Monday, October 29, 2018

वैश्विक स्तर पर शैक्षणिक संस्थानों का कमजोर प्रदर्शन

 शिक्षित समाज किसी भी देश के विकास का आइना होता है। विकास और शिक्षा एक-दूसरे की पूरक और समानुपातिक है। शिक्षा प्रणाली और ज्ञान-विज्ञान के विकास में विश्वविद्यालयों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। स्वतंत्रता के सात दशकों में विश्वविद्यालयों की संख्या और गुणवत्ता बढ़ाने में भारत को उल्लेखनीय सफलता मिली है, लेकिन वैश्विक स्तर पर हमारी स्थिति बहुत संतोषजनक नहीं है।
'द टाइम्स हायर एजूकेशनÓ द्वारा जारी ताजा सूची में बेहतरीन 250 विश्वविद्यालयों में किसी भी भारतीय संस्थान को जगह नहीं मिल सकी है। हालांकि विभिन्न मानकों के आधार पर तैयार की जानेवाली इस सूची का एक संतोषजनक पहलू यह है कि 251 से 500 शीर्ष संस्थानों में 49 भारतीय हैं। पिछले साल यह संख्या 42 थी, परंतु इसमें एक निराशाजनक आयाम यह भी है कि या तो सूची में इन संस्थाओं की स्थिति पिछले साल की तरह है या उनमें गिरावट आयी है।
   दुनिया की सबसे तेज गति से बढऩेवाली कुछ अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हमारे देश की बहुसंख्यक जनसंख्या युवा है, जिसे उच्च शिक्षा, शोध, अनुसंधान और अन्वेषण के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। इसके लिए शिक्षा तंत्र, विशेषकर उच्च शिक्षा की बेहतरी पर पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए। 
टाइम्स का यह मानना कि नवोन्मेष और आकांक्षा से पूर्ण भारत में वैश्विक स्तर पर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की महती संभावनाएं हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए निवेश करने, वैश्विक प्रतिभाओं को आकर्षित करने तथा अंतर्राष्ट्रीय दृष्टि को ठोस बनाने के निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।
ये उदाहरण भारत की उच्च शिक्षा नीति के लिए महत्वपूर्ण सूत्र हो सकते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें समय-समय पर उच्च शिक्षा पर खर्च बढ़ाने और उनके विकास के वादे और दावे तो करती रही हैं, पर नीतिगत स्तर पर और बजट में आवंटन के मामले में लंबे समय से कारगर कदम नहीं उठाये गये हैं.
कुल छात्रों की संख्या में महज तीन फीसदी की हिस्सेदारी रखनेवाले तकनीक, इंजीनियरिंग और प्रबंधन के 97 राष्ट्रीय संस्थानों को सरकारी अनुदान का आधा से अधिक मिलता है, जबकि साढ़े आठ सौ से अधिक संस्थानों को शेष कोष से संतोष करना पड़ता है, जहां 97 फीसदी छात्र अध्ययनरत हैं।
इस असंतुलन का त्वरित समाधान किया जाना चाहिए। अक्सर हमारे विश्वविद्यालय शिक्षा से इतर कारणों से चर्चा में रहते हैं। शिक्षा में बेमानी राजनीतिक और विचारधारात्मक हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवृत्ति भी बहुत नुकसानदेह है।
इस समय विश्वविद्यालय शैक्षिक गतिविधियों से अधिक विचारधारात्मक द्वन्द में उलझे हुए हैं। हैदराबाद में रोहित वेमुला का मामला हो या जेएनयू में कन्हैया कुमार का। बंगाल का जादवपुर विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय ऐसे नाम हैं, जिनकी पहचान उनकी ऐतिहासिकता के कारण होती थी, परन्तु इस समय ये विश्वविद्यालय बेवजह के राजनीतिक विवादों की वजह से चर्चा में हैं।
केन्द्र सरकार ने शिक्षा को लेकर जिस रणनीति पर आगे बढ़ रही है, वह भी चिंताजनक है। सरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मानदण्डों को तय करने वाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को समाप्त करने जा रही है। यह आयोग मानदण्डों के अनुपालन में उच्च शिक्षण संस्थानों को वित्तीय मदद देने का कार्य करता है। अब यूजीसी की जगह आने वाले नये संगठन एचईसीआई यानी हायर एजूकेशन कमीशन ऑफ इंडिया को यही वित्तीय अधिकार नहीं होंगे। इस कारण वह तमाम मानदण्डों को पूर्ण करने के लिए शैक्षणिक संस्थानों पर दबाव नहीं डाल सकेगा। इस तरह से देश में उच्च शिक्षण संस्थानों के बेहतर नीति और संचालन की जरूरत है, न कि किसी नये संस्थान के। यदि इन संस्थानों पर सरकार सम्यक रूप से वित्तीय मदद मिलेगी और नियत मानदण्डों का कड़ाई से पालन होगा, तभी हमारे शिक्षण संस्थान वैश्विक स्तर पर अपना बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। 

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