इस समय देश के पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। इन राज्यों में मिजोरम और तेलंगाना में केन्द्रीय शासक दल की भूमिका नगण्य है और यहां उसका जोर भी ज्यादा नहीं है, क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा राजनीतिक दृष्टिï से महत्व रखने वाले बड़े राज्यों जैसे राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में दांव पर लगी हुई है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पिछले तीन बार से विधानसभा चुनावों में भाजपा की अजेय बढ़त रही थी और वह इस बार उसे बरकरार रखना चाहती है। राजस्थान पिछली बार कांग्रेस से छीनकर विधानसभा में बहुमत हासिल करने वाली भाजपा इस बार सत्ता को गंवाना नहीं चाहती। जबकि कांग्रेस जहां राजस्थान में वापसी करना चाहती है, वहीं मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में वह भाजपा का तिलिस्म तोड़कर अपना विजय पताका फहराने की भरसक कोशिश में लगी है।
दोनों राष्टï्रीय राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के लिए इस चुनाव का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि अगले छ: महीने में लोकसभा चुनाव भी होने है और ये लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। अगर इन दलों के घोषणा पत्र पर नजर डाली जाये तो दोनों दल देश के मुख्य मुद्दों से भटके हुए नजर आते हैं। देश के आर्थिक हालात और सामाजिक तानाबाना को मजबूत करने जैसी बातें गायब हैं। बात मंदिर, बीफ और धर्म जैसी बातों की हो रही है। हैरानी इस बात की है कि भाजपा यहां गोरक्षा की बात करती है, लेकिन उसके ही नेताओं द्वारा अन्य प्रदेशों में बीफ को बढ़ावा देने के बयान देते रहते हैं। केरल में भाजपा के एक प्रत्याशी ने तो यहां तक कह दिया वोट के बदले बीफ खाने की छूट दी जायेगी। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री बीफ पर पाबंदी को नाजायज बताते हैं तो भाजपा शासित गोवा में बीफ की खुली परमीसन दी जाती है। आंकड़ों की माने तो भाजपा शासन के दौरान बीफ के निर्यात में खासी वृद्घि हुई है। ऐसे में गोरक्षा आदि के मुद्दे सिर्फ छलावा प्रतीत होते हैं। ऐसा ही मुद्दा राम मंदिर का भी है। यह मुद्दा हर चुनाव में भाजपा को याद आ जाता है और उसके बाद हमेशा के लिए गायब हो जाता है। इस पुराने मुद्दे का प्रयोग केवल मतों के ध्रुवीकरण के लिए किया जाता रहा है। मुसलमान अब इस मुद्दे के भावनात्मक पहलू से खुद को अलग करता नजर आ रहा है, परन्तु भाजपा पुराना राग ही अलाप रही है। उसके घोषणा पत्र में विकास की बातें नदारद है, जबकि वर्षों से प्रदेश में भाजपा का ही शासन है और वहां स्थितियां बहुत सही नहीं कही जा सकती हैं।
विपक्षी कांग्रेस के लिए ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद उसे लगातार पराजय का ही स्वाद चखने को मिला। पंजाब को छोड़कर किसी भी राज्य में उसे जनता ने स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस के भी घोषणा पत्र में विकास की बातें नदारद हैंख् जबकि उसके नेताओं द्वारा ऐसा प्रचारित किया जा रहा है, जैसे धर्म की बैसाखी से चुनाव को जीता जा सकता है। इस कारण कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब भाजपा की नकल करते दिख रहे हैं। वह चुनाव को किसी भी कीमत पर जीतना चाहते हैं। इसके लिए वह पार्टी लाइन से अलग जाकर मंदिर, गुरूद्वारों में मत्था टेक रहे हैं। हिन्दूवादी दिखाने के लिए अपने जनेऊ तक की भी पब्लिसिटी कर रहे है, कैलास मानसरोवर की यात्रा मीडिया में सुर्खियों में थी। कुल मिलाकर उनको लगता है कि पार्टी की हिन्दुवादी छवि दिखाकर वोट की राजनीति को कैश कराया जा सकता है, जबकि सच्चाई तो यह है कि कांगे्रस की पहचान धर्मनिरपेक्ष राजनीति से हुआ करती थी। कांग्रेस हमेशा सर्वधर्म समभाव और विकास की बात करती रही थी। उसके एजेण्डे में गांव, गरीब और किसान ही हुआ करता था, जो कि वर्तमान कांगे्रस में कहीं नहीं दिखता।
