उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय को लेकर लोगों में एक अनावश्यक तनाव नजर आता है।
आज से बहुत करीब २४ साल पहले सुप्रीम कोर्ट की एक खण्डपीठ ने एक मुकदमें में यह निर्णय दिया था कि मस्जिद इस्लाम का आवश्यक हिस्सा नहीं है। इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खण्डपीठ के सामने पुनर्विचार के लिए रखा गया था, जिसमें दो जजों ने पुराने फैसले को बरकरार रखा और एक जज ने उससे अपनी असहमति जताते हुए अलग से फैसला दिया। मस्जिद इस्लाम का आवश्यक हिस्सा है या नहीं, इस विवाद में उच्चतम न्यायालय को पडऩे की जरूरत नहीं थी, परन्तु कुछ लोगों ने इस फैसले को लेकर उच्चतम न्यायालय और सरकार के नियत पर शक किया है, जो मुनासिब नहीं है।
यह कहकर भी दुर्भावना पैदा करने का प्रयास किया गया है कि इस फैसले का गलत प्रभाव बाबरी मस्जिद के मुकदमें पर पड़ेगा। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की नितांत गलत व्याख्या है। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कहा है कि बाबरी मस्जिद, राम जन्मभूमि की जमीन के मालिकाना हक पर चलने वाले मुकदमें पर इस फैसले का कोई प्रभाव नहीं होगा। कुछ लोग इस सिलसिले में यह भी व्याख्या दे रहे हैं कि इससे सरकार मुसलमानों को मस्जिद बनाने से रोक देगी और उसे कुछ मस्जिदों को अन्यत्र स्थानांतरित करने का अधिकार मिल जाएगा। यह भी गलत व्याख्या है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार संविधान में सुरक्षित है और यह संविधान का बुनियादी हिस्सा है, जिसे कोई सरकार हाथ नहीं लगायेगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह दोनों बातें नहीं है। यह अवश्य है कि कुछ लोग इस बहाने से एक तनावपूर्ण माहौल राजनीतिक स्वार्थसिद्घि के लिए पैदा कर रहे हैं, जिससे किसी का फायदा नहीं है। आम मुसलमान इस बात को समझता है और मुस्लिम धार्मिक नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत होने के बावजूद उसे समझते हैं।
जैसा उस खण्डपीठ के एक जज जस्टिस नजीर ने अपने अलग फैसले में कहा है, यह प्रश्न धार्मिक आस्था का है और इस पर धर्माचार्यों की राय लेनी चाहिये। सच्चाई यह है कि आम मुसलमान और धर्माचार्य मस्जिद को इस्लाम का हिस्सा मानते हैं। कुरान में कहा गया है कि ईश्वर ने हजरत इब्राहिम (बाइबिल के अब्राहम) को आदेश दिया कि वह उसकी आराधना के लिए एक घर बनाये और उसकी सफाई आदि की व्यवस्था करें। इसी निर्देश पर उन्होंने 'काबाÓ का निर्माण किया था और उनके बाद आने वाले लोगों ने भी येरूसलम में भी आराधना का घर बनाया था। कुरान में यह भी कहा गया है कि किसी भी धर्म के पूजास्थल को नहीं तोड़ा जाये। मुसलमानों का विश्वास है कि जो लोग पृथ्वी पर मस्जिद बनाएंगे, उन्हें स्वर्ग में घर मिलेगा। यह विश्वास मुसलमानों के हर वर्ग और हर मसलक का है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में पडऩे की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यह नितांत धार्मिक आस्था का विषय है और जैसा कि जस्टिस नजीर ने कहा है, इस पर धर्मावलम्बी ही फैंंसला कर सकते है, परन्तु इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार की नीयत पर शक करना किसी भी तरह सही नहीं है। देश में इस समय तनाव का वातावरण है, इस विवाद को राजनैतिक रूप देना मुसलमानों के साथ भी इंसाफ नहीं है। जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कह दिया है कि इस फैसले का कोई प्रभाव बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मुकदमें पर नहीं होगा, तो लोगों को आश्वस्त रहना चाहिये।
