धरती का स्वर्ग जाने कब कश्मीर को कहा गया था? जब भी सुनो तो वहां खून-खराबे के ही समाचार सुनाई पड़ते हैं। इसी कड़ी का एक हिस्सा कश्मीर के कुलगाम जिले में सेना और आतंकी मुठभेड़ भी बनी, जिसमें तीन आतंकी तो मारे गये, लेकिन सात बेकसूर कश्मीरियों को भी इसमें अपनी जान गंवानी पड़ी। यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी वहां मुठभेड़ों में निर्दोष नागरिकों की जान जा चुकी है। आये दिन लोग इन मुठभेड़ों में दहशत के साये में जीते हैं। कब किस तरफ से बम दग जाये या गोलियों की तड़तड़ाहट शुरू हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता है। सुरक्षाकर्मी भी मारे जाते हैं। बेकसूर नागरिक भी मरते हैं। विरोध के लिए लोग सड़कों पर उतरते हैं। रोजी-रोजगार के साधन प्रभावित होते हैं। फिर भी इस मसले को राजनीतिक के बजाय मानवीय दृष्टि से देखने की पहल नहीं हो पाती। न जाने कैसी जिद है, जो लोगों की जान के साथ खेल रही है। ऐसे में जन्नत में रहने वाले बेकसूर कश्मीरियों का जीवन किसी नर्क से कम नहीं है।
कुलगाम घटना के बाद वहां विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे खासे तनाव की स्थिति बन गई और इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। घाटी में अशांति की वजहें छिपी नहीं हैं। न वहां के नागरिक इससे अपरिचित हैं और न हुक्मरान। फिर भी खून बहाने का सिलसिला रोकने की कोई व्यावहारिक पहल क्यों नहीं हो पा रही।
यह छिपी बात नहीं है कि कश्मीर को अशांत करने में सबसे बड़ा हाथ पाकिस्तान का है। वह इसे अपना हिस्सा बताता है और घाटी के लोगों को उकसा कर आजादी के नारे के साथ उन्हें विद्रोह के लिए खड़ा कर देता है। इसमें उसका मोहरा बनते हैं हुर्रियत के लोग। हुर्रियत ने कभी कश्मीर को हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं माना। इसी वजह से वह कभी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में न तो खुद हिस्सा लेता है और न स्थानीय लोगों को लेने देता है। इस बार के स्थानीय निकायों के चुनावों का जिस तरह से लोगों ने बहिष्कार किया, वह अभूतपूर्व उदाहरण है। कई जगहों पर एक वोट भी नहीं पड़ा। एक जगह केवल एक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीता हुआ घोषित किया गया।
कश्मीर की सबसे बड़ी समस्या रोजगार के नए अवसर जुटाना है। इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है। सियासी पार्टियां मजहबी समीकरणों में ही उलझी हैं। विकास के मुद्दे गौण हो चुके हैं। केंद्र सरकार भी पहले बंदूक के बल पर दहशतगर्दी खत्म करने पर तुली है। रोजगार का मुद्दा उसके बाद मानती है। इन तमाम विसंगतियों के बीच मारा बेचारा वहां का आम नागरिक जा रहा है। उसे दहशतगर्द भी मारते हैं। सेना और पुलिस भी मारती है। न हुर्रियत उसकी बुनियादी जरूरतों की फिक्र करती है, न सियासी पार्टियां, और जिस पाकिस्तान की शह पर वहां दहशतगर्दी ने अपने पांव पसार रखे हैं, वह खुद अपनी माली बदहाली के दलदल में इस कदर फंस चुका है कि उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा।