इस तरह से देखें तो देश में लोकतांत्रिक प्रणाली की दिशा भटकाव के दौर में जा चुकी है, जहां जनता की बातें, उसके विकास की बातें, अर्थव्यवस्था और बुनियादी समस्याओं के समाधान की बातें, रोजी-रोजगार की बातें चुनाव से गायब होती दिख रही है। यह किसी भी नजरिये से भारतीय लोकतंत्र के लिए सही नहीं कहा जा सकता है।
दोनों राष्टï्रीय राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के लिए इस चुनाव का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि अगले छ: महीने में लोकसभा चुनाव भी होने है और ये लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। अगर इन दलों के घोषणा पत्र पर नजर डाली जाये तो दोनों दल देश के मुख्य मुद्दों से भटके हुए नजर आते हैं। देश के आर्थिक हालात और सामाजिक तानाबाना को मजबूत करने जैसी बातें गायब हैं। बात मंदिर, बीफ और धर्म जैसी बातों की हो रही है। हैरानी इस बात की है कि भाजपा यहां गोरक्षा की बात करती है, लेकिन उसके ही नेताओं द्वारा अन्य प्रदेशों में बीफ को बढ़ावा देने के बयान देते रहते हैं। केरल में भाजपा के एक प्रत्याशी ने तो यहां तक कह दिया वोट के बदले बीफ खाने की छूट दी जायेगी। केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री बीफ पर पाबंदी को नाजायज बताते हैं तो भाजपा शासित गोवा में बीफ की खुली परमीसन दी जाती है। आंकड़ों की माने तो भाजपा शासन के दौरान बीफ के निर्यात में खासी वृद्घि हुई है। ऐसे में गोरक्षा आदि के मुद्दे सिर्फ छलावा प्रतीत होते हैं। ऐसा ही मुद्दा राम मंदिर का भी है। यह मुद्दा हर चुनाव में भाजपा को याद आ जाता है और उसके बाद हमेशा के लिए गायब हो जाता है। इस पुराने मुद्दे का प्रयोग केवल मतों के ध्रुवीकरण के लिए किया जाता रहा है। मुसलमान अब इस मुद्दे के भावनात्मक पहलू से खुद को अलग करता नजर आ रहा है, परन्तु भाजपा पुराना राग ही अलाप रही है। उसके घोषणा पत्र में विकास की बातें नदारद है, जबकि वर्षों से प्रदेश में भाजपा का ही शासन है और वहां स्थितियां बहुत सही नहीं कही जा सकती हैं।
विपक्षी कांग्रेस के लिए ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि पिछले लोकसभा चुनाव के बाद उसे लगातार पराजय का ही स्वाद चखने को मिला। पंजाब को छोड़कर किसी भी राज्य में उसे जनता ने स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस के भी घोषणा पत्र में विकास की बातें नदारद हैंख् जबकि उसके नेताओं द्वारा ऐसा प्रचारित किया जा रहा है, जैसे धर्म की बैसाखी से चुनाव को जीता जा सकता है। इस कारण कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब भाजपा की नकल करते दिख रहे हैं। वह चुनाव को किसी भी कीमत पर जीतना चाहते हैं। इसके लिए वह पार्टी लाइन से अलग जाकर मंदिर, गुरूद्वारों में मत्था टेक रहे हैं। हिन्दूवादी दिखाने के लिए अपने जनेऊ तक की भी पब्लिसिटी कर रहे है, कैलास मानसरोवर की यात्रा मीडिया में सुर्खियों में थी। कुल मिलाकर उनको लगता है कि पार्टी की हिन्दुवादी छवि दिखाकर वोट की राजनीति को कैश कराया जा सकता है, जबकि सच्चाई तो यह है कि कांगे्रस की पहचान धर्मनिरपेक्ष राजनीति से हुआ करती थी। कांग्रेस हमेशा सर्वधर्म समभाव और विकास की बात करती रही थी। उसके एजेण्डे में गांव, गरीब और किसान ही हुआ करता था, जो कि वर्तमान कांगे्रस में कहीं नहीं दिखता।
इस तरह से देखें तो देश में लोकतांत्रिक प्रणाली की दिशा भटकाव के दौर में जा चुकी है, जहां जनता की बातें, उसके विकास की बातें, अर्थव्यवस्था और बुनियादी समस्याओं के समाधान की बातें, रोजी-रोजगार की बातें चुनाव से गायब होती दिख रही है। यह किसी भी नजरिये से भारतीय लोकतंत्र के लिए सही नहीं कहा जा सकता है।
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