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आज से बहुत करीब २४ साल पहले सुप्रीम कोर्ट की एक खण्डपीठ ने एक मुकदमें में यह निर्णय दिया था कि मस्जिद इस्लाम का आवश्यक हिस्सा नहीं है। इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की खण्डपीठ के सामने पुनर्विचार के लिए रखा गया था, जिसमें दो जजों ने पुराने फैसले को बरकरार रखा और एक जज ने उससे अपनी असहमति जताते हुए अलग से फैसला दिया। मस्जिद इस्लाम का आवश्यक हिस्सा है या नहीं, इस विवाद में उच्चतम न्यायालय को पडऩे की जरूरत नहीं थी, परन्तु कुछ लोगों ने इस फैसले को लेकर उच्चतम न्यायालय और सरकार के नियत पर शक किया है, जो मुनासिब नहीं है।
यह कहकर भी दुर्भावना पैदा करने का प्रयास किया गया है कि इस फैसले का गलत प्रभाव बाबरी मस्जिद के मुकदमें पर पड़ेगा। यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की नितांत गलत व्याख्या है। सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कहा है कि बाबरी मस्जिद, राम जन्मभूमि की जमीन के मालिकाना हक पर चलने वाले मुकदमें पर इस फैसले का कोई प्रभाव नहीं होगा। कुछ लोग इस सिलसिले में यह भी व्याख्या दे रहे हैं कि इससे सरकार मुसलमानों को मस्जिद बनाने से रोक देगी और उसे कुछ मस्जिदों को अन्यत्र स्थानांतरित करने का अधिकार मिल जाएगा। यह भी गलत व्याख्या है। धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार संविधान में सुरक्षित है और यह संविधान का बुनियादी हिस्सा है, जिसे कोई सरकार हाथ नहीं लगायेगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह दोनों बातें नहीं है। यह अवश्य है कि कुछ लोग इस बहाने से एक तनावपूर्ण माहौल राजनीतिक स्वार्थसिद्घि के लिए पैदा कर रहे हैं, जिससे किसी का फायदा नहीं है। आम मुसलमान इस बात को समझता है और मुस्लिम धार्मिक नेता सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत होने के बावजूद उसे समझते हैं।
जैसा उस खण्डपीठ के एक जज जस्टिस नजीर ने अपने अलग फैसले में कहा है, यह प्रश्न धार्मिक आस्था का है और इस पर धर्माचार्यों की राय लेनी चाहिये। सच्चाई यह है कि आम मुसलमान और धर्माचार्य मस्जिद को इस्लाम का हिस्सा मानते हैं। कुरान में कहा गया है कि ईश्वर ने हजरत इब्राहिम (बाइबिल के अब्राहम) को आदेश दिया कि वह उसकी आराधना के लिए एक घर बनाये और उसकी सफाई आदि की व्यवस्था करें। इसी निर्देश पर उन्होंने 'काबाÓ का निर्माण किया था और उनके बाद आने वाले लोगों ने भी येरूसलम में भी आराधना का घर बनाया था। कुरान में यह भी कहा गया है कि किसी भी धर्म के पूजास्थल को नहीं तोड़ा जाये। मुसलमानों का विश्वास है कि जो लोग पृथ्वी पर मस्जिद बनाएंगे, उन्हें स्वर्ग में घर मिलेगा। यह विश्वास मुसलमानों के हर वर्ग और हर मसलक का है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में पडऩे की कोई आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि यह नितांत धार्मिक आस्था का विषय है और जैसा कि जस्टिस नजीर ने कहा है, इस पर धर्मावलम्बी ही फैंंसला कर सकते है, परन्तु इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट और सरकार की नीयत पर शक करना किसी भी तरह सही नहीं है। देश में इस समय तनाव का वातावरण है, इस विवाद को राजनैतिक रूप देना मुसलमानों के साथ भी इंसाफ नहीं है। जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वयं कह दिया है कि इस फैसले का कोई प्रभाव बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि के मुकदमें पर नहीं होगा, तो लोगों को आश्वस्त रहना चाहिये।
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