Thursday, October 25, 2018

चुनाव से पहले नये राजनीतिक दलों की बाढ़

  देश भर में तेजी से बढ़ रही राजनीतिक दलों की बाढ़ सेे लोकसभा चुनाव की प्रतिध्वनि स्पष्टï सुनाई देने लगी है। यह पहले से स्थापित राजनीतिक दलों से वैचारिक मतभिन्नता के बजाये राजनीतिक महत्वाकांक्षा और मौकापरस्ती ज्यादा नजर आती है। पूरे देश में भले ही भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति को लेकर विभिन्नता देखने को मिलती हो, लेकिन राजनीति के मामले में कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक जैसे ही हालात नजर आते हैं। हर बार चुनावों में पंजीकृत होने वाले दलों की संख्या में काफी इजाफा हो जाता है। इसका अंदाजा इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव 2009  के समय देश में 1162 राजनीतिक दल पंजीकृत थे जो लोकसभा चुनाव 2014 के समय बढ़कर 1703 हो गये थे। यह बढ़ोत्तरी अपने आप में आश्चर्यजनक है। क्या वाकई में लोगों की वर्तमान राजनीतिक दलों के साथ मतभिन्नता है? चुनाव की बाढ़ में बरसाती मेंढक की तरह राजनीतिक दल पैदा हो जाते हैं, जिनमें अक्सर का काम मतों का विभाजन होता है। यदि यह सवाल जायज है तो राजनीतिक दलों को अपनी कार्यशैली पर विचार करने की जरूरत है।
 उत्तर प्रदेश में ही देखें तो इस बार कई नामचीन पार्टियों का उदय हो रहा है। इसमें सपा विधायक शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस पार्टी का उदय सिर्फ इस बात को लेकर हुआ कि उनकी पूर्ववर्ती पार्टी सपा, जिसके मुखिया उनके भतीजे ही है, से सम्मान नहीं मिल रहा था। उनकी पार्टी की स्थापना सिर्फ अपने आत्मसम्मान को बनाये रखने के लिए है। इसी कड़ी में निर्दलीय विधायक राजा रघुराज प्रताप सिंह अपने राजनीतिक कॅरियर के २५ वर्ष पूरे करने की उत्सव के रूप में एक नई पार्टी का गठन करने जा रहे हैं। राजनीतिक फिजाओं में उनकी पार्टी का नाम जनसत्ता पार्टी होगी। इस पार्टी की न तो कोई सोच होगी और न ही राजनीति में कुछ उल्लेखनीय करने की ललक। बस मन चाहा तो पार्टी बना ली, जो जनसत्ता से अधिक राजसत्ता की परिचायक है।
पूर्व विहिप नेता प्रवीण भाई तोगडिय़ा भी नई पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं। उनकी पार्टी की बुनियाद भाजपा से बदला लेने की है, क्योंकि वह लम्बे समय तक भाजपा की मातृ संस्था राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा विश्व हिन्दू परिषद के प्रमुख हुआ करते थे। जब उन्हें पद से बेदखल कर दिया गया तो उन्होंने भाजपा और संघ से बदला लेने के लिए नई पार्टी बना लिया। इसी तरह कथा वाचक देवकी नंदन ठाकुर ने भी सरकार की एससी-एसटी कानून के विरोध में अपनी नई पार्टी के गठन की घोषणा कर दी और मजे की बात यह है कि उनकी पार्टी मध्यप्रदेश की सभी विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवारों को उतारेगी। अपनी कथाओं के माध्यम से ईश्वर में रमने का संदेश देने वाले ठाकुर का यह नया अवतार है।
केवल उत्तर के राज्यों का ही यह हाल नहीं है, बल्कि दक्षिण में भी कुछ इसी तरह की बयार चल रही है। प्रसिद्घ अभिनेता कमल हासन ने अपनी पार्टी बनाकर उसके लिए प्रचार प्रसार भी करना शुरू कर दिया है। रजनीकांत भी उनकी राह पर चल रहे हैं और तमिलनाडु में प्रदेश भर अपनी पार्टी का जनाधार बढ़ाने में लगे हुए है। हैदराबाद में अभिनेता पवन कल्याण भी इन्हीं की राह पर चल रहे हैं और तेलंगाना विधानसभा चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लडऩा चाहते हैं।
वैसे यह स्थिति किसी प्रजातंत्र के लिए ठीक नहीं है। देश में इस तरह से महत्वाकांक्षाओं के आधार पर राजनीतिक दलों की बाढ़ नि:संदेह घातक है। जनता दल से विघटित होकर बनने वाले करीब दर्जन भर दलों का हश्र लोगों ने करीब से देखा है। कायदे से इसके लिए कुछ नियम बनाये जाने की आवश्यकता है। पार्टियों की संख्या की सीमाओं को तय किया जाना चाहिये। यदि दो दलीय व्यवस्था पर मतभेद हो तो भी राजनीतिक दलों की संख्या दो अंकों में नहीं ही होनी चाहिये। यही लोकतंत्र के लिए सही होगा। 

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