकता है। और अपनी गंदगी पर देशभक्ती का लेप लगाकर जनता को परोसा जा सकता है।
कुछ भी लिखने से पहले साहिर को याद कर लीजिये -
""खून अपना हो या पराया हो नसल-ऐ-आदम का खून है आख़िर,
जंग मशरिक में हो या मगरिब में, अमन-ऐ-आलम का खून है आख़िर!
बम घरों पर गिरे के सरहद पर, रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है!
खेत अपने जले के औरों के, जीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है!
टैंक आगे बढे के पीछे हटे, कोख धरती की बाँझ होती है!
फतह का जश्न हो के हार का सोग, जिंदगी मय्यतों पे रोंती है!
जंग तो खुद ही एक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी?
आग और खून आज बख्शेगी भूख और एहतयाज कल देगी!
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों, जंग टलती रहे तो बेहतर है
आपके और हमारे आंगन में, शम्मा जलती रहे तो बेहतर है।"
आपको याद है देश के पीएम, सर्जिकल स्ट्राइक पर किस तरह क्रेडिट लेऊ इंटरव्यू दे रहे थे? मानों वहीं बुलेट प्रूफ जैकेट पहनकर किसी स्नाइपर की तरह चुपके से सब फतह कर आये हों पर आज? सेना वेना तो सिर्फ मरने के लिए है। हमारे गाँव के लोगों को बिल्कुल खबर नहीं कि सीआरपीएफ के जवान शहीद हुए। हमारे गाँव से बहुत से लड़के सेना, पुलिस अर्धसैनिक बल कहीं भी सेट हो जाने की तैयारी करते हैं। दौड़ते हैं, वर्जिश करते हैं, पढ़ते हैं, ताकि एक अदद नौकरी मिल सके। घर मे बुनियादी सुविधाएं जुट सकें, मान-सम्मान बहाल हो सके।
जैश मुहम्मद कौन है मैं नहीं जानता। देश की कूटनीति क्या है, देश का नेतृत्व किसका है, मैं जानना चाहता हूँ, हिसाब लेना चाहता हूँ। देश के मसीहाओं के बयान पढ़ रहा हूँ। और कौड़ा ताप रहा हूँ। कौड़े की लपट इन चिकने और घाघ लोगों के मुँह में क्यों नहीं चली जाती है! कितनी सहूलियतें हैं इनके पास! मरतें हैं वे लड़के, जो भूख और गरीबी से लड़ते-लड़ते बॉर्डर पहुँच जाते हैं। उनकी मौतों पर हुंकारने व क्रेडिट लेने-देने का काम, लाखों रुपये प्रतिदिन की ऐयाश जिंदगी जीने वाले देश-मसीहा करते हैं। शौर्य और शर्म की अश्लील फंदेबाजी का दौर चलता है। और फिर टीवी चैनलों पर शहीद-विधवाओं का विलाप प्रसारित किया जाता है। बापों से कहलवाया जाता है कि "मुझे बेटे पर गर्व है।" इस तरह एक फूहड़ स्क्रिप्ट लिखकर उस पर मदारियों की तरह मोटगड़िये नेता और बादाम तेल पीने वाले, फ़िक्सर टीवी एंकर नाचते रहते हैं। उस स्क्रिप्ट में सिर्फ एक चीज उभर कर आती है, स्टेट का अश्लील ढाँचा, उस ढांचे में बिलबिलाते हुए आत्महीन कीड़े और गरीबी का भरसक मज़ाक। हरदम, हर कदम, आतंकवाद मार दिया जाता है और दशहरे के रावण की तरह यह फिर उग आता है। यह उगता नहीं है। यह हमेशा है और रहता है।
बस कुछ कामचलाऊ कोशिशों से यह देश और समाज चल रहा है और इसी तरह से और ज्यादा अश्लील होकर यहां की राजनीति भी। नोच घसोट में खुद को साबित करने की क्षमता हासिल कर लेना ही खुद को साबित कर लेना है।
ऐसे ही मेरे गाँवों से लोग सेना में जाते रहेंगे, और उनकी मौतों पर ढीठ नेताओं की रोटी चलती रहेगी। 40 जवान शहीद हो गए। मन दुखी है।
कुछ परेशान करने वाले सवाल है जो व्यथित किये हैं
- • 350 किलो विस्फोटक कहाँ से आया?
- • एक 22 साल के आतंकवादी तक इतना बड़ा जखीरा कैसे पहुँचा?
- • खुफिया तंत्र क्या कर रहा था?
- • अगर पाकिस्तान से आया तो कैसे पुलवामा तक पहुंच गया?
- • गवर्नर रूल है कश्मीर में यानी केंद्र का शासन तो फिर खुफिया, लोकल पुलिस और अन्य एजेंसियों के फेल होने की जिम्मेदारी किसकी है?
- • विस्फोटक की इतनी बड़ी सप्लाई, तमाम बॉर्डर/ सिक्योरिटी चेक पॉइंट्स पार करके उस आत्मघाती तक पहुंच गई जो घटनास्थल से महज 10 किमी दूर रहता था?
- • एक कार में इतना विस्पोटक लादना, उसके फ्यूज जोड़ना, सब बड़ा टेक्निकल काम होता होगा अकेले उसके बस का रहा होगा?
- • इतनी बड़ी वारदात के लिए लंबे वक्त से तैयारी चल रही होगी फिर पता कैसे नहीं चलेगा?
बहुत कुछ जवाब देना पड़ेग सरकार को
भावनायों को उभारने से पहले हमें सोचना होगा कि भारत का सिपाही हो या पाकिस्तान का, ये ऐसे लोग हैं जो दोनों देशों की अवाम के लिये तो इंसान हैं, मगर दोनों ही देशों के हुक्मरानों के लिये ये लोग इंसान नहीं बल्कि शतरंज की मेज पर रखा 'मोहरा' हैं जिसके द्वारा कभी भी देश की जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटाकर इनकी तरफ ले जाया सकता है। और अपनी गंदगी पर देशभक्ती का लेप लगाकर जनता को परोसा जा सकता है।
कुछ भी लिखने से पहले साहिर को याद कर लीजिये -
""खून अपना हो या पराया हो नसल-ऐ-आदम का खून है आख़िर,
जंग मशरिक में हो या मगरिब में, अमन-ऐ-आलम का खून है आख़िर!
बम घरों पर गिरे के सरहद पर, रूह-ऐ-तामीर जख्म खाती है!
खेत अपने जले के औरों के, जीस्त फ़ाकों से तिलमिलाती है!
टैंक आगे बढे के पीछे हटे, कोख धरती की बाँझ होती है!
फतह का जश्न हो के हार का सोग, जिंदगी मय्यतों पे रोंती है!
जंग तो खुद ही एक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी?
आग और खून आज बख्शेगी भूख और एहतयाज कल देगी!
इसलिए ऐ शरीफ इंसानों, जंग टलती रहे तो बेहतर है
आपके और हमारे आंगन में, शम्मा जलती रहे तो बेहतर है।"
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