अमेरिकी विदेश
मंत्री माइक पोम्पियो इस समय पाकिस्तान के दौरे पर हैं। पाकिस्तान में
निर्वाचित नई सरकार के लिए पोम्पियो का यह दौरा किसी कठिन परीक्षा के दौर
से गुजरने सरीखा है। यह बात किसी से दबी-छिपी नहीं है कि पिछले एक साल से
अमेरिका और पाकिस्तान के रिश्ते उस तरह से सहज नहीं हैं, जैसा कि दशकों से
उनके बीच थे। यह दौरा ऐसे समय में हो रहा है जब अमेरिका ने पाकिस्तान को
कोलिजन सपोर्ट फण्ड यानी पारस्परिक सैन्य सहयोग के बदले दिये जाने वाले ३०
करोड़ डॉलर के फण्ड को रोक दिया है।
पाकिस्तान अमेरिका को
भौगोलिक और आर्थिक स्थिति को देखते हुए नाराज नहीं करना चाहता। यही कारण था
कि पूर्व प्रधानमंत्री अक्सर अमेरिकी दरवाजे पर पहुंच जाया करते थे। इधर
पाकिस्तान की चीन से नजदीकी भी अमेरिका को नहीं भा रहा है। फण्ड रोकना तो
एक बहाना है, इसके माध्यम से वह पाकिस्तान पर अपनी शर्तों को थोपना चाहता
है।
पाकिस्तान की भौगोलिक और सामरिक दिक्कत यह है कि वह अपने
दक्षिण में भारत से रिश्तों को लेकर सहज नहीं है, अत: वह अपने उत्तर पश्चिम
के क्षेत्र अफगानिस्तान मे जोर-ज्यादती करने से बचता रहा है। अमेरिका यह
चाहता है कि यदि वह पाकिस्तान को फण्ड देता है तो पाकिस्तान को वही करना
चाहिये, जो वह चाहता है। हालांकि अमेरिका खुद ही अफगानिस्तान के मामले में
दोहरी नीति अपनाता रहा है। वह युद्घ के साथ-साथ तालीबान से वार्ता को भी
चलाता रहा है।
पाकिस्तान की नई सरकार के सामने असल दिक्कत यह है
कि उसे जिस क्षेत्र में बहुमत मिला है, वे ज्यादातर पठानों के क्षेत्र
हैं, जो अफगानी तालीबान से हमदर्दी रखते हैं। इसके अलावा भी करीब ३० लाख
अफगानी पठान पाकिस्तान शरणार्थी हैं, जिन पर पाकिस्तान एक्शन नहीं ले सकता
है। पाकिस्तान के स्थानीय लोगों का इन अफगानी शरणार्थियों को पूरा समर्थन
भी है, जबकि अमेरिका चाहता है कि पाकिस्तान उन कार्रवाई करे।
सच्चाई
यह है कि पाकिस्तान पर अमेरिका द्वारा जो आरोप लगाये जा रहे हैं, वह पहले
भी था, परन्तु अमेरिका के हित जब तक पाकिस्तान से सधते रहे, तब तक वह फण्ड
जारी करता रहा। अमेरिका को अब पाकिस्तान से चीन की बढ़ती नजदीकी को देखते
हुए अपने हित दूर होते दिख रहे हैं। यह आरोप कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में
आतंक के खिलाफ ठीक कार्रवाई नहीं कर रहा है, खुद में बेमानी है। सच तो यह
है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की खुली सीमा होने के नाते तालीबानी
अफगानों को वह किसी भी कीमत पर नहीं रोक सकता। अफगानी तालीबानों को तो उस
समय भी नहीं रोका जा सका था, जब अफगानिस्तान में १ लाख १० हजार अमेरिकी
सैनिको समेत तमाम मित्र राष्टï्रों की सेनायें मौजूद थी। अब अकेले
पाकिस्तान से उन्हें रोकने की जिम्मेदारी निभाने की बात हास्यास्पद लगती
है। यह बात पाकिस्तान के हुक्मरानों को भी पता थी, लेकिन वह फण्ड के नाम पर
अमेरिका के सहयोग में कार्रवाई की बात कहा करते थे।
बहरहाल
माइक पोम्पियों और पाक की नई सरकार के बीच इस वार्ता से कोई ऐतिहासिक
तब्दीली नहीं होने की उम्मीद है। फिर भी पोम्पियो का यह दौरा दक्षिण एशिया
में सामरिक और आर्थिक तौर पर क्या गुल खिलायेगा, इस पर नजर तो हर किसी की
है।
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