भारत बंद नहीं है समस्या का हल
यह सही है कि शुरू में यह आरक्षण सीमित वर्षों के लिए था। लोगों को यह विश्वास था कि २० वर्षों में ही दलित समाज बराबर आ जायेगा, परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ। दलित समाज अब भी न केवल आर्थिक क्षेत्र में बहुत पिछड़ा है, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक क्षेत्र में भी वह बहुत पीछे है। अभी तक पूरे तौर पर अस्पृश्यता भी समाप्त नहीं हो पायी है।
सरकारी नीतियों के कारण शिक्षा के कई स्तर बन गये हैं। आर्थिक तौर पर कमजोर होने के कारण दलित समाज अपने बच्चों को मुफ्त शिक्षा पाने के लिए सरकारी स्कूलों में भेजता है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत निम्न कोटि का है और वहां से निकले बच्चे प्राइवेट या इंगलिश मीडियम स्कूल से निकले बच्चों का मुकाबला नहीं कर सकते। दलित समाज के कुछ लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण अवश्य मिला है, परन्तु यह भी संख्या में बहुत कम है। सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं और हर जगह प्राइवेट सेक्टर आ रहा है, जहां कोई आरक्षण नहीं है।
देश के कुछ नवयुवकों में बेरोजगारी के कारण कुंठा अवश्य होती है कि कम मेरिट होने के बावजूद दलित युवक बाजी मार ले जाते हैं। कुछ राजनीतिक दल उनकी इस कुंठा का लाभ उठाना भी चाहते हैं। दो दिन पहले दलितों के भारत बंद के विरोध में जो बंद का आह्वïान कुछ लोगों ने किया, यह एक खतरनाक कदम था।
दलितों को दिया जाने वाला संरक्षण और आरक्षण कोई भीख नहीं है, उनका हजारों साल से अमानवीय शोषण हुआ है, जिससे वह पीछे चले गये हैं। हमें यह बात कबूल करनी चाहिये कि उनको दिया जाने वाला आरक्षण समग्र विकास के लिए आवश्यक है। इस संबंध में एक सोचनीय बात यह भी है कि जिन लोगों को आरक्षण का लाभ मिला है, उन्हीं की अगली पीढ़ी इसका फायदा उठा रही है और वह अपने समाज से स्वयं को अलग और ऊंचा समझने लगे हैं। इससे आरक्षण का असली मकसद पूरा नहीं होता। सभी राजनीतिक दलों में उच्च जातियों का बर्चस्व है और दलित वहां भी हाशिये पर रहते हैं। इस समय विकास के लिए आवश्यक है कि दलितों और पिछड़ी जातियों को समाज में इंटीग्रेट किया जाये और इस तरह के दलित विरोधी बन्द में हुई हिंसा पर कार्रवाई हो, जिससे दलितों में वर्तमान व्यवस्था में विश्वास कायम सके।
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