Sunday, October 28, 2018

सीबीआई को वास्तविक स्वायत्ता की जरूरत

   केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई इस समय सवालों के घेरे में है। देश के तमाम मसलों के हल के लिए सीबीआई की राह देखने वाली जनता के लिए यह कशमकश की घड़ी है। गंभीर मामलों की जांच के लिए जानी जाने वाली इस संस्था में आपसी लड़ाई के चलते अस्तित्व पर संकट उठ खड़ा हुआ। संस्था के शीर्ष के दो पदाधिकारी को इस समय सरकार द्वारा उनकी मर्जी के विरूद्घ अवकाश पर भेज दिया गया है। ये और बात है कि सरकार के इस निर्णय के खिलाफ दोनों अधिकारी कोर्ट की शरण में चले गये है। 
यह कोई पहला मौका नहीं है, जब सीबीआई को लेकर सवाल उठ रहे हैं। जब-जब सीबीआई पर राजनीतिक दबाव पड़ा, तब-तब उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगे। 1984 में सीबीआई ने जब जगदीश टाइटलर को बेदाग करार दिया, तब उस समय बहुत से लोगों ने उस पर अंगुली उठाई। बाद में मुलायम सिंह और मायावती के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामलों में भी सीबीआई ने लीपापोती की। बोफोर्स तोप की खरीद में भी सीबीआई की निष्पक्षता पर सवाल उठे। अक्सर यह देखा गया है कि सत्ताधारी दल सीबीआई को अपने हथियार के रूप में इस्तेमाल करता नजर आता है। इसी संदर्भ में एक बार सुप्रीम कोर्ट ने उसे पिजड़े में कैद तोता तक कह दिया था और उसमें सुधार के लिए कड़े कदम उठाने के निर्देश दिये थे। फिर भी ऐसा कुछ होता नहीं दिखा और केन्द्रीय जांच जैसी सर्वोच्च संस्था में वर्चस्व कायम करने की जिद ने आपस में ही अधिकारियों को गुत्थमगुत्था कर रखा है।
  वर्तमान में सीबीआइ में जो उठापटक जारी है, उसके पीछे भी राजनीतिक हस्तक्षेप है। सत्तारूढ़ पार्टी राकेश अस्थाना को सीबीआइ में वरिष्ठतम पद पर बैठाना चाहती थी। वह ऐसा नहीं कर पाई, परंतु उसने निदेशक की आपत्ति के बावजूद उन्हें विशेष निदेशक बना दिया। निदेशक आलोक वर्मा का कहना था कि अस्थाना की पृष्ठभूमि स्वच्छ नहीं है, इसलिए वह सीबीआइ के उपयुक्त नहीं हैं, परंतु मुख्य सतर्कता आयुक्त यानी सीवीसी ने अस्थाना का समर्थन किया और वह सीबीआइ में दूसरे वरिष्ठतम पद पर नियुक्त हो गए। दोनों के बीच लगभग एक साल से मनमुटाव चला आ रहा था। दुर्भाग्य से भारत सरकार ने उनके बीच की समस्याओं को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया। कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रलय, जिसके अधीन सीबीआइ आती है, ने कोई बीचबचाव नहीं किया। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे। जब पानी सिर से पानी ऊपर बहने लगा तो उसके बाद की स्थिति अब जगजाहिर है।
यह स्थिति ऐसे ही नहीं बिगड़ी। राकेश अस्थाना को बराबर इस बात का अहसास था कि उन्हें राजनीतिक समर्थन हासिल है, इसलिए वह जो चाहे कर सकते हैं। सामान्यत: किसी भी पुलिस विभाग में नंबर दो के अधिकारी की हिम्मत नहीं होती कि वह नंबर एक अधिकारी के आदेशों की अवहेलना करे, परंतु अस्थाना लगातार ऐसा करते रहे। यहां तक कि उन्होंने सीवीसी के पास शिकायती पत्र भी भेजा। सीबीआइ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में राकेश अस्थाना पर आरोप लगाया है कि वह जांच की आड़ में वसूली का रैकेट चला रहे थे। सीबीआई के झगड़े में सीवीसी की भूमिका भी संदिग्ध है। निदेशक ने सीवीसी से अस्थाना के शिकायती पत्र की प्रतिलिपि मांगी थी। यह उन्हें नहीं उपलब्ध कराई गई, यद्यपि पत्र के उद्धरण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए। बाद में सीवीसी ने भारत सरकार को जो पत्र लिखा उसे पढऩे से पक्षपात का आभास होता है।
  भारत सरकार ने जिस तरह आधी रात को सीबीआई में तख्तापलट किया, उसकी आवश्यकता समझ में नहीं आती। सीबीआई निदेशक के पास कोई फौज तो है नहीं जिससे वह विरोध करते। सुबह दस बजे बड़ी आसानी से भारत सरकार के आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित किया जा सकता था, परंतु यह सरकारी कार्यवाही कोई अच्छा संदेश देने वाली नहीं है।
स्पष्टï है कि सीबीआई पर देश भर के लोगों का पूरा भरोसा है। इसे राजनीति का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिये, जो कि वर्तमान मामले में स्पष्टï नजर आ रहा है। सीबीआई की गरिमा तभी बनी रह सकती है, जब वह विवादों से दूर गंभीर मामलों में परिणाम देने में सक्षम हो। ऐसा तभी हो सकता है, जब उसे पूरी तरह से वास्तविक स्वायत्ता प्रदान की जाये।

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