(सेवानिवृत आईपीएस) पूर्व कुलपति, डॉ. भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, आगरा
यूरोप में सबसे अधिक मुस्लिम आबादी फ्रांस में ही है। यह मुसलमान फ्रांस के उत्तरी अफ्रीका स्थित उपनिवेशों से आये हैं और हर जगह उनकी उपस्थिति है। वह मंत्री भी रहे हैं और संसद में भी अच्छी खासी संख्या में सदस्य बने हैं। फ्रांस में द्वितीय विश्व युद्घ के पहले तक नस्लवाद ब्रिटेन के मुकाबले में बहुत कम था और इस बात पर फ्रांस के लोग गर्व किया करते थे। मोरक्को, अल्जीरिया जैसे देशों के लोग फ्रांस में बड़ी तादात में नागरिक बने। फ्रांस ने अपनी नागरिकता में कोई फर्क नहीं किया था और सभी के साथ समान रूप से बर्ताव होता था। इतना अवश्य है कि कुछ ऐसी रस्में जो फ्रेंच कल्चर के लिए अस्वीकार्य हैं, उनसे मुसलमानों को रोका जाता था। मिसाल के तौर पर एक से अधिक पत्नी रखने की रस्म फ्रांस में हमेशा अस्वीकार्य रहा। परन्तु फ्रांस के शहरी इलाकों में स्त्रियों की आजादी के नाम पर व्याभिचार और बिना शादी के साथ रहना आम बात थी। राजनीतिक नेता भी इसके शिकार होते थे और यह बुरा नहीं माना जाता था। मुसलमानों में यह हमेशा अस्वीकार्य रहा। स्त्रियों के कौमार्य (वर्जिनटी) का फ्रांस के शहरी इलाकों में महत्व नहीं था, हालांकि शहर के बाहर के इलाकों में इसाईयों और मुसलमान दोनों समुदायों में इस पर जोर दिया जाता था। मुसलमानों को फ्रांस में कोई खास परेशानी नहीं थी और उनके रेस्त्रां और बूचरीज भी अलग हुआ करते थे। आज से करीब १५ साल पहले फ्रांस में इस बात पर जोर दिया गया कि होटलों के आगे धार्मिक नाम लिखना फ्रेंच कल्चर के विरूद्घ है और सरकार ने भी इसे बन्द कराने की कोशिश की। शायद इसका कारण यह भी था कि उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानों के रेस्त्रां में उनके स्वाद के लिए बहुत फ्रेंच जाया करते थे और उससे फ्रांस के शेख नागरिकों का बिजनेस प्रभावित होता था। आज से करीब ४० साल पहले जब मैं पेरिस रूका था तो वहां मुसलमानों को कोई परेशानी नहीं थी, केवल कुछ पढ़े लिखे लोग यह शिकायत जरूर करते थे कि राजनीति में संख्या में अधिक होने के बावजूद उनका प्रतिनिधित्व यहूदियों से कम है।
दो कारणों से इस रिश्ते में खटास आयी। पहला कारण तो उत्तरी अफ्रीका के देशों में नयी शिक्षा से लैस नौजवानों ने फ्रांस द्वारा उनके संसाधनों के शोषण पर आवाज उठाना शुरू किया। यह सच्चाई है कि उत्तरी अफ्रीका के साथ फ्रांस का व्यापार केवल फ्रांस के फायदे में होता है। दूसरी बात जो ज्यादा अहम है, वह फ्रांस के अन्दर इस्लामिक भावना का पुनरूत्थान है। सारी दुनिया में इस्लामोफोबिया के प्रतिक्रिया के रूप में जो मुसलमानों में सांस्कृतिक पुनरूत्थान की भावना पैदा हुई, उससे फ्रांसीसी समाज में मुसलमानों के बारे में खराब प्रतिक्रिया हुई। पिछले एक दशक से जिस तरह फ्रांस और बेल्जियम में कुछ गैर जिम्मेदार लोगों ने कठमुल्लों के प्रभाव से हिंसा का रास्ता अपनाया, उसे भी समाज में बंटवारा हो गया।
पिछली बार पैगम्बर साहब के कार्टूनों के बाद जो मुसलमानों की प्रतिक्रिया थी, वह सहज थी और यदि ऐसा ईसा मसीह का कार्टून बनता तब भी यही प्रतिक्रिया होती। परन्तु उसके बाद राष्टï्रपति मैक्रां द्वारा उठाया गया कदम फ्रेंच परम्पराओं के विरूद्घ थे। राष्टï्रपति मैक्रां ने उन कार्टूनों का सरकारी मार्गों पर लगाने दिया, जो अनुचित था। फ्रांस में विशेषकर पेरिस में बहुत सी मस्जिदें हैं और एक में मराकस के लोगों के द्वारा बनायी गयी लकड़ी की मस्जिद बहुत सुन्दर है और दुनिया भर के लोग इसे देखने आते हैं। कोई व्यक्ति मस्जिद में जा सकता है और उसका कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। हो सकता है कि कुछ आतंकवादी मस्जिद में गये हों, इसलिए मस्जिदों में पहरा बैठाना सही नहीं है। फ्रांस में खूफिया खबरें जमा करने की जितनी सहूलियत है, उससे बिना शोर शराबे के फ्रेंच सरकार लोगों पर नजर रख सकती है, लेकिन इसके लिए कानून बनाना मुनासिब नहीं था। जहां तक वर्जिनटी टेस्ट की बात है, इसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है और यह केवल उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम कल्चर का हिस्सा है। बहुविवाह पर पाबंदी एक तरह से फ्रांस में बहुत दिनों से है। यह अवश्य है कि कानूनी दायरें मुसलमानों को लेने से फ्रांसीसी समाज उसी रास्ते पर जा रहा है, जिस रास्ते पर कई और देश जा रहे है। लीपेन बहुत पहले फ्रांस में इस भेदभाव की बुनियाद डाली थी और अब यह पौधा बड़ा हो गया है। बेहतर यह होता कि फ्रांस, जर्मनी की तरह से मुसलमानों से बराबरी का बर्ताव करता। बदले हुए फ्रांस से अफ्रीकन देशों से उसके व्यापार पर भी देर या सबेर खराब प्रभाव पड़ेगा। इसका फायदा तुर्की को मिलेगा।
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