प्रोफेसर मंजूर अहमद (सेवानिवृत आईपीएस)
पूर्व कुलपति, डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा
राष्ट्रीय सुरक्षा कानून एक बहुत ही सख्त कानून है, जिसके अन्तर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को बिना चार्जशीट के महीनों तक जेल में रहना पड़ सकता है। इसका इस्तेमाल सामान्य हालातों में किया जाये तो उससे नागरिकों की आजादी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। प्रक्रिया में जिला मजिस्ट्रेट की सहमति के बाद ही यह गिरफ्तारी होती है और यह उम्मीद की जाती है कि जिला मजिस्ट्रेट ने प्रत्येक मामला जो उनके सामने आता है उसमें उचित जांच-पड़ताल और ध्यान से देखा होगा। दुख इसका है कि ऐसा नहीं होता। पुलिस की प्रथम सूचना रिपोर्ट एफआईआर देखने पर मालुम हो सकता है कि यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत आता है कि नहीं आता।
अभी पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बहुत से मामलों में रासुका के अन्तर्गत कायम हुए मामलों को रद कर दिया और पिछले कुछ महीनों में ९४ व्यक्तियों के विरूद्घ रासुका इस्तेमाल रद किया। इससे एक बात तो स्पष्ट थी कि जिला मजिस्ट्रेट से जो उम्मीद थी कि वह नागरिकों की आजादी और सामाजिक सुरक्षा के बीच संतुलन रखेंगे, वह पूरी नहीं हुई। जिला मजिस्ट्रेट लोगों ने आंख बन्द करके पुलिस से आयी रिपोर्ट पर हस्ताक्षर किये और जिन मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा का पहलू नहीं था, उनमें लोग जेल चले गये।
यह राष्टï्रीय सुरक्षा कानून एक अत्यंत संवेदनशील मामला है और इसे पुलिस ने रूटीन का मामला बना दिया है। एक जांच के अनुसार १२० राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मामलों में आधे से अधिक गोवध और साम्प्रदायिक तनाव से संबंधित थे। गोवध के लिए अलग से कानून है और उसका राष्टï्रीय सुरक्षा से कोई संबंध नजर नहीं आता। यदि किसी ने गोवध का कानून तोड़ा है तो उसी कानून के अंतर्गत उसकी गिरफ्तारी होनी चाहिये और गोवध के मामलों में भी जमानत का मजबूती से विरोध होना चाहिये। परन्तु हर मामले को राष्टï्रीय सुरक्षा का मामला बनाना उचित नहीं है। रासुका के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार करके रखना उचित नहीं लगता जब तक कि कोई राष्टï्रीय सुरक्षा का मामला नहीं बनता हो। रासुका के मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक की आजादी के बीच अत्यंत महत्वपूर्ण संतुलन रखना आवश्यक है और जिस तरह पुलिस मौका बेमौका इस कानून का इस्तेमाल कर रही है, कोर्ट ने इस पर ही सवाल उठाया है।
२०१९ के एक मामले (शाहिद कुरैशी वर्सेज स्टेट ऑफ यूपी) में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून पर विस्तृत टिप्पणी की थी। इस संबंध में पुलिस और जिला मजिस्ट्रेट ने उच्चतम न्यायालय के स्पष्ट निर्देशों की भी अवहेलना की है। यह तो अच्छा है कि उच्च न्यायालय ने नागरिकों की आजादी की स्वतंत्रता और संविधान द्वारा दी गई गारंटी को लागू करने में बहुत सकारात्मक भूमिका अदा की है। परन्तु इतनी बात तो साफ है कि कानून बनाते समय जो उम्मीद जिला मजिस्ट्रेट से की गई थी, वह पूरी नहीं हुई है। कई मामलों में तो यहां और साउथ दिल्ली के मामलों में पाया गया कि एक ही भाषा की एफआईआर विभिन्न मामलों में लिखायी गयी है, जिसे अंगे्रजी में कट एंड पेस्ट कहा जाता है। यदि उच्च अधिकारी ध्यान देते तो ऐसा नहीं होता।
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