कश्मीर मामले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर संयुक्त राष्टï्र तक चलता रहता है। पाकिस्तान इस मुद्दे को उठाने के लिए कहीं भी मौके की ताक में रहता है, ताकि भारत को बदनाम किया जा सके। हकीकत यह है कि इस मामले को लेकर न तो भारत और न ही पाकिस्तान दोनों ही गंभीरता दिखाते हैं। अगर जरा भी गंभीर होते है तो कश्मीर की स्थिति में सुधार जरूर हुआ होता। परन्तु ऐसा नहीं हो सका है। पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंहा राव ने कहा था कि अलग होने के अलावा किसी भी हद की स्वायत्ता पर वह तैयार हैं। कश्मीरियों में यह मायूसी घर कर रही है कि महाराज हरि सिंह के समय से चल रहे कुछ स्वायत्ता के मुद्दों को भी वर्तमान सरकार ढहा रही है। कश्मीरियों के मन में झांकना चाहिये। मानवीय दृष्टिïकोण से इतना जरूर कहा जा सकता है कि राजनयिक प्रयासों के परिणाम चाहे जो भी आयें, लेकिन तब तक वहां बेकसूर कश्मीरियों की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना पर ही है और सेना को इस बात का ख्याल रखना चाहिये।
कुलगाम घटना के बाद वहां विरोध प्रदर्शन हुए, जिससे खासे तनाव की स्थिति बन गई और इंटरनेट सेवाएं बंद करनी पड़ीं। घाटी में अशांति की वजहें छिपी नहीं हैं। न वहां के नागरिक इससे अपरिचित हैं और न हुक्मरान। फिर भी खून बहाने का सिलसिला रोकने की कोई व्यावहारिक पहल क्यों नहीं हो पा रही।
यह छिपी बात नहीं है कि कश्मीर को अशांत करने में सबसे बड़ा हाथ पाकिस्तान का है। वह इसे अपना हिस्सा बताता है और घाटी के लोगों को उकसा कर आजादी के नारे के साथ उन्हें विद्रोह के लिए खड़ा कर देता है। इसमें उसका मोहरा बनते हैं हुर्रियत के लोग। हुर्रियत ने कभी कश्मीर को हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं माना। इसी वजह से वह कभी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में न तो खुद हिस्सा लेता है और न स्थानीय लोगों को लेने देता है। इस बार के स्थानीय निकायों के चुनावों का जिस तरह से लोगों ने बहिष्कार किया, वह अभूतपूर्व उदाहरण है। कई जगहों पर एक वोट भी नहीं पड़ा। एक जगह केवल एक वोट पाने वाला उम्मीदवार जीता हुआ घोषित किया गया।
कश्मीर की सबसे बड़ी समस्या रोजगार के नए अवसर जुटाना है। इस तरफ किसी का ध्यान नहीं है। सियासी पार्टियां मजहबी समीकरणों में ही उलझी हैं। विकास के मुद्दे गौण हो चुके हैं। केंद्र सरकार भी पहले बंदूक के बल पर दहशतगर्दी खत्म करने पर तुली है। रोजगार का मुद्दा उसके बाद मानती है। इन तमाम विसंगतियों के बीच मारा बेचारा वहां का आम नागरिक जा रहा है। उसे दहशतगर्द भी मारते हैं। सेना और पुलिस भी मारती है। न हुर्रियत उसकी बुनियादी जरूरतों की फिक्र करती है, न सियासी पार्टियां, और जिस पाकिस्तान की शह पर वहां दहशतगर्दी ने अपने पांव पसार रखे हैं, वह खुद अपनी माली बदहाली के दलदल में इस कदर फंस चुका है कि उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा।
कश्मीर मामले को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर संयुक्त राष्टï्र तक चलता रहता है। पाकिस्तान इस मुद्दे को उठाने के लिए कहीं भी मौके की ताक में रहता है, ताकि भारत को बदनाम किया जा सके। हकीकत यह है कि इस मामले को लेकर न तो भारत और न ही पाकिस्तान दोनों ही गंभीरता दिखाते हैं। अगर जरा भी गंभीर होते है तो कश्मीर की स्थिति में सुधार जरूर हुआ होता। परन्तु ऐसा नहीं हो सका है। पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंहा राव ने कहा था कि अलग होने के अलावा किसी भी हद की स्वायत्ता पर वह तैयार हैं। कश्मीरियों में यह मायूसी घर कर रही है कि महाराज हरि सिंह के समय से चल रहे कुछ स्वायत्ता के मुद्दों को भी वर्तमान सरकार ढहा रही है। कश्मीरियों के मन में झांकना चाहिये। मानवीय दृष्टिïकोण से इतना जरूर कहा जा सकता है कि राजनयिक प्रयासों के परिणाम चाहे जो भी आयें, लेकिन तब तक वहां बेकसूर कश्मीरियों की जान-माल की सुरक्षा की जिम्मेदारी सेना पर ही है और सेना को इस बात का ख्याल रखना चाहिये।
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